मत व्यथा अपनी सुना तू, हर पराई पीर रे सूक्ति पर निबंध

मत व्यथा अपनी सुना तू, हर पराई पीर रे सूक्ति पर निबंध

संकेत बिंदु- (1) कविता की पंक्ति का अर्थ (2) दुख भोगने की विवशता (3) आत्म-कथा ही आत्म-दर्शन का माध्यम (4) परोपकार में प्रवृत रहना जीवन की सफलता (5) जीवन का अंत लक्ष्य मोक्ष।

कविता की पंक्ति का अर्थ

श्री देवराज 'दिनेश' अपनी 'हाथ की रेखा मिटा दे' कविता की इस पंक्ति में मानव को यह संदेश देना चाहते हैं कि उसे अपनी उग्र मानसिक या शारीरिक पीड़ा को जन-जन को सुनाकर सहानुभूति प्राप्त करने की बजाए दूसरों के कष्ट, दुःख, वेदना से कातर होकर, उनकी पीड़ा के हरण की चेष्टा करनी चाहिए।

'मत व्यथा अपनी सुना', क्यों ? सम्भव है, कुछ लोग, कुछ देर तुम्हारी पीड़ा या व्यथा को ध्यानपूर्वक सुन लें, पर वे उसके हरण की ओर ध्यान देंगे इसका विश्वास नहीं किया जा सकता, क्योंकि "दिल बहलाने को लोग सुनते हैं, दर्दे दिल दास्तान है गोया" अकबर इलाहबादी के शब्दों में कुछ सुनते-सुनते ऊबने पर वे हँसी उड़ाएंगे। मजाक करेंगे। उसे हास-परिहास का विषय बनाएंगे, पर उनके अन्तःकरण में करुणापूर्ण भावना जागृत होगी, यह नितांत असम्भव है। रहीम ने भी यह कहा है-

रहिमन निज मन की विथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय॥ 

अकबर इलाहबादी के शब्दों में-

खुदा की शान वह मेरा तड़पना दिल्लगी समझे।
किसी की जान जाती है, किसी का जी बहलता है॥ 

दुख भोगने की विवशता

अपनी व्यथा न कहने में दुःख भोगने की विवशता तो रहती है पर सुख के मूल्य का ज्ञान भी तभी होता है। महादेवी जी व्यथा सहने का अर्थ पीड़ा का सुख में स्वतः परिवर्तन मानती हैं- 'पीड़ा की अन्तिम सीमा, दुःख का फिर सुख हो जाना।' गालिब की धारणा है कि इससे मुश्किलें सरल हो जाती हैं-

रंज से खगार हुआ इन्सां तो मिट जाता है रंज।
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गई। 

इसलिए जयशंकर प्रसाद कहते हैं कि अभिशाप को प्रभु का वरदान मानकर व्यथा सहने में ही सुख है-

जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल।
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत जाओ इसको भूल॥

आत्म-कथा ही आत्म-दर्शन का माध्यम

देवराज 'दिनेश' दूसरी ओर मानव को समझाते हैं- 'हर पराई पीर रे' दूसरे की पीड़ा हरने में, सबसे बड़ा लाभ तो अपनी व्यथा की विस्मृति ही है। दूसरी ओर, जब पर पीड़ा से दृष्टि मिलती है तो आत्म-व्यथा ही आत्म-दर्शन का माध्यम बन जाती है। आत्म-दर्शन आत्मा की आनन्दमय परिणति है।

नरसी मेहता का एक प्रसिद्ध गीत है, जो गाँधी जी को परमप्रिय था- 

वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाणे रे।
पर दुःखे उपकार करे जे, मन अभिमान न आणे रे॥ 

गाँधी जी की मान्यता थी कि पराई पीर जानने वाला, समझने वाला ही सच्चा वैष्णव है। दूसरी ओर, उनका कहना था पर-पीर हरण पर मन में अभिमान नहीं आना चाहिए। कारण, अभिमान पर-पीर हरण के आत्म-सुख को नष्ट कर देता है।

परोपकार में प्रवृत रहना जीवन की सफलता

इसका लाभ बताते हुए 'दिनेश' जी लिखते है, 'और तेरी पीर तेरे हित बनेगी तीर।' अर्थात्- 'पराई पीर हरना' परोपकार है और परोपकार में प्रवृत्त रहना जीवन की सफलता का लक्षण है। (जीवितं सफलं तस्य यः परार्थोद्यतः सदा) वेदव्यास जी के कथनानुसार 'परोपकारः पुण्याय' अर्थात् परोपकार से पुण्य होता है। परोपकार करने का पुण्य सौ यज्ञों से बढ़कर है। चाणक्य यह मानते हैं, "जिनके हृदय में सदा परोपकार करने की भावना रहती है उनकी विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं और पग-पग पर सम्पत्ति प्राप्त होती है।" हरबर्ट का विचार है कि "परोपकार करने की एक खुशी से दुनिया की सारी खुशियाँ छोटी हैं।" एच. डब्ल्यू वीवर एक पग और बढ़ाते हुए कहते हैं, 'परोपकार का प्रत्येक कार्य स्वर्ग की ओर एक कदम है।'

अपनी व्यथा-कथा न सुनाकर जन-जन की पीड़ा हरने वालों में पवनसुत हनुमान् से लेकर महर्षि दधीचि, महात्मा गाँधी, विनोबा भावे, जयप्रकाशनारायण, डॉ. हेडगेवार, माधव सदाशिव गोलवलकर 'गुरु जी', मदर टेरेसा, साध्वी ऋतम्भरा आदि सहस्रों जन हैं। पर-पीड़ा हरण में आए कष्टों को शंकर बन विष समान पी लिया पर स्व-पीड़ा को व्यक्त नहीं किया।

पर-पीड़ा हरण में तुलसी 'परहित सरिस धर्म नहिं भाई' मानते हैं तो संस्कृत सूक्ति इसे सौ यज्ञों से भी बढ़कर पुण्य मानती है। 'परोपकरणं पुण्यं क्रतुशतैः समम्' ज्ञानी लोग इसमें 'परम सुख' की अनुभूति प्राप्त करते हैं।

जीवन का अंत लक्ष्य मोक्ष

जीवन का अन्तिम और चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है। मोक्षप्राप्ति के लिए मृत्यु पर अधिकार करना होता है। मृत्यु पर अधिकार तभी संभव है, जब मनुष्य दुःख-सुख, राग-द्वेष से ऊपर उठकर पर-पीर-हरण में जीवन की सार्थकता ढूंढेगा। इसलिए जीवन की सफलता तथा मृत्यु का प्रसन्नता से स्वागत करने के लिए मानव को 'मत व्यथा अपनी सुना तू, हर पराई पीर' के आदर्श को अपनाना चाहिए और सत्याचरण के पथ का पथिक बनना चाहिए। 

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