धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी, आपतकाल परखि अहिं चारी सूक्ति पर निबंध

धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी, आपतकाल परखि अहिं चारी सूक्ति पर निबंध 

संकेत बिंदु- (1) विपत्ति में धीरज की परीक्षा (2) आपत्तिकाल में धर्म के उदाहरण (3) सच्चे मित्र की पहचान (4) मानव जीवन में नारी का महत्त्व (5) उपसंहार।

रामचरित मानस के रचियिता महाकवि तुलसीदास के मतानुसार धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री (पत्नी) इन चारों की विपत्ति में परीक्षा होती है। धैर्य विहीन व्यक्ति सदैव विचलित रहता है और जो व्यक्ति धर्म से विमुख होता है, वह विश्वास के योग्य भी नहीं कहा गया।

इतिहास साक्षी है कि जब किसी राजा पर दूसरा राजा आक्रमण को तत्पर होता है तो राजा धैर्य से काम लेता हुआ आक्रमणकारी राजा पर विजय प्राप्त कर लेता है। व्यक्ति को किसी विपत्ति के आने पर धैर्य का त्याग नहीं करना चाहिए। धैर्य वह धन है जिसकी सहायता से मनुष्य को विचलित नहीं होना चाहिए, क्योंकि धैर्य ही मनुष्य को जीवन में सभी बाधाओं को पारकर सफलता के सोपान पर ले जाने में सहायक होता है।

विपत्ति में धीरज की परीक्षा

धैर्य और धीरज दो शब्द हैं लेकिन इनका अर्थ एक ही है। कठिन-से-कठिन समय में या विपदा में कभी भी मनुष्य को अपना धीरज नहीं छोड़ना चाहिए। कवि मनोहर लाल 'रत्नम्' ने एक दोहे में यह सन्देश दिया है-

विपदा में 'रत्नम्' कभी, मत धीरज को छोड़ो।
मन के खुले कपाट से, विपदा का मुख मोड़ो।

विपत्ति में यदि धीरज के साथ काम लिया जाय तो विपदा स्वतः ही दूर हो जाती है इसीलिए तुलसीदास का यह संकेत मूल्यवान् हो जाता है कि आपतकाल में अर्थात् विपदा में धीरज या धैर्य को परखना चाहिए, विपत्ति में धैर्य का प्रयोग ही श्रेयकर होता है। कहा जाता है कि सुदामा ने विकट दरिद्रता में धैर्यपूर्वक श्रीकृष्ण के महल में जाकर कुछ नहीं माँगा और यह सुदामा के धैर्य का ही परिणाम रहा कि श्रीकृष्ण ने सुदामा को बिना माँगे ही सब कुछ दे दिया। धीरज को अपना मित्र बनाकर सुदामा ने जो अपने विपदा काल में परिचय दिया। उसी के फलस्वरूप सुदामा की दरिद्रता दूर हुई। सुदामा ने धीरज को अपना मित्र भी बनाया, धीरज को परखा भी और संयम को भी अपने साथ बनाये रखा।

गोस्वामी तुलसीदास ने किस सुन्दर ढंग से मानस में इसका उल्लेख किया है कि- धीरज धर्म, मित्र अरु नारी। आपतकाल परखि अहिं चारी॥ यह सत्य भी है जब आपत्ति काल आता है तो मनुष्य विचलित हो जाता हैं और संसार में बाकी सब कुछ तो क्या मनुष्य का अपना साया भी उसका साथ छोड़ दिया करता है, ऐसे कठिन समय में मनुष्य को धैर्य और धर्म को साथ लेकर समय के साथ चलने में ही बुद्धिमत्ता है। जब राजा हरिश्चंद्र के धर्म की परीक्षा हुई तो हरिश्चन्द्र ने पत्नी, पुत्र को बेच डाला फिर स्वयं भी धर्म निभाने के लिए स्वयं को बेच दिया और जाकर श्मशान में मुर्दे जलाने के कार्य में रत हो गये।

आपत्तिकाल में धर्म के उदाहरण

राजा हरिश्चन्द्र ने अपने आपत्तिकाल में धर्म को अपने से अलग नहीं होने दिया। अगर देखा जाये तो धर्म को धैर्य के साथ राजा हरिश्चन्द्र ने मित्र बनाकर आपदा को स्वीकार किया। केवल धैर्य और धर्म के कारण ही वह विपत्ति, आयी हुई वह आपदा का संकट समाप्त हुआ। यदि आज भी प्रत्येक मनुष्य संकट के समय धर्म को अपना मित्र बनाते हुए समय के साथ चले तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि विपत्ति बहुत शीघ्र ही पलायन कर जायेगी।

एक राजा हरिश्चन्द्र ही नहीं अनेक इस प्रकार के उदाहरण हमारे इतिहास में भरे पड़े हैं। धर्म की रक्षा के लिए अपना पालन करने में राजा बलि ने भगवान् को तीन पग भूमि दान का जो संकल्प किया, वह धर्म के सहारे ही पूर्ण हुआ। इसी प्रकार महाराजा दशरथ ने अपने वचन का धर्म निभाते हुए राम को वनवास दे दिया। नल-दमयन्ती का उदाहरण भी धर्म के नाम पर कम नहीं है। सावित्री ने अपने पति सत्यवान के प्राण वापिस यमराज से प्राप्त कर लिए थे, क्योंकि इस संकट की महान् घड़ी में सावित्री विचलित नहीं हुई, धर्म को साक्षी बनाकर ही सावित्री ने यमराज से अपने पति के प्राण वापिस लेने में जो अपनी समय और बुद्धि का परिचय दिया, यह सिद्ध करता है कि मनुष्य को विपत्ति में अधीर नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार मित्र क्या है, कौन है, कैसा है, इसकी परख भी तुलसीदास के शब्दों में अनिवार्य हैं। कवि रहीमदास ने कहा है-

सब कोउ सब सौ करें, राम, जुहार सलाम।
हित रहीम तब जानिहौं, जादिन अटके काम।

इसी बात पर कवि रहीम ने भी जोर देकर कहा कि वैसे तो सब किसी को राम-राम या सलाम करके मित्र बनने का नाटक करते हैं, मगर मित्र वही है जो कठिन समय में मित्र के काम आवे। यूँ तो मित्र अनेक मिल जायेंगे, मगर मनका मीत कौन है, इसकी परख भी आवश्यक है। राम के वनवास के समय जब सीता का अपहरण हो गया तो हनुमान् जी ने राम की सुग्रीव से मित्रता करायी और फिर सुग्रीव ने अपने श्रमबल, सेना के साथ राम की सहायता भी थी। अर्थात् राम के संकट के समय मित्र सुग्रीव ने अपनी मित्रता का धर्म निभाते हुए श्रीराम का साथ दिया। परिणामस्वरूप सीता की खोज की गयी, लंका पर आक्रमण हुआ, रावण का मरण हुआ, इन सबके पीछे केवल राम सुग्रीव की मित्रता को ही देखा जा सकता है।

सच्चे मित्र की पहचान

संसार में मित्र अनेक होते हैं और सच्चा मित्र ही मित्र की पहचान कर पाने में सक्षम होता है। मित्र के सन्दर्भ में कवि 'रत्नम्' के गीत की पंक्तियाँ कितनी सार्थक बन पड़ी-

मीत की मैं प्रीत को पुकारता हुआ चला।
मीत को गहरी गहरी, निहारता हुआ चला॥ 

संभवतः तुलसीदास ने समाज के व्यक्तियों को उनके कर्त्तव्य का बोध कराने के लिए ही राम चरितमानस में इसका उल्लेख किया है- 'धीरज धर्म मित्र अरु नारी।' और यह सत्य भी है कि संसार में मित्र अनेक हैं कि और इस संदर्भ गीतकार श्रवण 'राही' के गीत की पंक्तियों में इसका उल्लेख मिलता है। 'किसी से दिल नहीं मिलता, कोई दिल से नहीं मिलता।' तभी तो तुलसीदास यह कहने पर विवश हो गये कि आपतकाल में मित्र की परख की जाती है। जो मित्र विपदा में काम आ जाये उसे ही मित्र कहा जा सकता है, बाकी सब तो आपके केवल सुख-सम्पदा के ही साथ हो सकते हैं- मित्र नहीं।

मानव जीवन में नारी का महत्त्व

मनुष्य के एकाकी जीवन को रसमय बनाने के लिए नारी की उत्पत्ति स्रष्टा ने की है। नारी पत्नी के रूप में, माँ के रूप में, बहन और बेटी के रूप में समाज में हमारे सामने हैं। गोस्वामी तुलसीदास का यह कहना 'धीरजधर्म मित्र अरु नारी।' कितना सटीक और सार्थक है। जहाँ धीरज को, धर्म को, मित्र को संकट काल में परखने की बात कही गयी है, वही साथ में नारी शब्द को भी जोड़ा गया है। यहाँ यदि हम नारी को पत्नी के रूप में देखें तो मनुष्य के जीवन में नारी का बहुत महत्त्व होता है। क्योंकि नारी को देखकर मनुष्य का मन वश में नहीं रहता और मनुष्य नारी पर आसक्त हो जाता है। इतिहास में इसके अनेक उदाहरण मिल जाते हैं, मेनका को देखकर विश्वामित्र का मन डोल जाना, कुन्ती को देखकर सूर्य का विचलित होना, यह नारी के प्रति पुरुष का आकर्षण ही कहा जायेगा, लेकिन क्या वास्तव में नारी भी पुरुष की मन से सहभागिनी होती है, इसकी परख तो मनुष्य पर विपदा पड़ने पर ही की जा सकती है।

उपसंहार

राजा हरिश्चन्द्र जब अपने धर्म और वचन पर अडिग रहे तो उनकी पत्नी शैव्या ने पति की आज्ञा का पालन करते हुए काशी के बाजार में स्वयं को बेच दिया। वह करना यह सिद्ध करता है पति पर विपदा आने पर पत्नी ने सम्पूर्ण साथ दिया। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है सावित्री ने यमराज से अपने पति सत्यवान् के प्राण वापिस मांग लिए, इसी क्रम में महासती अनुसूया, बेहुला, वृन्दा का उदाहरण दिया जा सकता है जिन्होंने पति पर आये संकट में उनका भरपूर साथ दिया। गोस्वामी तुलसीदास का मानस में उल्लेख 'धीरज धर्म मित्र अरु नारी।' के सन्दर्भ में यही कहा जा सकता है कि इन चारों की पहचान या परख विपदा में या संकट के समय में ही सम्भव है। वैसे समाज के प्रत्येक प्राणी का यह कर्त्तव्य भी है कि वह अपने जीवन में धैर्य-धीरज को कभी नहीं खोवे, धर्म पर अडिग रहना भी मनुष्य का पहला कर्तव्य कहा गया है, मित्र अवश्य बनाने चाहिए मगर मित्र सच्चा हो इसकी परख भी समय-समय पर कर लेनी अनिवार्य है। और जहाँ तक नारी का प्रश्न है इसकी परख भी संकटकाल में करने का तुलसी का सुझाव लाभदायक और सटीक है। सुख में तो सभी प्रसन्न और खुश रहते हैं लेकिन जीवन तभी आनन्ददायक होगा जब संकट के समय में भी यह साथी मित्र बनकर साथ रहें। तभी तुलसीदास का यह सन्देश सार्थक हो सकेगा।

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