गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवन परिचय व काव्यगत विशेषताएँ

तुलसीदास जी का जीवन परिचय- इस आर्टिकल में हम गोस्वामी तुलसीदास जी के जीवन के बारे में जानेंगे साथ ही उनकी काव्य की सभी विशेषताओं की संक्षिप्त रूप में चर्चा करेंगे।

tulsidas ka jivan parichay

तुलसीदास कवि थे, भक्त थे, पण्डित थे, सुधारक थे, लोकनायक और भविष्य के स्रष्टा थे। इन रूपों में उनका कोई भी रुप किसी से घटकर नहीं है।“ –डॉ० हजारीप्रसाद दिवेदी

स्‍मरणीय संकेत
जन्म- सन्‌ 1497 ई०
मृत्यु- सन्‌ 1623 ई०
जन्म-स्थान- राजापुर (बाँदा)।
मरण-स्थान- काशी (अस्सी घाट)।
माता-पिता- हुलसी-आत्माराम।
पत्नी-रत्नावली।
गुरु- नरहरिदास- शेष सनातन।
काव्यगत विशेषताएँं- समन्यय की भावना, आदर्श समार्ज की कल्पना, नवों रसों पर काव्य रचना, भावपक्ष तथा कलापक्ष दोनों उन्‍नत।
साहित्य में स्थान- हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि।
भाषा- संस्कृतनिष्ठ शुद्ध, कोमल ब्रज वथा अवधी दोनों।
शैली- सभी प्रचलित शैलियों।
रचनाएँ- रामचरितमानस, विनयपत्रिका आदि।

प्रश्न– गोस्वामी तुलसीदास का जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए

तुलसीदास का जीवन परिचय

जीवन-परिचय- भगवान राम के अनन्य उपासक गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी साहित्याकाश के उन दैदीप्यमान नक्षत्रों में से एक हैं जिनके प्रकाश से हिन्दी जगत अनन्त काल तक प्रकाशमान होता रहेगा। रामभक्ति का परमोज्ज्वल महाकाव्य रामचरितमानस इन्हीं के द्वारा लिखा गया जिससे हिन्दी साहित्य की प्रौढ़ता का युग प्रारम्भ हुआ। निःसन्देह तुलसीदास एक प्रतिभाशाली कवि, महान भक्त, पहुँचे हुए महात्मा तथा लोकनायक थे और इन सभी रूपों में वे महान थे।

तुलसीदास के जीवन-वृत्त के विषय में मतभेद है। बाबा बेनी माधवदास कृत 'गोसाईं चरित' के अनुसार इनका जन्म दुबे पुरवा नामक गाँव में सं० 1554 वि० में हुआ था। परन्तु रघुबरदास 'तुलसी चरित' के अनुसार तुलसी का जन्म राजापुर नामक गाँव में पं० परशुराम मिश्र की वंश परम्परा में मुरारि मिश्र के यहाँ सं० 1554 वि० में हुआ था। इनका बचपन का नाम तुलाराम था। इन दोनों चरितों में और सब विरोध होते हुए भी गोसाईं जी के जन्म संबत्‌ के विषय में समता है। बाबा बेनी माधवदास ने तो उनकी जन्म-तिथि भी श्रावण शुक्ला सप्तमी दी है।

शिवसिंह सरोज में तुलसीदास जी का जन्म सं० 1583 वि० के लगभग माना गया है। उधर प्रसिद्ध रामभक्‍त राम गुलाम द्विवेदी तुलसी का जन्म सं० 1589 वि० में मानते हैं। इसी संवत को डा० ग्रियर्सन ने भी स्वीकार किया है। उनका यही जन्मकाल अधिक प्रमाणित सिद्ध होता है।

गोस्वामी जी का सरयूपारीण ब्राह्मण होना सर्वमान्य है। पं० रामगुलाम के मतानुसार गोस्वामी जी के पिता का नाम “आत्माराम दुबे” तथा माता का नाम 'हुलसी' था। माता के नाम के प्रमाण में रहीम का यह दोहा प्रस्तुत किया जा सकता है-

“सुरतिय नरतिय नागतिय, सब चाहति अस होय।
गोद लिए हुलसी फिरैे, तुलसी सो सुत होय॥”

कुछ लोग एटा जिला में 'सोरों' नामक स्थान 'की गोस्वामी जी का जन्म-स्थान बताते हैं। परन्तु तुलसी द्वारा रचित काव्य में अनेक ऐसे शब्दों का प्रयोग है, जो अयोध्या और चित्रकूट के आसपास ही बोले जाते हैं। इससे राजापुर (बाँदा) को ही तुलसीदास का जन्म स्थान मानना उचित प्रतीत होता है।

तुलसीदास जी के विषय में यह जनश्रुति प्रसिद्ध है कि इनका जन्म अभुक्तमूल नक्षत्र में हुआ थीं। इस कारण माता-पिता ने इन्हें त्याग दिया था। 'गोसाई-चरित' में लिखा है कि तुलसीदास जब उत्पन्न हुए तो पांच साल के बालक के समान थे। उनके मुख में पूरे दाँत थे और जन्म होते ही वे रोये नहीं अपितु उनकेः मुख से 'राम' निकला; अतः उनके पिता ने उन्हें राक्षस समझकर त्याग दिया था। परित्यक्त होने के बाद उनका पालन-पोषण तथा शिक्षा महात्मा नरहरिदास के यहाँ पंचगंगा घाट पर हुई। शेष सनातन नामक विद्वान से उन्होंने वेद, वेदांग तथा दर्शन का अध्ययन किया। शिक्षा के बाद वे घर लौटे। तब भारद्वाज गोत्रीय 'रत्नावली' नामक ब्राह्मण कन्या से इनका विवाह हुआ । कहा जाता है कि तुलसीदास जी अपनी पत्नी में अनुरक्त थे। एक बार पत्नी के मायके चले जाने पर ये एक नदी पार करके जाकर उससे मिले। तब इनकी पत्नी ने लज्जा का अनुभव किया और कहा-

“लाज न आवत आपको, दौरे आयहू साथ।
धिक्‌ धिक्‌ ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ॥
अस्थि चर्ममय देह मम, ता सौं ऐसी प्रीति।
तैसी जो श्रीराम महँँ, होति न तौ भवभीति॥”

पत्नी की इस फटकार से गोस्वामी जी को वैराग्य हो गया। वे विरक्‍त होकर काशी चले गये। कुछ दिन काशी में रहे, फिर अयोध्या आ गये। तदन्तर उन्होंने सम्पूर्ण देश तथा तीर्थों की यात्रा की। अयोध्या लौटकर - सं० 1631 में उन्होंने अपनी अनुभवशीलता, शास्त्र ज्ञान तथा रामकृपा के बल पर ऐसे दिव्य साहित्य का निर्माण किया जिसने मृतप्रायः हिन्दू जाति में नवजीवन का संचार किया। इसके बाद ये अधिकतर काशी में रहे। यहाँ अनेक साधु-सन्‍त और विद्वान इनसे मिलने आते थे। अपने जीवनकाल में ही तुलसीदास अपनी भक्ति और ज्ञान के लिए सारे देश में प्रसिद्ध हो चुके थे। अनेक साधु, सन्‍त और विद्वान्‌ उनके दर्शन करने आया करते थे।

गोस्वामी जी की मृत्यु के विषय में प्रसिद्ध है कि काशी में महामारी फैली, तब वे विसूचिका के शिकार हो गये। महावीर जी की प्रार्थना करने पर वे एक बार ठीक भी हो गये। किन्तु विसूचिका से जर्जर शरीर अधिक दिन न टिक सका और सं० 1680 वि० में ये परलोकवासी हो गये। तुलसीदास जी की मृत्यु के विषय सें निम्नलिखित दोहा प्रसिद्ध है-

“संवत्‌ सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यौं शरीर॥”

तुलसीदास जी की साहित्यिक कृतियाँ

साहित्यिक कृतियाँ- तुलसीदास की 37 रचनाएँ बतायी जाती हैं किन्तु उनकी केवल 12 प्रामाणिक रचनाएँ ही प्राप्त हैं जो इस प्रकार हैं-
(1) रामचरितमानस, (2) दोहावली, (3) कवितावली, (4) बरवै रामायण, (5) कुण्डलिया रामायण, (6) गीतावली, (7) जानकी मंगल, (8) पार्वती मंगल, (9) रामलला नहछू, (10) वैराग्य संदीपनी, (11) रामाज्ञा प्रश्न, (12) विनय पत्रिका।

प्रश्न– महाकवि तुलसी की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (अथवा) तुलसीदास के काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिए

तुलसीदास की काव्यगत विशेषताएँ

उत्तर- हिन्दी कवियों में भक्ति शिरोमणि तुलसीदास का स्थान सर्वोपरि है। उनकी कविता ने उन्हें हिन्दी साहित्य ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य में ऊँचा स्थान दिलाया है। यद्यपि उनकी कविता का विषय भक्ति एवं आध्यात्म ही रहा है परंतु उन्होंने जीवन के सम्पूर्ण व्यापारों को चित्रित किया है। जीवन, जगत और प्रकृति के जीते-जागते चित्र हमें तुलसी के काव्य में मिलते हैं। तुलसी के काव्य लौकिक तथा पारलौकिक, दोनों प्रकार के आनन्द के साधन है। वे एक ओर हृदय में पावन भावों का संचार करते हैं तो दूसरी ओर जीवन को अनेक समस्याओं का समाधान भी करते है। वास्तव में तुलसी के काव्यों को पढ़कर जीवन की असंख्य बाधाओं को झेलते हुए कर्मपथ पर आगे बढ़ने का उत्साह मिलता है। उनके काव्य में मुख्यतः निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं–

भावपक्ष-

भक्ति-भावना- गोस्वामी तुलसीदास राम के अनन्य भक्त हैं। वे ईश्वर के निर्गुण और सगुण, दोनों रुपों को मानते हैं तथापि भगवान का राम के रुप सें सगुण रूप ही उन्हें विशेष प्रिय रहा है। तुलसी जैसे अनन्य भक्तों के लिए ही निराकार ब्रह्म को साकार होकर राम के रूप में अवतार लेना पड़ा। तुलसी की भक्ति सेव्य-सेवक भाव की है। वे राम को ही एकमात्र अपना स्वामी मानते हैं, किसी अन्य की शरण में वे जाना नहीं चाहते। सभी देवताओं में श्रद्धा रखते हुए भी उनके इष्टदेश एकमात्र राम हैं।
“जेहि हति भावहि वेदबुध, जाहि धरहिं मुनि ध्यान।
सोइ दशरथ सुत भगतहित, कौशल पति भगवान॥"

तुलसीदास की तो सबसे बड़ी एक ही माँग है–

“माँगत तुलसीदास कर जोरे।
बसहि राम-सियमानस मोरे ॥”

स्वामी-सेवक भाव की भक्ति में विनय और दीनता का स्वाभाविक योग रहता है। विनय और दीनता का भाव तुलसी में चरम सीमा तक पहुँच गया है। अत्यन्त दीन भाव से वे-राम को पत्रिका लिखते हैं–

“मैं हरि पतित पावन सुने।
मैं पतित तुम पतित पावन दोउ बानक बने।
                  ×            ×              ×
दास 'तुलसी' सरन आयो राखियो अपने॥"

तुलसी की भक्ति आडम्बर से रहित हैं। उसमें विविध विधि-विधानों की आवश्यकता ही नहीं है-

“सूधे मन सूधे वचन, सूधी सब करतूति।
तुलसी, सूधी सकल विधि रघुवर प्रेम प्रसूति॥”

तुलसी के राम परब्रह्म अनादि पुरुष हैं। सीता मूल प्रकृति है। आनन्दस्वरूप होते हुए भी वे मायाधीश तथा सगुण ब्रह्म भी हैं। राम की माया ही उसके संकेत मात्र से सृष्टि का निर्माण और संहार करती है। तुलसी के विचार से भक्तिमार्ग ज्ञानमार्ग की अपेक्षा सरल और सर्वसुलभ है।

प्रेम की अनन्यता- तुलसीदास ने चातक प्रेम के आदर्श को अपनाया है। वे तो एक राम-घनश्याम के लिए ही पपीहा बने हुए हैं–

“एक-भरोसो, एक बल, एक आस विश्वास।
एक राम-घनश्याम हित, चातक तुलसीदास!”

महान आदर्शों की स्थापना- कविवर तुलसी ने राम के आदर्श चरित्र में जीवन की सभी दिशाओं और समाज के सभी क्षेत्रों में जिन आदर्शों की स्थापना की है, उनके आधार पर एक आदर्श समाज की रचना हो सकती है। उनके राम परब्रह्म होते हुए भी गृहस्थी हैं। उनमें मानव जीवन के सभी आदर्श विद्यमान हैं और उन आदर्शों के साथ भक्ति का ऐसा समन्वय किया है जो भारतीय जनता को अनन्त काल तक प्रकाश प्रदान करते रहेंगे। राम के जीवन में उन्होंने पिता-पुत्र, भाई-भाई, गुरु-शिष्य, पति-पत्नी, राजा-प्रजा आदि सभी सम्बन्धों का आदर्श उपस्थित कर सभी के कर्तव्यों का निर्देश किया हैं। इन्हीं महान आदशों के कारण तुलसी समस्त हिन्दू जनता के हृदय सम्राट और लोकनायक बन गये हैं।

अनुभूति की गम्भीरता- तुलसी की भावानुभूतियाँ बडी सरस और गम्भीर हैं। विविध संस्कारों तथा विभिन्न स्वभाव के पात्रों का स्वाभाविक वर्णन में इन्हें अभूतपूर्व सफलता मिली है। अपने सभी पात्रों के गुप्त भावों को परखने के लिए तुलसी की दृष्टि बहुत पैनी रही है। जीवन का ऐसा कोई व्यापार नहीं है जो तुलसी की पैनी दृष्टि से बच पाया हो।

समन्वय की भावना- तुलसी के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता उनकी समन्वय की भावना है। वे एक महान्‌ समन्वयवादी कवि हैं। जीवन के सभी क्षेत्रों में उन्होंने समन्वय का सफल प्रयास किया है। धर्म के क्षेत्र में ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय तथा सामाजिक क्षेत्र में चारों वर्णों और आश्रमों का समन्वय उन्होंने बहुत ही सुन्दर रीति से किया है। इतना ही नहीं, शैवों और शाकतों का समन्वय तथा काव्य में नौ रसो और विभिन्‍न शैलियों का समन्वय भी उनके काव्य में पाया जाता है। उनकी इस समन्वयवादी नीति ने ही उनके काव्य को भूत, भविष्यत्‌ और वर्तमान, तीनों कालों की वस्तु बना दिया है।

रस-निरूपण- तुलसी के काव्य की एक महती विशेषता यह भी है कि उन्होंने सभी रसों में रचनाएँ की हैं परन्तु कहीं भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं हुआ है। उन्होंने प्रेम और श्रृंगार का ऐसा वर्णन किया है कि जिसे बिना किसी लज्जा के नि:संकोच पढ़ा जा सकता है। श्रृंगार वर्णन में ऐसी शालीनता अन्यत्र दुर्लभ है।

कलापक्ष-

भाषा- तुलसीदास जी का ब्रज और अवधी, दोनों भाषाओं पर समान अधिकार है। दोनों ही भाषाओं में उन्होंने सफल तथा उत्तम काव्य रचना की है। अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'रामचरितमानस' में इन्होने अवधी भाषा का प्रयोग किया है। इनकी भाषा शुद्ध, संस्कृत निष्ठ तथा प्रसंगानुसारिणी है। विनय पत्रिका, 'कवितावली' तथा गीताबली' में ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है। इनके काव्यों में ब्रजभाषा का परिमार्जित तथा प्रौढ़ रूप पाया जाता है। इन दोनों काव्य भाषाओं के अतिरिक्त इनके काव्य में बुन्देलखण्डी और भोजपुरी का प्रयोग भी पाया जाता है।

वास्तव में भाषा के विषय में तुलसी का दृष्टिकोण बड़ा उदार था। फारसी और अरबी के शब्दों का उपयोग करने में भी उन्होंने संकोच नहीं किया है। 'जहान', 'गरीब नवाज' जैसे विदेशी शब्द उनके काव्य में जहाँ-तहाँ प्रयुक्त हुए हैं।

छन्द-योजना- तुलसीदास छन्द शास्त्र के पारंगत विद्वान्‌ थे। उन्होंने विविध छन्‍दों में काव्य रचना की है। दोहा, चौपाई, सोरठा, हरिगीतिका, बरवै, कवित्त, सवैया आदि छन्दों का उन्होंने सफल प्रयोग किया है। 'रामचरितमानस' के लंकाकाण्ड में तो युद्ध का वर्णन करते समय वीरगाथाकालीन कवियों के छन्दों का भी प्रयोग किया गया है। प्रत्येक काण्ड के आरम्भ में संस्कृत के सुन्दर पद्यों में स्तुति की गयी है। भाषा के समान उनके छन्द भी प्रसंगानुसार हैं।

शैली- तुलसी ने सभी प्रचलित शैलियों में काव्य रचना की है। उनके 'रामचरितमानस' में जायसी की दोहा-चौपाई की प्रबन्धात्मक शैली, 'बरवै-रामायण' में रहीम की बरवै पद्धति की कथात्मक शैली, 'विनयपत्रिका' में सूरदास और विद्यापति की गीति मुक्तक शैली तथा 'दोहावली' में कबीर की साखी रूप में प्रचलित दोहा मुक्‍तक शैली प्रयुक्त हुई है।

अलंकार-योजना- अलंकारों के प्रयोग में भी तुलसी सिद्धहस्त हैं। अनुप्रास, यमक, वक्रोक्ति, उपमा रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, अतिशयोक्ति, विभावता और विशेषोक्ति आदि अलंकारों का इन्होंने स्वाभाविक तथा चमत्कारपूर्ण प्रयोग किया है। इनके अलंकार कविता पर भार न बनकर सौन्दर्य-वृद्धि के साथ-साथ भावों का उत्कर्ष भी करते हैं। सारांश यह है कि तुलसी का काव्य हिन्दी के लिए गौरव की वस्तु है। उनका 'रामचरितमानस' तो इतना उत्कृष्ट काव्य है कि उसे 'पाँचवाँ वेद' कहते हैं और उसका पाठ तथा श्रवण करने में भी पुण्य का अनुभव किया जाता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि भाषा, भाव, शैली, छन्‍द तथा अलंकार आदि सभी दृष्टियों से महाकवि तुलसी एक सफल एवं सिद्ध कवि हैं। विश्व प्रसिद्ध कवियों में तुलसीदास सम्मान जनक स्थान है।

तुलसीदास के महाकाव्य रामचरित मानस के सम्पूर्ण भाव को डॉ० सुधीर दीक्षित द्वारा कहानियों के रूप में लिखा गया है। जिसे आप मात्र 1 घंटे में पढ़ सकते है और रामायण के भाव और कहानियों को आसानी से जान सकते हैं। 

रामचरित मानस की 101 कहानियां | डॉ. सुधीर दीक्षित

 

Next Post Previous Post