विपत्ति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत सूक्ति पर निबंध

विपत्ति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत सूक्ति पर निबंध

संकेत बिंदु- (1) सच्चा मित्र (2) रहीम के नवीन भाव (3) विपत्ति के समय मित्र की कसौटी (4) सम्पत्ति को विपत्ति में मित्रता की कसौटी (5) उपसंहार।

सच्चा मित्र

मित्र की पहचान बताते हुए रहीम जी कहते हैं- जो विपत्ति अर्थात् कष्ट, चिंता, हानि, संकट में काम आए, सहयोग-सहायता से उपकृत करे, वही सच्चा मित्र है।

इस प्रकार रहीम जी ने विपत्ति को 'साँचे मीत' की कसौटी माना है। इस कथन को उनके पूर्व के मनीषी और लेखक पहले भी व्यक्त कर चुके हैं। अश्वघोष ने कहा, 'विपत्ति में साथ न छोड़ना मित्र का लक्षण है।' भर्तृहरि ने भी कहा, 'सच्चे मित्र विपत्ति में उसका साथ नहीं छोड़ते।' वाल्मीकि रामायण में लिखा है, 'दुःखितः सुखितो वापि सख्युर्नित्यं सखा गतिः' अर्थात् मित्र दुःख में हो या सुख में, वह अपने मित्र को सदा ही सहायता करता है। गाथा सप्तशती ने लिखा, 'विपत्ति पड़ने पर किसी देश-काल में भी मित्र दीवार पर अंकित चित्र की भाँति मुँह नहीं फेरता।' गोस्वामी तुलसीदास ने मानस में इसका समर्थन किया, 'विपत्ति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा' तथा 'धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपतकाल परखिए चारी।' प्लुटार्क ने कहा, 'विपत्ति ही ऐसी तुला है, जिस पर मित्रों को तोल सकते हैं।' (Adversity is the only balance to Weight friends) 

रहीम के नवीन भाव

प्रश्न उठता है कि रहीम ने नई बात क्या कही? पुरानी बात का समर्थन करके रहीम ने कौन-से नए सत्य का उद्घाटन किया, जो सूक्ति बन गया? यदि हम इस दोहे की पूर्व पंक्ति को पढ़ेंगे तो लगेगा रहीम ने लीक से हटकर कुछ नए भाव रखे हैं। 

कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीति।
विपत्ति कसौटी जे कसे, ते ही सांचे मीत।।

विपत्ति के समय मित्र की कसौटी

व्यक्ति के पास ऐश्वर्य और वैभव होने पर तो लोग तरह-तरह से रिश्तेदारी या पारिवारिक सम्बन्ध जोड़कर उससे अपनत्व प्रकट करते हैं, परन्तु सच्चा मित्र तो वह है, जो विपत्ति में काम आए।

यहाँ रहीम जी ने 'सगे बनत' और 'मीत' का प्रयोग किया है। 'सगे बनत' का अर्थ है 'सहोदर बनना' या 'संबंध अथवा रिश्ते में अपने ही कुल या परिवार का बनना'। मीत का अर्थ मित्र या दोस्त है। इस व्याख्या से 'सगे बनत' और 'मीत' में अन्तर आ गया। पारिवारिक संबंध जोड़ना और मित्रता निभाना, दो अलग-अलग बातें हैं। पारिवारिकता का संबंध रक्त से है और मित्रता का हृदय से।

इस दोहे से रहीम जी का यह भाव प्रकट हुआ कि जब व्यक्ति सम्पत्तिवान् होता है तो लोग अपने तरीके से, विविध उपायों से, नए-नए आधारों पर उससे संबंध-स्थापित करते हैं। पर विपत्ति पड़ने पर जो साथ छोड़ जाए, वह 'साँचा मीत' कहलाने योग्य नहीं। यहाँ सम्पत्ति का अर्थ ऐश्वर्य, वैभव, जायदाद के साथ-साथ लाभपूर्ण पद का स्वामित्व लें तो बात स्पष्ट हो जाएगी। पार्षद, विधायक, सांसद, पदासीन अधिकारी तथा सत्तासीन राजनयिक सम्पत्तिवान् हैं। इनके आगे-पीछे जनता का तांता लगा रहता है। सच भी है, गुड़ है तो उस पर मक्खियाँ भिन-भिनाएंगी ही। कहीं पहचान निकाली जाती है, दोस्तों के दोस्त बन जाते हैं, दूर की रिश्तेदारी का वास्ता दिया जाता है। और नहीं तो 'काले-काले सब मेरे बाप के साले' कहकर 'भानजा' बनने की कहावत तो चरितार्थ कर 'सगे बनत' का प्रयत्न करते हैं। जयशंकर प्रसाद जी ने (प्रेम पथिक में) इस सत्य का उद्घाटन करते हुए कहा-

कहीं तुम्हारा 'स्वार्थ' लगा है, कहीं लोभ है 'मित्र' बना।
कहीं 'प्रतिष्ठा', कही 'रूप' है, मित्र रूप में रंगा हुआ॥  

पद मुक्त हुए, निर्वाचन में पराजय पल्ले पड़ी तो 'सगे' बेगाने हो गए। इन्दिरा जी की पराजय के पश्चात् उनके कई सहयोगियों को संजय और इन्दिरा जी में बुराइयाँ ही बुराइयाँ दीखने लगीं। चहुँ ओर उनके दोषों, भूलों, बुराइयों की शल्य-क्रिया होने लगी। Indira is India (इंदिरा ही भारत है) मानने वालों का स्वर चमगादड़ की तरह बदल गया। इन्दिरा जी उनकी नजर में देशघातिनी बन गईं। अपनी कूटनीति से इन्दिराजी पुनः प्रधानमंत्री बनी तो वे ही आलोचक, हितैषी बनने का, सगे होने का नाटक करने लगे। इस विपत्तिकाल में इन्दिरा का सगा बना 'बेटा संजय' और मित्र बने अमित्र।

सम्पत्ति को विपत्ति में मित्रता की कसौटी

सम्पत्ति को विपत्ति में मित्रता की कसौटी मानना क्या असंगत है ? बिलकुल नहीं। फिर 'सगे' को विपत्ति की कसौटी मानें ? बिलकुल मानना चाहिए। क्या 'सगे' को 'मीत' का पर्यायवाची मानते हुए पहली बात को दूसरी का उदाहरण मानें ? नहीं, बिलकुल नहीं। पर, यदि मीत का अर्थ 'सहृदय' लें तो बात स्पष्ट हो जाएगी।

हनुमान् श्रीराम के सगे (संबंधी) नहीं थे, पर सहृदय (मीत) बनकर उन्होंने विपत्तिकाल में उनका साथ दिया। इसके विपरीत विभीषण रावण का सगा बंधु (अनुज) था, पर विपत्तिकाल में वह साथ छोड़ गया। इतना ही नहीं रावण का वध उसी के कारण हुआ।

महाभारत का कर्ण पांडवों का 'सगा' था, किन्तु मित्रता निभाई कौरवों के साथ; यह जानने पर भी कि वह कुंती पुत्र है। कर्ण ने दुर्योधन को कहीं धोखा नहीं दिया, जीवनपर्यन्त साथ नहीं छोड़ा। यही मित्रता की सच्ची कसौटी है।

दानवीर भामाशाह और महाराणा प्रताप का क्या रिश्ता था? राजा और प्रजा का, 'सगे' का नहीं। 'मीत' होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। भामाशाह ने विपत्ति को समझा, सहृदय बना और सम्पूर्ण सम्पत्ति प्रताप के चरणों में अर्पित कर दी। हुई न सहृदय (मीत) की कसौटी विपत्ति।

बिहार-पुलिस के शूरवीर जब जयप्रकाश नारायण पर लाठी भांज रहे थे तो नाना जी देशमुख ने उनका सुरक्षा कवच बन लाठियों का प्रहार अपने ऊपर झेला। मौत की परवाह नहीं की। क्या रिश्ता था जयप्रकाश नारायण और नानाजी देशमुख का? केवल सहृदयता का। इसके विपरीत इन्दिरा जी पर गोलियाँ चलीं तो साथ चलने वालों में से कोई उनकी सुरक्षा के लिए गोली खाने को तैयार नहीं हुआ। इसलिए आज के भारत का सिद्धान्त बना- 

गीत गाओ त्याग के, चर्चा करो परमार्थ पर।
घूम-फिर कर अंत में, आ जाइए निज स्वार्थ पर। -काका हाथरसी ('सत्संग' कविता) 

उपसंहार

सम्पत्ति महान् साधन है 'मीत' का और विपत्ति कसौटी है मीत के परख की संपत्ति मंगलमय मिलन का स्रोत है तो विपत्ति अलगाव की पीड़ा। इसीलिए रहीम ने कहा, जो विपत्ति में सहायक बने, वही वास्तविक सुहृद है, वही सखा और अभिन्न मित्र है।

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