अपने लिए जिए तो क्‍या जिए निबन्ध | Apne liye jiye to kya jiye par nibandh

अपने लिए जिए तो क्‍या जिए पर निबंध– Apne liye jiye to kya jiye par nibandh

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संकेत बिंदु– (1) सूक्ति का तात्पर्य (2) गाँधी जी, सुभाष जी और इंदिरा जी के विचार (3) महापुरुषों, नेताओं और गुरुओं के जीवन निष्कर्ष (4) परोपकार जीवन की सार्थकता (5) उपसंहार।

सूक्ति का तात्पर्य

सूक्ति का तात्पर्य है कि केवल आत्म हित जीवन बिताना जीने की सुन्दर शैली नहीं है। जीवन यात्रा को अपनी ही परिधि तक सीमित रखने में जीवन का आनन्द कहाँ ? 'मैं और मेरा' के दृष्टिकोण से जीवन जीना व्यर्थ है ? स्वार्थमय जीवन को जीवन की संज्ञा नहीं दी जा सकती।

अपना अपना राग अलापना, अपना उल्लू सीधा करना, अपनी खाल में मस्त रहना, अपने पन पर आना तथा अपनी अपनी पड़ने में अपने लिए जीने की झलक दृष्टिगोचर होती है। इस प्रकार का जीवन कोई उच्च जीवन नहीं।

'अपने लिए जिए' से सूक्तिकार का भाव यह भी हो सकता है कि 'स्वार्थ पूर्ण जीवन निकृष्ट जीवन है।' प्रश्न उठता है इस जगत्‌ में नि:स्वार्थ है कौन ? गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है–

सुर नर मुनि सब कै यह रीति। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति।।
जेहिं तें कछू निज स्वारथ होई। तेहिं पर ममता कर सब कोई॥

शेक्सपीयर की तो यहाँ तक धारणा है कि, “The devil can cite scripture for his purpose, अर्थात्‌ अपने प्रयोजन के लिए तो शैतान भी धर्म ग्रन्थ उद्धृत कर सकता है।” कुछ लोगों ने तो श्रीराम और श्रीकृष्ण को भी स्वार्थों सिद्ध करने में कमी नहीं रखी। उनके विचार में राम ने तो आदर्श राज्य की परिकल्पना प्रस्तुत करने के लिए ही गर्भवती पत्नी को त्याग दिया था। क्‍या यह उनका स्वार्थ नहीं कहा जाएगा ? कृष्ण ने तो 'विनाशाय च दुष्कृताम्‌' की इच्छा को पूर्ण करने के लिए कितने ही शूरवीर योद्धाओं को छल से मरवा दिया था।

अपने लिए अर्थात्‌ अपने परिवार के लिए 'जिए' से यह मंतव्य तो नहीं कि परिवार की सुख समृद्धि हेतु जीवन जीने में जीवन नहीं है । परिवार निर्माण भी एक पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ करना व्यक्ति का कर्तव्य है। अपने परिवार की सुख समृद्धि के लिए तथा संतान के उज्ज्वल भविष्य के लिए जीवन जीने में क्या असंगति है ?

गाँधी जी, सुभाष जी और इंदिरा जी के विचार

तब प्रश्न उठता है कि किसके लिए जीया जाए, जिसमें जीवन की सार्थकता हो। माता को रांची में लिखे पत्र में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने 'धर्म और देश के लिए जीने को ही यथार्थ में जीना माना है।' एक अन्य स्थान पर सुभाष बाबू ने 'लड़ने में जीवन की सार्थकता माना है। गाँधी जी के विचार में 'पारमार्थिक भाव से जीव मात्र की सेवा में' जीवन की सार्थकता है। इन्दिरा गाँधी के विचार में, 'महान्‌ ध्येय के लिए ज्ञान आर न्याययुक्त समर्पण में' जीवन की सार्थकता है। प्राकृत भाषा के अंगुत्तरनिकाय के अनुसार, 'श्रद्धा, शील, लज्जा, संकोच, श्रुत (ज्ञान), त्याग और बुद्धि, ये सात धनों से जो धनी है', उसी का जीवन सफल है। धरनीदास के विचार में “जा के उर अनुय्य ऊपजो, प्रेमपियाला पिया 'में जीवन की सार्थकता है। दादा धर्माधिकारी के विचार में ' सबके जीवन को सम्पन्न बनाने में जीवन को सार्थकता है। अज्ञेय के शब्दों में 'जिन मूल्यों के लिए जान दी जा सकती है, उन्हीं के लिए जोना, सार्थक है।' आध्यात्मिक गुरुओं के मत से, प्रभु चिन्तन और समर्पण में ही जीवन की सार्थकता है।

महापुरुषों, नेताओं और गुरुओं के जीवन निष्कर्ष

जीवन की सार्थकता के प्रति प्रकट किए गए ये विचार महापुरुषों, नेताओं, गुरुओं के जीवन निष्कर्ष हैं। उनकी आत्मा की आवाज हैं, किन्तु हैं ये विविध, अनेक रूप हैं। जीवन में किसको अवतरित करें, किसे छोड़ें ? किसका अनुसरण करें, किसका परित्याग ?

'जिए' अर्थात्‌ जीवन शब्द में ही जीवन जीने को शैली, अन्तर्हित है । 'वह तत्त्व, पदार्थ या शक्ति जो किसी दूसरे तत्त्व, पदार्थ या शक्ति का अस्तित्व बनाए रखने के लिए अनिवार्य अथवा उसे सुखमय रखने के लिए परम आवश्यक हो ', जीवन है। ( मानक हिन्दी कोश : खंड दो, पृष्ठ 372) जैसे जल ही सब प्राणियों का जीवन है। इसी प्रकार धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विचार, सत्य, अक्रोध, ममता, दया, मधुरता आदि तत्त्व जीवन के प्राण हैं। अपने जीवन में इन आत्म तत्त्वों की उज्वलता और विकास में ही जीवन की सार्थकता है।

परोपकार जीवन की सार्थकता

'वह तत्त्व जिसके वर्तमान होने पर किसी दूसरे तत्त्व में यथेष्ट ऊर्जा, ओज आदि अथवा यथेष्ट वांछित प्रभाव उत्पन करने या फल दिखाने की शक्ति दिखलाई देती है ', जीवन है। (मानक हिन्दी कोश : खंड दो, पृष्ठ 373) अपने जीवन की ऊर्जा और ओज से दूसरे के जीवन को प्रकाशमान्‌ करने, यशस्वी बनाने में जीवन की सार्थकता है । इसे 'परोपकार' की संज्ञा भी दी जा सकती है। परोपकारमय जीवन में भी जीवन की सार्थकता है। “परहित सरिस धरम नहिं भाई

उपसंहार

जीवन जीने के कुछ सिद्धांत होते हैं, जीवन मूल्य होते हैं। सामयिक अनुकूलता प्रतिकूलता, उपयुक्तता, अनुपयुक्तता का निर्णय करके जीवन के ज्ञान और उसके क्रियात्मक प्रवाह के साथ इन सिद्धांतों और मूल्यों को बहने देने में ही जीने की उत्कृष्टता का निदर्शन है।

'अपने लिए जिए' में से यदि 'अति' को निकाल कर जीवन को समन्वयवादी बना लें तो जीवन जीने का आनन्द ही भिन्‍न है। अति अभिमानी होने से रावण मारा गया। अति उदारता से बलि का विनाश हुआ। अति गर्व के कारण दुर्योधन नष्ट हुआ। अति संघर्षण से चंदन में भी अप्नि प्रकट हो जाती है।

महादेवी जी के शब्दों में, “वास्तव में जीवन सौंदर्य की आत्मा है, पर वह सामंजस्य की रेखाओं में जितनी मूर्तिमत्ता पाता है, उतनी विपमता में नहीं।” सामंजस्यपूर्ण स्थिति में “व्यक्तिगत सुख विश्व वेदना में घुल कर जीवन को सार्थकता प्रदान करता है और व्यक्तिगत दुःख विश्व के सुख में घुल कर जीवन को अमरत्व।' (रश्मि की भूमिका)

जीवन के इस समन्वयात्मक जीवन शैली का सुपरिणाम दर्शाते हुए जयशंकर प्रसाद जी लिखते हैं–

संगीत मनोहर उठता / मुरली बजती जीवन की।
संकेह कामना बनकर / बतलाती दिशा मिलन की ।।

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