जो तोको काँटा बुवै ताहि बोई तू फूल पर निबंध

जो तोको काँटा बुवै ताहि बोई तू फूल पर निबंध

संकेत बिंदु– (1) कबीरदास की सूक्ति का भाव (2) ईर्ष्या, द्वेष और वैर जन्मजात प्रवृत्तियाँ (3) सफलता तो भाग्य के विधान पर अवलम्बित (4) प्रतिशोध एक जंगली न्याय (5) उपसंहार।

कबीरदास की सूक्ति का भाव

कबीरदास जी सच्चे प्रभु भक्त थे। मानव-प्रेमी थे। ईर्ष्या-द्वेष, बैर-भाव उन्हें छू तक नहीं पाया था। इसलिए उन्होंने मानव को उपदेश देते हुए कहा–
हे मानव! यदि तेरी सफलता, उन्नति, प्रगति या शुभ काम में कोई भी व्यक्ति बाधा या विघ्न खड़ा करे अथवा बहुत अधिक शत्रुता का भाव रखे या वैसा व्यवहार करे तो भी तुझे उसके प्रति नम्र रहना चाहिए, सद्भाव रखना चाहिए, मधुर व्यवहार करना चाहिए। इसी दोहे की अगली पंक्ति में इसका कारण बताते हुए कबीर जी कहते हैं–

“तो को फूल को फूल हैं, वाको है तिरसूल।”

तेरी नम्रता, सद्भाव और मधुरता तेरे जीवन में सुगंध भरेगा। तेरे पाप समूह को नष्ट करके पुण्य को बढ़ाएगा तथा पुष्कल (प्रचुर) अर्थ प्रदान करेगा। जबकि यही मानवीय व्यवहार उसके जीवन के दैहिक, दैविक तथा भौतिक तापों में वृद्धि करेगा। उसकी आत्मा को त्रिशूल के समान बेधकर अशांति उत्पन्न करेगा।

ईर्ष्या, द्वेष और वैर जन्मजात प्रवृत्तियाँ

ईर्ष्या, द्वेष, वैर, निन्दा, अहं आदि जन्मजात प्रवृत्तियाँ हैं, जो जन्म से मृत्यु तक मनुष्य का पीछा नहीं छोड़तीं। इसका मूल कारण है, मन की हीनता और हृदय की दुर्बलता। यह हीनता और दुर्बलता ही प्रतिशोध के लिए प्रेरित करती हैं। अहर्निश उसे बदला लेनी की आग में तड़पाती हैं।

प्रश्न उठता है कि क्या हमें ईंट का जवाब पत्थर से नहीं देना चाहिए? काँटे बोने वाले को मुँह तोड़ जवाब नहीं देना चाहिए। काँटे को काँटे से नहीं निकालना चाहिए। रहीम जी कहते हैं–

खीरा सिर से काटिए, मलियत नमक लगाए।
रहिमन कडुवे मुखन को, चहियत यहै सजाय॥

प्रभु श्रीराम काँटा बोने वाले महाप्रतापी रावण को शूल न देते तो क्या वे भगवती सीता को प्राप्त कर सकते थे? 'सूच्यग्रं नैव दास्यामि बिना युद्धेन केशव' का उद्घोष करने वाले दुर्योधन को यदि पाण्डव युद्धभूमि में न ललकारते तो क्या वे चक्रवर्ती सम्राट् बन सकते थे? यदि छत्रपति शिवाजी औरंगजेब की शठता का उत्तर शठता से न देते तो क्या 'हिन्दू पद पादशाही' की स्थापना सम्भावित थी। महात्मा गाँधी जन्मभर अहिंसा रूपी अस्त्र से अंग्रेज सरकार से संघर्ष करते रहे। 'ताहि बोई तू फूल' को मानते रहे, किन्तु '1942 के आन्दोलन' ने जब 'करो और मरो' को चरितार्थ किया, फूल नहीं, शूल से अंग्रेजों के सुदृढ़ किले को तोड़ा, तभी उन्हें सफलता मिली।

सफलता तो भाग्य के विधान पर अवलम्बित

क्या शूल में सफलता निश्चित है? सफलता तो भाग्य के विधान पर अवलम्बित है। (दैव विधानमनुगच्छति कार्य सिद्धि : भास) गीता का महामंत्र है, 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन'। क्या बुराई है, कर्म करने में। सिंह यदि दहाड़ नहीं मारेगा तो उससे अन्य पशु डरेंगे क्यों? फिर बिल्ली खाएगी नहीं तो गिरा अवश्य देगी। इतना ही नहीं, काँटा बोने वाले को इतना तो पता चल जाएगा कि तेरा प्रतिशोध हो रहा है। अगर तू नहीं बाज आया तो दूसरे का काँटा तेरे काँटे को निकालेगा नहीं तो जख्मी तो कर ही देगा। महाराणा प्रताप को स्वातंत्र्य समर में विजय नहीं मिली, किन्तु मुगल-सम्राट अकबर को दिन में तारे तो दिखा ही दिए। सुभाषचन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज भारत स्वतंत्र करवाने में सफल नहीं हुई, किन्तु अंग्रेज साम्राज्य की चूलें तो हिला ही दी। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी धारा 370 हटवा तो नहीं सके, किन्तु शेरे कश्मीर कहलाने वाले शेख अब्दुल्ला को एक बार तो जेल के सींखचे दिखा ही दिए।

अपने को मानवतावादी मानने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी प्रतिकार, प्रतिशोध के विरुद्ध हैं। उनकी धारणा है कि वैर से वैर बढ़ता है। कटुता से कटुता बढ़ती है। मानव प्रतिशोध में पागल हो जाता है। रात की नींद, दिन का चैन हराम हो जाता है। कभी-कभी तो कटुता दावाग्नि बन पूरे परिवार को डस लेती है।

प्रतिशोध एक जंगली न्याय

बेकन कहते हैं, 'Revenge is a kind of wild justic.' अर्थात् प्रतिशोध एक प्रकार का जंगली न्याय है। इसलिए इसके त्याग में ही भलाई है। स्वामी शिवानन्द का मानना है कि काँटा बोने वाला स्वयं पीलिया रोग से ग्रस्त हो जाता है। शेख शादी कहते हैं, 'ईष्यालु मनुष्य स्वयं ही ईर्ष्या से जला करता है। उसे और जलाना व्यर्थ है।' हरिशंकर परसाई भी मानते हैं कि अपनी अक्षमता से पीड़ित वह बेचारा दूसरे की सक्षमता के चाँद को देखकर सारी रात श्वान जैसा भौंकता है। उसे दण्ड देने की जरूरत नहीं। वह बेचारा स्वयं दंडित होता है। वह जलन के मारे सो नहीं पाता। कबीर ने भी पूर्वोक्त सूक्ति अपनी 'सन्तई' के कारण ही कही है। सन्तों को यह बात शोभित होती है।

महर्षि दयानन्द ने भी विष देने वाले जगन्नाथ रसोइए को क्षमा ही नहीं किया, आर्थिक सहयोग देकर पलायन में भी मदद की। काँटा बोने वाले मुगलों की शहजादी हाथ लगने पर छत्रपति शिवाजी ने न केवल माँ कहकर संबोधित किया, उल्टा उसे ससम्मान लौटा भी दिया। जिन अंग्रेजों की हमने लगभग 200 वर्ष गुलामी सही, अत्याचार-अनाचार सहे, भारत स्वतंत्र होने पर कांग्रेस ने उन्हीं के प्रतिनिधि लार्ड माउण्टबेटन को भारत का वायसराय नियुक्त कर दिया।

उपसंहार

महात्मा विदुर कहते हैं, 'जिनका हृदय बैर या द्वेष की आग में जलता है, उन्हें रात में नींद नहीं आती।' काँटा बोने वालों का मन, ईर्ष्या, द्वेष, बैरभाव आदि दूषित भयंकरता उत्पन्न करता है। उसका विवेक नष्ट हो जाता है। अपने मन के अंधकार में दूसरे का प्रकाश असह्य हो उठता है। विनोबाजी का विचार है कि इस प्रकार की द्वेष बुद्धि को हम द्वेष से नहीं मिटा सकते, प्रेम की शक्ति से ही उसे मिटा सकते हैं।' धम्मपद में भी ऐसे ही विचार प्रकट किए हैं

न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीह कुदाचन।
अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो॥

अर्थात् संसार में बैर से बैर कभी शांत नहीं होता, अबैर से ही शांत होता है, यही सनातन धर्म है। कविवर रहीम के शब्दों में–

प्रीति रीति सब सो भली, बैर न हित मित गोत।
रहीमन याही जनम में, बहुरिन संगति होत॥

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