मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे सूक्ति पर निबंध

मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे सूक्ति पर निबंध 

संकेत बिंदु- (1) सूक्ति का भावार्थ (2) मनुष्य कौन की परिभाषा (3) भारतीयों की सोच पश्चिमी संस्कृति के अनुरूप (4) मनुष्य सामाजिक प्राणी (5) उपसंहार।

सूक्ति का भावार्थ

'मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे', कहकर मैथिलीशरण गुप्त ने मनुष्य की व्याख्या प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। उनकी दृष्टि में मनुष्य वह है जो दूसरों की बात या काम को आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण मानते हुए उसके लिए सब प्रकार के कष्ट भोगने या त्याग करने के लिए प्रस्तुत हो।

कोशकार रामचन्द्र वर्मा ने कहा 'जरायुज जाति का एक स्तनपायी प्राणी, जो अपने मस्तिष्क या बुद्धिबल की अधिकता के कारण, सब प्राणियों से श्रेष्ठ है, मनुष्य है।' पर महाकवि भर्तृहरि कहते हैं- 'जिनमें विद्या, तप, दान, ज्ञान, शरीर, गुण, धर्म कुछ भी नहीं है, वे मृत्युलोक में पृथ्वी का भार बने हुए प्राणी मनुष्य रूप में पशु ही हैं।' (नीतिशतक: 13) स्वयम्भूदेव भर्तृहरि से आगे बढ़ गए। उन्होंने कहा, 'निर्गुण, व्रतहीन और धरती का भार-सदृश मनुष्य का उत्पन्न होना ही ठीक नहीं।' (पउम चरिउ 74/12)। गुप्त जी ने ही अन्यत्र ऐसे मनुष्य को मनुष्य मानने से इंकार कर दिया-

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं, नर पशु निरा है और मृतक समान है।।

सर-टामस ब्राउन कहते हैं, सच्चाई तो यह है कि ऐसा मनुष्य 'भस्मीभूत होने पर भव्य लगता है और कब्र में शानदार।'

मनुष्य कौन की परिभाषा

प्रश्न उठता है कि मनुष्य कौन है ? सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कहते हैं 'मनुष्य की जाँच उसकी मनुष्यता और उत्कर्ष से होती है।' (प्रबन्ध पद्म) दादा धर्माधिकारी ने उत्तर दिया, 'जो दूसरों को अपने जैसा देखता है, उसका नाम इन्सान है।' (सर्वोदय दर्शन) हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी निराला की जाँच कसौटी को मानते हुए धारणा बनाई, 'मनुष्य इसलिए मनुष्य है कि उसमें मनुष्यत्व धर्म है।' (कुटज) सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानन्द ने इसी मनुष्यत्व धर्म का समर्थन करते हुए कहा, 'मनुष्य उसी को कहते हैं जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे।' हरिकृष्ण 'प्रेमी' ने तो गुप्त जी की काव्यपंक्ति का ही गद्य-अनुवाद करते हुए कहा, 'मनुष्य वह है, जो दूसरे के लिए कष्ट सहे, आवश्यकता पड़ने पर प्राण भी दे दे।' (अमर आन)

महर्षि दयानन्द, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि सभी विचारकों ने 'पर-हित' पर जोर दिया है। उसी को मनुष्य की व्याख्या का मूल आधार माना है। गुप्त जी ने भी इस पर-हित को 'जो मनुष्य के लिए मरे' कहकर अपने विचार प्रकट किए हैं।

भारतीयों की सोच पश्चिमी संस्कृति के अनुरूप

पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता ने शिक्षित भारतीयों के मस्तिष्क पर जबरदस्त आक्रमण करके उनके दिल पर कब्जा कर लिया है। इस आक्रमण का प्रभाव स्वातंत्रता से पूर्व नगण्य था, किन्तु कांग्रेसी सत्ता ने इसे प्रोत्साहित कर, पोषित कर भारतीयों की भारतीय-सोच को ही बदल दिया है। परिणामत: 'मानवता' की आधारभूत विशेषता पर दुःख कातरता भारतीय-हृदयों से लुप्त हो गई है। 'निज', 'निजत्व' के परिवेश ने 'अपनत्व' को ग्रस लिया है। सहानुभूति-संवेदना जैसे मानवीय गुण पाश्चात्य संस्कारों पर बलि हो गये। किसी की जेब कटती हो, दूसरे देखते हुए भी आँख मीच लेंगे। पड़ोसी या मित्र बीमार है, उसकी सूचना भी अनसुनी कर देंगे।

सच्चाई तो यह है कि यह प्रकृति की गलती नहीं, मानव की बदलती सोच का परिणाम है। वरना भारतीय संस्कृति ने तो 'परोपकार' भावना को माँ के दूध के साथ सिखाया है। ऋषि-मुनियों ने अपना जीवन उत्सर्ग करके उसे उदाहरण रूप में भी प्रस्तुत किया है। भगवान् शंकर ने देव-दानव कल्याणार्थ विष-पान किया। महर्षि दधीचि ने देवगण की रक्षार्थ अपनी हड्डियाँ दान कर दी। राजा शिवि ने कबूतर की प्राण रक्षार्थ अपना अंग-अंग काट कर दे दिया।

वर्तमान जीवन में इस मानवीय गुण को लुप्त होते देख राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की वेदना इन शब्दों में फूट-पड़ी- "मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे।" 'मनुष्य के लिए मरे' कहने से तात्पर्य मृत्यु को प्राप्त होना या बलिदान देना नहीं है। बल्कि व्यावहारिक क्षेत्र में इसका अर्थ होगा- 'दूसरों की सहायतार्थ स्वतः प्रेरणा से कष्ट भोगने और त्याग करने को भी प्रस्तुत होना।'

मनुष्य सामाजिक प्राणी

गुप्त जी समझते हैं कि पाश्चात्य चिंतन ने चाहे आदमी को परिवार छोड़कर इकाई में प्रतिष्ठित किया है, किन्तु आदमी है तो मूलतः सामाजिक प्राणी। अड़ोस-पड़ोस, मित्र-परिचित, बंधु-बान्धवों के बिना वह जी नहीं सकता। सुख-संतोषमय स्वस्थ जीवनयापन कर नहीं सकता। कारण, मानव जीवन संघर्ष, कष्ट-पीड़ा, आपत्ति-विपत्ति, दुःख-दर्द का सम्मिलित रूप है। अकेला मानव न सुख भोग सकता है, न दुःख झेल सकता है। भोगने की चेष्टा करेगा तो पागल हो जाएगा।

मनुष्य की यह पहचान (जो मनुष्य के लिए भरे) कराते हुए गुप्त जी का एक प्रच्छन्न उद्देश्य भी रहा है। वह उद्देश्य है 'मानव की मुक्ति'। मानव-मुक्ति का मार्ग है- प्रभु की शरणागति। प्रभु की शरणागति का श्रेष्ठ मार्ग है- समाज-सेवा, मानव-सेवा। कारण, मानव और समाज प्रभु का रूप हैं। इसलिए मानव सेवा परमात्म-सेवा है। जिस प्रकार कठोर तप, व्रत, ध्यान-धारणा से मनुष्य ईश्वर का सानिध्य प्राप्त करने की चेष्टा करता है, उसी प्रकार दूसरों के हितार्थ कष्ट-पीड़ा तथा दुःख-दर्द सहकर ही जीवन सफल बना सकता है। महर्षि अरविन्द ने भी कहा है, 'जीवन में ईश्वर को अभिव्यक्त करना ही मानव का मानवत्व है।' 

उपसंहार

'मनुष्य के लिए मरे' कहने में गुप्त जी का एक तर्क और भी रहा होगा। सामर्थ्य और शक्ति-सम्पन्नता में सहायता करना, सहयोग देना उपकार करना सरल है, किन्तु सीमा और सामर्थ्य से ऊपर उठने की असमर्थता तथा विघ्न बाधाओं की चिंता में आदमी झिझक जाता है, पग पीछे हटा लेता है। जबकि दुःखी मानव को सबसे ज्यादा सेवा की जरूरत उसी समय है। मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं मनुष्यत्व की सच्ची पहचान तो तभी है जब दूसरों के लिए इतना अधिक कष्ट या दुःख भोगना पड़े, चिन्तित या परेशान रहना पड़े कि शरीर का अंत हो जाने की नौबत आ जाए या स्वयं के लिए मरणासन्न स्थिति उत्पन्न हो जाए तो भी संघर्ष के लिए प्रस्तुत रहे।

प्रभु प्रदत्त इस जीवन की कृतार्थता का, समाज-ऋण से उऋण होने का तथा 'देहान्ते तव सानिध्यं' का एक ही मार्ग है- 'मनुष्य मनुष्य के लिए मरे।' 

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