जयशंकर प्रसाद- जीवन परिचय, कृतियाँ, भाषा शैली

प्रसाद जी हिन्दी में छायावादी काव्यधारा के प्रवर्तक हैं। खड़ी बोली में कोमलकान्त पदावली का समावेश प्रसाद जी के काव्य की महत्वपूर्ण विशेषता है। छायावादी काव्य का जो मनोहर महल खड़ा हुआ, उसका शिलान्यास प्रसाद जी के कर-कमलों द्वारा ही हुआ था।”  –एक आलोचक

स्मरणीय संकेत
जन्म– सन्‌ 1889 ई०
मृत्यु– सन्‌ 1937 ई०
जन्म स्थान– काशी
पिता– श्री देवीप्रसाद (सुँघनी साहू)
अन्य बातें– बारह वर्ष की अवस्था में पिता की मृत्यु, जीवन कष्टों में बीता।
काव्यगत विशेषताएँ– छायावाद के प्रवर्तक, नये विचार, नयी कल्पनाएँ, नयी शैलियाँ।
भाषा– आरम्भ में ब्रजभाषा, बाद में खड़ी, शुद्ध संस्कृत, लाक्षणिक तथा मधुर भाषा।
शैली– अनेक शैलियाँ, अलंकारों में नवीन उपमान।
रचनाएँ– काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी आदि अनेक रचनाएँ।

प्रश्न– जयशंकर प्रसाद का जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए।

Jayshankar prasad ka jivan parichay

जीवन परिचय– हिन्दी में छायावादी काव्य के प्रवर्तक श्री जयशंकर प्रसाद का जन्म माघ शुक्ला द्वादशी सं०1946 वि० (सन्‌ 1889 ई०) काशी के धनी, महादानी परिवार में हुआ था। आपके पितामह शिवरत्न साहू जी काशी के प्रसिद्ध-दानियों में गिने ज़ाते थे। बालक प्रसाद की अवस्था अभी बारह वर्ष की ही थी कि आपके पिता श्री देवीप्रसाद जी का स्वर्गवास हो गया। 15 वर्ष की अवस्था में माता तथा 17 वर्ष की अवस्था में बड़े भाई के निधन का दुःख भी आपने सहा। उस समय प्रसाद सातवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। इन सबकी मृत्यु हो जाने पर घर का सारा भार प्रसाद के कन्धों पर आ पड़ा और इनका स्कूल जाना बन्द हो गया। अत: घर पर ही पढ़ने का प्रबन्ध किया। इसी बीच प्रसाद के हृदय ने एक के बाद दूसरी पत्नी को संसार से सदा के लिए विदा किया। विधवा भाभी तथा मातृहीन पुत्र रत्नशंकर को देखकर ये अपने आँसू सम्भाल न पाते थे। 'आँसू' की "उत्तेजित कर मत दौड़ाओ, यह करुणा का थका चरण है” आदि पंक्त्तियों में इसी विषाद की गूँज है। उन्‍नीस वर्ष की अवस्था से ही प्रसाद ने ऐतिहासिक खोजों तथा छायावादी रचनाओं का आरम्भ कर दिया था। जीवन आपका अत्यन्त सरल था। स्वभाव से आप हँसमुख, मिलनसार, स्नेहशील और साहसी थे। अनेक कठिन परिस्थितियाँ प्रसाद के जीवन में आयीं किन्तु उन सबका सामना करते हुए भी आप भगवती भारती की सेवा में निरन्तर जुटे रहे। भारतीय दर्शन, इतिहास, संस्कृत साहित्य और विशेषकर बौद्ध साहित्य पर आपका गम्भीर अध्ययन है।

प्रसाद जी का जीवन बड़ा सीधा सादा और शान्तिप्रिय था। वे अत्यन्त प्रतिभाशाली कवि और महान्‌ शिवभक्त थे। 'कामायनी' पर उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन से 'मंगलाप्रसाद' पारितोषिक मिला था। 14 नवंबर सन्‌ 1937 ई० को आपका परलोकवास हो गया।

साहित्यिक कृतियाँ– 

प्रसाद जी महान्‌ साहित्यकार थे। उनका साहित्य अत्यन्त विशाल है। साहित्य की विविध विधाओं पर उन्होंने अपनी लेखनी चलायी है। इनकी मुख्य कृतियाँ इस प्रकार हैं–

1. काव्य ग्रन्थ– चित्राधार, कानन कुसुम, करुणालय, महाराणा का महत्व, प्रेम पथिक, झरना, आँसू लहर, कामायनी।
2. नाटक– राज्यश्री, अजातशत्रु, स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, विशाख, कामना, जन्मेजय का नागयज्ञ, एक घूँट, परिणय, कल्याणी आदि।
3. कहानी– आकाश दीप, इन्द्रजाल, प्रतिध्वनि, आँधी, चित्राधार की कहानियाँ।
4. उपन्यास– कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण)।
5. निबन्ध– काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध।
6. चम्पू– उर्वशी, प्रेम राज्य।

प्रश्न– जयशंकर प्रसाद की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। 

(अथवा)

जयशंकर प्रसाद के काव्य सौष्ठण पर विचार कीजिए।

जयशंकर प्रसाद युग प्रवर्तक तथा युगस्रष्टा कबि थे। उन्होंने प्राचीन और नवीन का समन्वय कर एक नवीन काव्य शैली को जन्म दिया और काव्य के विषय में नये कीर्तिमान स्थापित किये। प्रसाद जी के काव्य में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं–

भावपक्ष–

दार्शनिकता– प्रसाद जी एक महान दार्शनिक थे। दार्शनिकता की झलक उनकी प्रत्येक रचना में दिखाई पड़ती है। उपनिषदों में प्रतिपादित दार्शनिक ज्ञान के साथ बौद्ध दर्शन का समन्वित रूप भी हम उनके साहित्य में पाते हैं।

संस्कृति प्रेम– प्रसाद जी को भारतीय संस्कृति से असीम प्रेम था। उनके सभी नाटकों और काव्यों में भारतीय संस्कृति की महिमा का उद्घोष सुनायी पड़ता है। हिन्दी साहित्य में बुद्धकालीन भारत तथा तत्कालीन भारतीय संस्कृति का स्पष्ट चित्र यदि कहीं देखने को मिल सकता है तो वह प्रसाद के नाटकों में मिल सकता है।

श्रृंगार रस– रीतिकाल में श्रृंगार का भद्दा चित्रण हुआ था। इसका द्विवेदी युग में घोर प्रतिरोध हुआ जिसके फलस्वरूप श्रृंगार को हेय समझा जाने लगा। प्रसाद जी ने श्रृंगार में सात्विकता का समावेश किया और उसे रसराज के पद पर अभिषिक्त किया। संयोग की अपेक्षा वियोग वर्णन में कवि का मन अधिक रमा है। प्रसाद का आँसू काव्य उनके विरह वर्णन की चरम सीमा तक पहुँच गया है जिसकी परिणति दार्शनिकता में होती है। उन पर बौद्ध धर्म की दुःखवारी झलक में दर्शन होते हैं-

“जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति-सी छाई।
दुर्दिन में आंसू बनकर, वह आज बरसने आई॥”

नारी के विभिन्न रूपों का चित्रण– प्रसाद जी ने नारी के बाह्य सौन्दर्य के साथ ही उसके आन्तरिक सौन्दर्य का भी मनोहारी चित्रण किया है। उन्होंने रीतिकाल के कवियों की भाँति नारी को केवल नायिका के रूप में न देखकर प्रेममयी, भार्या, त्यागमयी भगिनी तथा श्रद्धामयी माता के रुप में देखा और नारी के श्रद्धा, प्रेम तथा त्याग आदि गुणों से युक्त उदात्त चित्र प्रस्तुत किये। नारी को श्रद्धामयी देवी के रूप में देखिए–

“नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास जगत नग पद तल में,
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में॥”

प्रकृति चित्रण– प्रकृति से प्रसाद जी को स्वाभाविक प्रेम था। उनकी रचनाओं में प्रकृति के नाना रुपों के संश्लिष्ट चित्र मिलते हैं। प्रकृति के रम्य तथा भयानक, दोनों ही रूपों का इन्होंने चित्रण किया है। उषा का एक स्मरणीय चित्र देखिए, प्रकृति कैसी सजीव हो उठी है–

“अब जागो जीवन के प्रभात!
वसुधा पर ओस बने! बिलरे हिमकण आँसू जो क्षोभ भरे।
उषा बटोरती अरुणगात || अब जागो .................।"

प्रकृति का भयानक ताण्डव नृत्य भी दर्शनीय है–

“पंचभूत भैरव का मिश्रण, शम्पाओं का शकल निपात!
उल्का लेकर अमर शक्तियाँ, खोज रही ज्यों खोया प्रात॥"

इस प्रकार भावपक्ष की दृष्टि से प्रसाद जी का काव्य अत्यंत उच्च कोटि का है।

कलापक्ष–

भाषा– प्रसाद जी ने पहले ब्रजभाषा में लिखना आरम्भ किया था किन्तु बाद में ये खड़ी बोली में लिखने लगे। इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ तथा गम्भीर है। बोलचाल की चुलबुलाहट और मुहावरों की कलाबाजियाँ उसमें नहीं हैं। वास्तव में प्रसाद जी ने गम्भीर विषयों पर काव्य रचना की है। भावों को व्यक्त करने के लिए गम्भीर भाषा की ही आवश्यकता होती है। प्रसाद जी का शब्द चयन बड़ा अनूठा है। उनके शब्द भावों की अभिव्यंजना करने में पूर्ण रूप से समर्थ है। मधुपता, कोमलता और संगीतमयता प्रसाद की भाषा की निजी विशेषताएँ हैं। भाषा की लाक्षणिक शक्ति का भी इन्होंने प्रयोग किया है। इनके साथ ही साथ इनकी भाषा में चित्रात्मकता, प्रवाहशीलता और पात्रानुकूलता के भी गुण विद्यमान हैं। उनकी भाषा प्रसाद गुण से युक्त है।

अलंकार योजना– प्रसाद जी के अलकार अत्यन्त स्वाभाविक और मनोरम हैं। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि प्रचलित अलंकारों के साथ उनके काव्य में विश्लेषण, विपर्यय तथा मानवीकरण आदि नवीन अलंकारों का भी सुन्दर प्रयोग हुआ है। प्रसाद जी के उपमान सर्वथा नवीन तथा चमत्कारपूर्ण हैं। उपमा की शोभा देखिए–

“नील परिधान बीच सुकुमार,
खुल रहा मृदुल अधखुला अंग,
खिला हो ज्यों बिजली का फूल,
मेघ वन बीच गुलाबी रंग॥"

मानवीकरण प्रसाद जी का प्रिय अलंकार है–

“बीती विभावरी जागरी।
अम्बर पनघट पर डुबो रही तारा घट ऊषा नागरी॥"

छन्द योजना– प्रसाद जी की छन्द योजना भी अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक है। प्रसाद जी ने विविध छन्दों में काव्य रचना की है। संस्कृत छन्दों का भी इन्होंने प्रयोग किया है। इनके गीत तो बहुत ही सुन्दर और मनोज्ञ हैं। नि:सन्देह प्रसाद जी एक महान्‌ कवि, श्रेष्ठ नाटककार, सफल कहानीकार तथा उच्च कोटि के उपन्यासकार थे। आधुनिक काल के साहित्यकारों में उनका स्थान बहुत ऊँचा है।

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