परहित सरिस धर्म नहिं भाई निबन्ध

परहित सरिस धर्म नहिं भाई निबन्ध 

Parhit saris dharm nahin bhai essay in Hindi

इस निबन्ध के अन्य शीर्षक-

  • वही मनुृप्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे
  • परोपकार
  • पर उपकार सरिस न भलाई
  • सुरसरि सम सब कहै हित होई

रूपरेखा

1. प्रस्तावना, 2. समाज का आधार-परहित की भावना, 3. परोपकार स्वाभाविक गुण है, 4. परोपकार महान्‌ धर्म है।

प्रस्तावना

मानव जीवन एक अमूल्य विधि है। यों तो संसार में कीट-पतंगों की भांति अनेक मनुष्य नित्य जन्म लेते और मर जाते हैं लेकिन ऐसे महापुरुष कम ही होते है जो अपने जीवन के उद्देश्य को समझते है, उनको पाने का प्रयास करते हैं और सफल भी होते हैं। ऐसे लोग अमर हो जाते हैं। मानव जीवन का वास्तविक उद्देश्य है- मानव कल्याण। “वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे” जो मनुष्य अपने आत्मिक विकास के साथ मानव जाति का कल्याण करने में जितना सफल हो जाता है, वह उतना ही महान्‌ बन ज़ाता है। बास्‍तविकता यह है कि अपने संकुचित स्वार्थ से ऊपर उठकर मानव जाति का निःस्वार्थ उपकार सुरसरि के समान करना ही मनुष्य का प्रधान कर्तव्य और सबसे बड़ा धर्म है।

समाज का आधार : परहित की भावना

मनुष्य मूलतः एक सामाजिक प्राणी है। बिना समाज के मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। समाज की स्थिति परहित की भावना पर आधारित है। जिस समाज के सदस्यों में परस्पर सहयोग की भावना जितनी अधिक होती है वह समाज उतना ही सुखी और सम्पन्न होता है। और समाज के सदस्य स्वार्थी तथा “अपना कर दूसरों की चिन्ता न कर” के सिद्धान्त के अनुयायी होते हैं वह समाज दुःखी होकर छिन्न-भिन्‍न हो जाता है। इसीलिए विश्व की सभी प्राचीन एवं आधुनिक सभ्यताओं में परोपकार की भावना पायी जाती है। सभी धर्मों में परोपकार की भावना को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। हिंदू संस्कृति में तो परोपकार को सबसे बड़ा धर्म माना गया है, 

“परहित सरिस़ धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।"

परोपकार स्वाभाविक गुण है

परोपकार की भावना मानव के लिए स्वाभाविक है। मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षियों और जड़ पदार्थों में भी यह भावना पायी जाती है। यह हो सकता है कि प्रबल स्वार्थ के आवेग में हम इस भावना का निरादर कर दें किन्तु मूल रूप में यह दैवी भावना सब में है। जो व्यक्ति सज्जन और हैं वे सदा इस भावना का आदर करते हैं। वे स्वयं अनेक कष्ट सहकर भी दूसरों का उपकार करते हैं। हम देखते हैं कि जड़ वृक्ष दूसरों के खाने के लिए ही फल उत्पन्न करते हैं तथा उनका बोझ धारण करते हैं। नदी दूसरों के हित के लिए ही जल को बहाती है। जब निर्जीव पदार्थों की यह दशा है, तब विवेकशील मानव क्यों न परोपकार के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दे? इसी भाव को कविवर कबीर ने इस प्रकार से प्रकट किया है-

“वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर ॥"

केवल अपने लिए तो पशु भी जीते हैं। मनुष्य की यही तो विशेषता है कि वह आत्मोद्धार करता हुआ भी दूसरों का उद्धार करता है। जो मनुष्य इस परोपकार रूपी मानवीय-धर्म का पालन नहीं करता, जो परहित के लिए अपना तन-मन-धन, सब कुछ अर्पित नहीं कर देता, वह मनुष्य नहीं, मानवता के लिए अभिशाप है। महापुरुष अपना सर्वस्व देकर भी दूसरों का उपकार करते हैं। दानवीर कर्ण ने अपने अमूल्य कवच और कुण्डल परोपकार के लिए दे दिये थे, महर्षि दधीचि ने देवों के उद्धार के लिए अपनी हड्डियाँ दे दी थी और, महात्मा गांधी ने परोपकार के लिए ही अपने प्राण दे दिये थे। इस प्रकार के परोपकारी मनुष्य संसार में अमर हो जाते हैं।

परोपकार महान्‌ धर्म है

वास्तव में समाज उन महापुरुषों के बल पर खड़ा है जिन्होंने परहित और मानव कल्याण को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया है। निःस्वार्थ भाव से चिन्तन करने वाले गांधी, मालवीय तथा तिलक जैसे महात्माओं द्वारा ही समाज का कल्याण होता है। यही वह धर्म है जिसके द्वारा मानव जाति का उद्घार हो सकता है, विश्व-शान्ति की स्थापना का स्वप्न पूरा हो सकता है। जो समस्त मानव जाति का कल्याण सोचते हैं, जो दूसरों के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, उन्हीं का जीवन सफल होता है। कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है–

'“मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।” 

हमें सर्वहितकारी भाव अपनाने चाहिए तभी विश्वबन्धुता बढ़ेगी, मानवता का विकास होगा तथा हम इस आदर्श को अपनाएँगे-

“सर्वे भवन्तु सुखिने: सर्वे सन्‍तु निरामया:।
सर्वे भद्राणिपश्यन्तु मा कश्चिदुदुखभाग्‌ भवेत्‌॥” 

परोपकारी मनुष्य अपना अनिष्ट करने वाले का भी भला ही करता है। उसके जीवन का मूल मन्त्र होता है–

“जो तोकों काँटा बुवै, ताहि बोइ तू फूल।
तोहि फूल को फूल है, वाको है तिरसूल॥"

वास्तव में परोपकाररत जीवन ही जीवन है। क्षणिक स्वार्थ पूर्ति से दूर रहकर ही परोपकारी जीवन बिताना चाहिए–

"पर उपकारी बनकर ही तो, जीना जग में जीना है।
स्वार्थलीन पशु सम जी लेना, भी जग में क्या जीना है।।"

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