फूल नहीं बो सकते हो यदि, काँटों को भी मत बोना सूक्ति पर निबंध

फूल नहीं बो सकते हो यदि, काँटों को भी मत बोना सूक्ति पर निबंध 

संकेत बिंदु- (1) फूल के साथ काँटे का भावार्थ (2) काँटे की प्रवृति केवल चुभन और पीड़ा (3) काँटों वाले वृक्ष से दूरी (4) फूलों से विनम्रता (5) उपसंहार।

फूल के साथ काँटे का भावार्थ

जब फूल की चर्चा होती है तो अनायास ही काँटा भी चर्चा में आ ही जाता है। यह सत्य है कि प्रकृति ने फूल और काँटे साथ ही उपजाये हैं, फूल से तो सुगन्ध का आभास सदैव होता है और कांटा केवल चुभान ही दे पाता है। संत कवि कबीरदास ने दोहे के माध्यम से एक सुंदर संदेश संसार को देने का सार्थक प्रयास किया है 

जो तोकू काँटा बुवै,ताहि बोई तू फूल।
तोकू फूल को फूल है, वाकू है तिरसूल॥ 

लेकिन यहाँ हम चर्चा कर रहे है कि यदि आप फूल नहीं बो सकते हो तो कम से कम काँटे मत बोना। संदर्भ तो कबीरदास के दोहे से ही है, मगर कवि मनोहर लाल 'रत्नम्' की कविता में इसी प्रकार का ही संदेश प्रतीत होता है-

फूल नहीं बो सकते हो यदि, मत काँटों को बो देना।
पर सुख के आगे अपनी ही, मत खुशियों को खो देना। 

कांटे बोने का अर्थ जहाँ तक समझ में आता है- दूसरे के प्रति अपने मन में द्वेष भावना, प्रतिशोध की भावना। कहा गया है कि वैर-से-वैर बढ़ता है, कटुता से कटुता बढ़ जाती है और मनुष्य प्रतिशोध में पागल हो जाया करता है। इस प्रकार मन में वैर-द्वेष रखने वालों की रात की नीद, दिन का चैन चला जाया करता है। और कभी-कभी कटुता की भीषण ज्वाला समूचे परिवार को ही नष्ट कर दिया करती है। काँटा भी तो वैर-विरोध-द्वेष का प्रतिरूप माना गया है।

गीतकार श्रवण 'राही' के गीत की पंक्तियाँ भी इसी ओर संकेत करती है-

वेदना उर में छिपाले, अधर पर मुस्कान धर।
जो हँसे तेरी दशा पर, उसका तू सम्मान कर॥ 

यहाँ मुस्कुरा का अर्थ फूल से है, वेदना का अर्थ कांटे में लगता सा प्रतीत होता है। लेकिन कुछ इस प्रकार की प्रवृत्ति के लोग समाज में होते हैं जिन्हें दूसरों को सताने में आनन्द आता है। समाजशास्त्री श्री बेकन के मतानुसार प्रतिशोध एक प्रकार का जंगली न्याय माना गया है, इसीलिए इसको त्याग देने मे ही भलाई है। क्योंकि बात फिर आती है कि अगर आप मे फूल बोने कि छमता नहीं है तो कोई बात नहीं है मगर जान बूझकर काँटों का रोपण मत करो। क्योंकि ऐसा न हो कि आपके बोये गए काँटों में आपका अपना ही दामन अटक कर कहीं तार-तार न हो जाये। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि,"जो व्यक्ति स्वयं काटें बोता है वह किसी-न-किसी मानसिक रोग से अवश्य पीड़ित होता है।"

काँटे की प्रवृति केवल चुभन और पीड़ा

कबीर दास ने कहा है। "जो तोकू काँटा बुवे, ताहि बोय तू फूल।" कबीर एक कवि ही नहीं सन्त भी थे और कबीर ने जीवन का चिन्तन-मनन करके ही यह पंक्ति समाज को प्रदान की है जो तुम्हारे लिए काँटे बोता है तुम उसके लिए फूल बो दो। यदि तुम फूल बोने की स्थिति में नहीं हो तो कांटे कभी भी भूलकर भी मत बोना, क्योंकि कांटे अपने और पराये का भेद नहीं मानते। काँटे की प्रवृत्ति केवल चुभन और पीड़ा देने की ही होती है।

गीतकार धनंजय ने अपने मन की पीड़ा को किस प्रकार से पश्चात्ताप के साथ व्यक्त किया है-

हमने तो कलमें गुलाब की रोपी थीं,
गमले में उग आयी नागफनी।

अगर देखा जाये तो कभी-कभी मन की स्थिति सही न होने पर काम प्रायः बिगड़ जाया करता है जिस पर गुलाब की कलमें लगाने की बात की गयी, मगर नागफनी किस प्रकार उग आयी। यहाँ नागफनी भी उन काँटों का ही प्रतीक माना गया है। यदि हम प्रकृति के सिद्धांत का अवलोकन करें तो पायेंगे कि प्रत्येक जीव की अपनी-अपनी प्रवृत्ति होती है। जिस प्रकार गाय घास खा कर केवल दूध ही दिया करती है और साँप दूध पीकर भी जहर उगलता है, यह प्रकृति का सिद्धांत बताया गया है। लेकिन हम सब तो बुद्धिजीवी हैं, समझदार हैं, होशियार है, हमें अच्छे और बुरे की परख भी है, समझ भी है और हमें कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे हमें अपमानित होना पड़े।

जानबूझकर, चाह कर यदि हम काँटे बो देते हैं तो कल को वह काँटे हमें ही पीड़ा देंगे, हमें ही घाव देंगे और हम घायल होकर स्वयं वेदना सहते रह जायेंगे।

काँटों वाले वृक्ष से दूरी

काँटों वाले वृक्ष से समझदार व्यक्ति सदैव दूरी बनाये रखता है, यदि बेर के पेड़ के पास केले का पेड़ लगा है तो बेर के काँटे केले के सभी पत्तों को चीरते रहेंगे। क्योंकि कांटों की प्रवृत्ति केवल घाव देने की है। इसी प्रकार कीकर के पेड़ से मनुष्य सदा बचकर निकलता है। जितने भी काँटेदार वृक्ष हैं मनुष्य उनसे सदा दूर रहने का प्रयास करता है। ठीक उसी प्रकार जैसे कौआ और कोयल की स्थिति होती है, दोनों देखने में एक जैसे हैं, मगर कोयल के गीत मन को लुभाते हैं और कौए का ककर्श स्वर अच्छा नहीं लगा करता।

काँटों के बीच में यदि फूल खिला हुआ है तो समझदार व्यक्ति उस काँटों से घिरे फूल को कभी भी तोड़ने का प्रयास इसलिए नहीं करेगा, क्योंकि फूल तोड़ते समय काँटों की चुभन का व्यक्ति को आभास अवश्य हो जायेगा, क्योंकि कांटे की प्रवृत्ति केवल घाव देने की होती है। काँटे को नीम या साँप की श्रेणी का भी मान लिया गया है।

प्रश्न उठता है कि तन में यदि काँटा लग गया है तो उसे काँटे से नहीं निकालना चाहिए, क्योंकि सम्भव है कि जिस काँटे से हम तन के भीतर धंसे काँटे को निकालने का प्रयास करें वह कांटा भी तन को नया घाव न दे दे, वह इसलिए भी काटे का कार्य केवल घाव या चुभन देना ही है।

फूलों से विनम्रता

फूल से अभिप्राय विनम्रता से है। महात्मा गाँधी ने भारत को आजादी दिलाने में अंग्रेजों के समक्ष नम्रता का व्यवहार अपनाया अर्थात् सत्याग्रह किया। यदि गाँधी भी अंग्रेजों की भाँति क्रूर हो जाते तो सम्भवतः आज़ादी का अर्थ कुछ और हो जाता। गाँधीजी ने विनम्र होकर फूल की भांति अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया। आज भारत देश की जो दशा आतंक के जहरीले शत्रुओं के कारण है वह समाज में किसी से भी छिपी नहीं है। देश का युवा वर्ग यदि फूल बोने की बात सोचता तो भारत देश आज विश्व में सर्वोच्च देश माना जाता। मगर यह विडम्बना है कि कुछ भटके युवकों को स्वार्थी लोगों ने बहला फुसलाकर फूल से काँटा बनाकर समाज में ही खड़ा किया है। इसीलिए आतंकवाद और उग्रवाद की यह काँटेदार फ़सल देश में उग आयी है जिसके कारण देश और समाज की दशा इन विषैले काँटों के कारण डगमगा गयी है। देश और समाज में हो रहे प्रत्येक गलत कार्यों को केवल काँटों से ही तुलना की जा सकती है फूलों से नहीं। फूल तो केवल सफलता पर अर्पित किये जाते हैं और काँटे अर्पित नहीं किये जाते, इसीलिए समाज में काँटे बोने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता।

उपसंहार

फूलों के संदर्भ में अनेक कवियों और गीतकारों-शायरों ने अपने मन के विचारों को व्यक्त किया है, जैसे- "बहारो फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है।" और "फूल तुम्हें भेजा है खत में, फूल नहीं मेरा दिल है।" तथा "फूल-फूल से फूला उपवन, फूल गया मेरा नन्दन वन" आदि। और यह भी सत्य है कि हम जब समाज में किसी भी उत्सव में जाते हैं या अपने किसी प्रियजन से भेंट करने जाते हैं तो केवल फूल लेकर ही जाते हैं, कोई भी व्यक्ति अपने प्रिय को काँटे भेंट करने नहीं गया होगा। इसीलिए यह कहा गया है कि अपने दयालु हृदय का ही सुंदर परिचय देते हुए फूल बोना हमें सीखना चाहिए, फूलों से हमें प्यार करना सीखना चाहिए, जब हम फूलों को प्यार करेंगे, स्वीकार करेंगें तो हमें अपने जीवन में काँटे बोने की न तो आवश्यकता होगी और न हम काटे बो ही पायेंगे।

गीत प्रेम-प्यार के ही गाओ साथियो।
जिन्दगी गुलाब सी बनाओ साथियो।

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