पर उपदेश कुशल बहुतेरे सूक्ति पर निबंध

पर उपदेश कुशल बहुतेरे सूक्ति पर निबंध 

संकेत बिंदु- (1) भारत ऋषि, मुनि और तपस्वियों का देश (2) गाँधी जी का दृष्टांत (3) दूसरों को उपदेश देने की अपेक्षा उस पर अमल (4) उपदेश मानव मन की सहज अनुभूति (5) उपसंहार।

भारत ऋषि, मुनि और तपस्वियों का देश

हमारा देश भारत ऋषियों, तपस्वियों, मनीषियों, गुरुओं और आचार्यों आदि का देश कहा जाता है, यही कारण है कि हमारे देश में उपदेश बहुत ही महत्त्वपूर्ण माने और कहे गये है। वृत्तान्त मिलता है कि नारद मुनि भी प्रत्येक देवी-देवता, मानव-दानव, किन्नर, यक्ष आदि को केवल उपदेश ही दिया करते थे। फिर उपदेश जो निःशुल्क, मुफ्त में मिल जाये तो उपदेश देने और लेने वाले की हानि तो कहीं भी होती, मगर व्यक्ति चर्चा में अवश्य रहता है। 

संस्कृत की एक प्रसिद्ध उक्ति है "महाजनो येन गत: स पंथ:।"
जिस का अर्थ हुआ जिस मार्ग पर हमारे गुरुजन गये हों हम सबको भी उसी मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। भारत मे हम सभी "एक ही लकीर के फकीर" भी कहे जाते हैं और यदि देखा जाते तो हम सभी नकल करने मे सबसे आगे माने जाते हैं। तो फिर जब हमारे गुरुजन उपदेशा दिया करते हैं तो हमे भी उनके मार्ग पर चल कर ही उपदेश देने में हर्ज ही क्या है?

गाँधी जी का दृष्टांत

कहा गया है कि किसी को भी अपने कर्त्तव्य का बोध कराने से पूर्ण यह आवश्यक है कि हम भी स्वयं कर्तव्यनिष्ठ बनें। एक वृत्तान्त के अनुसार एक बार महात्मा गाँधी के पास एक महिला अपने पुत्र को लेकर आयी और बोली बापूजी आप मेरे बेटे को समझाइये यह गुड़ बहुत खाता है और मेरी बात नहीं मानता, तो महात्मा गाँधी बोले- एक सप्ताह बाद आना फिर मैं तुम्हारे पुत्र से बात करके इसे समझा दूंगा। एक सप्ताह बाद उस महिला को महात्मा गांधी ने फिर एक सप्ताह बाद आने की बात कह दी। अगली बार जब वह महिला अपने पुत्र के साथ आयी तो महात्मा गाँधी ने उस महिला के पुत्र के सिर पर हाथ रख कहा-बेटा गुड़ खाना बुरी बात है और गुड़ खाना छोड़ दो। महात्मा गाँधी की इतनी बात सुनकर महिला क्रोधित होकर बोली- बापू यह बात तो आप पहले दिन भी कह सकते थे, बिना मतलब हमारा समय और धन नष्ट करा दिया। महिला की बात सुनकर महात्मा गाँधी ने शांत स्वर में कहा- आपकी बात अपनी जगह पर बिल्कुल ठीक है और आपका क्रोध करना भी उचित है, लेकिन मेरी विवशता यह रही कि जब आप मेरे पास अपने पुत्र को लेकर आयी थीं उस समय मैं भी गुड़ खाया करता था, अब मैंने गुड़ खाना छोड़ दिया है और गुड़ छोड़ने के बाद ही तो मैं आपके पुत्र को गुड़ न खाने की बात कहने का अधिकारी हूँ। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास का कथन-

"पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥"

अर्थात् दूसरों को कर्तव्य पालन की सीख देने वाले बहुत मिल जाते हैं, लेकिन स्वयं अपने ही दिये उपदेश का आचरण करने वाले बहुत ही कम व्यक्ति देखने को मिलेंगे। वैसे भी दूसरों को उपदेश देना बहुत ही सरल कार्य है, लेकिन इन उपदेशों को व्यवहार में लाना बहुत ही कठिन होता है। समाज में अधिकांश लोग उपदेश देना जानते हैं, किन्तु उन पर स्वयं कभी भी अमल नहीं करते।

एक गुरुजी जन समूह के सामने प्रवचन दे रहे थे। अपने प्रवचन में बार-बार जोर देकर कहते थे कि गुरुजन, ऋषिजन, साधु-संत जिस बात को कहें या जो भी उपदेश दें, उसका पालन व्यक्ति को अवश्य करना चाहिए। इससे जीवन का स्तर ऊँचा होता है। इसी बीच गुरुजी ने 'बैंगन' की बुराई कर दी और कहा कि बैंगन जो सब्जी में काम लाया जाता है इसमें कोई गुण नहीं होता अर्थात् बैंगन तो बे-गुण होता है, वैसे इसका रंग भी काला होता है। बैंगन की सब्जी पेट में गर्मी पैदा करती है, बैंगन खाकर आदमी के पेट में भी दर्द की सम्भावना रहती है। गुरु जी का प्रात:कालीन प्रवचन इसी प्रकार के अनेक उपदेशों के पश्चात् समाप्त हो गया। प्रवचन समाप्त कर गुरु जी किसी विशेष कार्य हेतु चले गये। जब गुरु जी दोपहर में लौटकर आये तो उनके कूड़े के ढेर में बैंगन पड़े थे। गुरु जी ने अन्दर आकर अपने शिष्यों से कूड़े में पड़े बैंगनों के बारे में पूछा तो एक शिष्य बोला- गुरु जी आप आज प्रातः बैंगन के अवगुण प्रवचन में बता रहे थे तो मैंने इन बे-गुण वाले बैंगनों को बाहर फेंक दिया।

शिष्य की बात सुनकर गुरु जी बोले- बेटे प्रवचन सुनने वालों को कुछ तो कहना ही पड़ता है, सो आज मैं उन सबको बैंगन के बारे में बताया था, मगर आप लोगों को यह तो नहीं कहा था कि बैंगन उठाकर बाहर फेंक देना, वैसे बैंगन की सब्जी स्वादिष्ट बनती है और उपदेश तो फिर दूसरों के लिए होते हैं, अपने लिए नहीं हुआ करते। रामचरित मानस के लंका काण्ड में मेघनाद के मरण पर लंका में मचे उपद्रव को शांत करने के लिए रावण द्वारा लंका वासियों को कहलवाया कि "यह सम्पूर्ण जगत नाशवान् है, हृदय में विचार करके देखो।" इस पर गोस्वामी तुलसीदास ने रावण के इस चरित पर व्यंग्य करते हुए लिखा- "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" दूसरों को उपदेश देने में बहुत लोग निपुण होते हैं, पर ऐसे लोग अधिक नहीं हैं जो उपदेश के अनुसार आचरण भी करते हैं।

यदि हम आज अपने सामाजिक परिवेश के देखें तो उपदेश की कोई सीमा नहीं होती, यह तो मानव मन की सहज अनुभूति होती है जो हृदय में उदित हो जाया करती है । समाज में दीन-हीन, दुःखी को देखकर कोई भी व्यक्ति उपदेशक बन जाता है, क्योंकि उपदेश देने की प्रवृत्ति का उत्पन्न होना प्रकृति-प्रदत्त है, इसके लिए किसी से भी कहने या सुनने की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि आज समाज में प्रत्येक व्यक्ति अधिक समझ रखता है और समझ के कारण ही वह दूसरों को उपदेश देने में भी सक्ष्म ही माना गया है।

अगर देखा जाये तो पिता, पुत्र, भाई, बन्धु, मित्र, वकील, डॉक्टर, महात्मा, गुरु, बापू, नागरिक, देशभक्त, नेता, सैनिक, पत्रकार, कवि, लेखक, सम्पादक आदि सभी अपने कर्तव्य के साथ जुड़े हैं और कुछ व्यक्ति तो हर किसी को उपदेश देना अपना जन्मसिद्ध अधिकार भी मानते हैं। कुछ समझदार व्यक्ति अपने नैतिक मूल्यों का आदर करते हुए अपने उपदेशक कर्तव्य पालन करते हैं।

यदि हम अपने इतिहास को देखें तो भगवान् श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के समय अर्जुन को उपदेश दिया था। वह भी तब जब अर्जुन अपने कर्त्तव्य से विमुख होने लगा था, तब श्रीकृष्ण ने उपदेश देते समय अर्जुन से कहा था- "हे, अर्जुन! तू कर्म कर, फल की इच्छा मत कर। कर्म न करने की तेरी प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए।"

लेकिन आज समाज में प्रत्येक व्यक्ति उपदेश देना अपना परम कर्त्तव्य मानता है और हो भी क्यों न, क्योंकि उपदेश देने वाला देता है और उपदेश लेने वाला लेता है। भले ही वह उस तथाकथित उपदेश पर अमरण करे या न करे। इसी संदर्भ में कवि मनोहर लाल 'रत्नम्' का एक दोहा सटीक लगता है-

सबसे ऊंचा बन सदा, दे सबको उपदेश।
मान और सम्मान भी, 'रत्नम'मिले हमेश॥ 

इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास की चौपाई भी यहाँ सार्थक लगती है कि, "पर उपदेश कुशल-बहुतेरे"। .

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