जिओ और जीने दो पर निबन्ध
संकेत बिंदु– (1) जीवन की सार्थकता (2) जीवन में सम्पूर्ण आयु जियो (3) ईर्ष्या- द्वेष और निंदा द्वारा जीना दूभर (4) जीवन का आनंद जियो और जीने दो (5) जीवन की श्रेष्ठ कला।
हम जीवन को जिस सुख और आनन्दमय शैली में जीना चाहते हैं, उसका अधिकार दूसरों को भी दें, यही जीवन जीने की अर्थपूर्ण कला है। अपने लाभ के लिए, दूसरों को हानि न पहुंचायें इसी में जीवन की सार्थकता है। हम अपने जीवन को आनन्द से परिपूर्ण करें, किन्तु उसके लिए दूसरों को दैहिक तापों में न घसीटें, इसी में जीवन की सार्थकता है। इस सूक्ति का समर्थन करते हुए दादा धर्माधिकारी कहते हैं, “हमारा परम मूल्य जीवन है। जीवन को सम्पन्न बनाना है। सबके जीवन को सम्पन्न बनाना है।”
महापुरुषों ने जीवन की सार्थकता को विभिन्न रूपों में देखा है । कविवर वृन्द जीवन की सार्थकता ‘जैसी चले बयार तब. तैसी दीजे ओट’ में मानते हैं। जयशंकर प्रसाद जी का मत है कि “जीवन तो विचित्रता और कौतूहल से भरा होता है। यही उसकी सार्थकता है।” जैनेन्द्र जीवन की सार्थकता चलते रहने में मानते हैं। महात्मा गाँधी की धारणा है, ‘जीवन का सच्चा ध्येय ही जीवन की सार्थकता है।’ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी 'राग-विराग से जीवन जगमग' कहकर जीवन की सार्थकता को प्रकाशित करते हैं। सुभाषचन्द्र बोस धर्म और देश के लिए जीवित रहने में जीवन की सार्थकता देखते हैं। अज्ञेय की धारणा है, ‘जिन मूल्यों के लिए जान दी जा सकती है, उन्हीं के लिए जीना सार्थक है।’
अथर्ववेद का कथन है, 'सर्वमायुर्नयतु जीवनाय।' अर्थात् अपने जीवन में सम्पूर्ण आयु जियो। परन्तु प्राणी जिस दिन से जन्म लेता है सुख-दुःख, जय-पराजय, कष्ट-पीड़ा, राग-द्वेष, लोभ-माया, विघ्न-बाधाएँ उसका पीछा करते चलते हैं। इनमे छुटकारा पाने के प्रयत्न में आदमी स्वार्थी बन जाता है। स्वार्थ में अंधा होकर वह दूसरों के जीवन का अधिकार छीनना चाहता है। इन्दिरा जी ने अपनी गद्दी बचाने के लिए भारत को आपात् काल में धकेल कर भारतवासियों का जीना हराम कर दिया। भारत की उदारवादी आर्थिक नीतियों ने महंगाई का वह कहर बरसाया कि मध्यवर्गीय भारतवासी रो-रोकर जीवन जी रहा है। इसी स्थिति पर जयशंकर प्रसाद जी ने ठीक ही कहा है–
क्यों इतना आतंक ठहर जा ओ गर्वीले।
जीने दे सबको फिर तभी सुख से जी ले॥
यही दशा व्यक्तिगत जीवन में है। हम अपने घर का कूड़ा करकट मकान के बाहर फेंक देते हैं, जिससे पड़ोसी और पथिकों को कष्ट होता है। हम अपने टेलीविजन की ध्वनि तेज कर देते हैं, जिससे न केवल घर में रहने वालों को कष्ट होता है, बल्कि पड़ोसियों का जीना भी दूभर कर देते हैं। हम पर-निन्दा में इतने कुशल हैं कि अपने साथियों को घृणा का पात्र बना देते हैं। ऐसा करके हम आत्म-सुख का अनुभव करते हैं, किन्तु सच्चाई यह है कि ईर्ष्या-द्वेष ने हमारा अपना जीवन दूभर कर रखा है। दिन को चैन नहीं, रात को नींद नहीं।
एक व्यक्ति की दुष्टता से किसी की पुत्री का विवाह संबंध टूट गया। जिसने संबंध तुड़वाया था, वह अत्यन्त प्रसन्न। जिसकी पुत्री का संबंध टूटा है, वह अत्यंत दुःखी। कहाँ बरदास्त है हमें दूसरे का सुख, दूसरों के जीवन की खुशी। किसी केस में फंसाने पर हम उसका दायित्व दूसरों के मत्थे मढ़ देते हैं। वह जेल की हवा खाता है, उसके परिवार पर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ता है और हम अपनी चातुरी पर प्रसन्न होते हैं।
जीवन का आनन्द ईर्ष्या-द्वेष में नहीं, जीवन का सुख पर-पीड़ा में नहीं, जीवन का कल्याण राग-विराग में नहीं, जीवन का आनन्द है ‘जियो और जीने दो’ में। ‘सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः’ में है। ‘स्वयं हँसो मनु, जग को हँसता देखो’ में है!
यह तभी संभव है जब मनुष्य में सहिष्णुता होगी, संतोष होगा, समन्वय की विराट चेष्टा के लिए वह प्रयत्नशील होगा। इसके लिए मन का संयम करना होगा, समय आने पर झुकना होगा, दूसरों की सुविधा और दूसरों को निभाने के लिए समझौता करना होगा, उसके लिए राह छोड़नी होगी। बंधन में सौन्दर्य, आत्म दमन में सुरुचि और बाधाओं में माधुर्य के दर्शन करने होंगे। मन में कुत्सा, ईर्ष्या, जलन के लिए कोई स्थान नहीं होगा। तब ही हम 'जीने दो' की सार्थकता चरितार्थ कर पाएंगे।
दूसरों को 'जीने दो' का प्रथम सिद्धांत है 'जीओ'। जब तक व्यक्ति स्वयं स्वस्थ और सुखमय जीवन नहीं जीएगा तब तक दूसरों को 'जीने दो' की सोच बेमतलब है। जिसके घर दाने नहीं, वह क्या दान देगा? जो अशिक्षित है, वह क्या शिक्षा देगा? जो नंगा है, वह क्या निचोड़ेगा? जिसे हँसना नहीं आता, वह दूसरों को हँसाएगा क्या? इसलिए प्रथम उपादान है स्वयं का मंगलमय जीवन। महादेवी वर्मा ‘जीओ में ही जीने दो’ का रहस्य प्रकट करती हुई लिखती हैं, “व्यक्तिगत सुख विश्व वेदना में घुलकर जीवन को सार्थकता प्रदान करता है और व्यक्तिगत दुःख विश्व के सुख में घुलकर जीवन को अमरत्व।”
'जीओ और जीने दो' जीवन जीने की श्रेष्ठ कला है। जीवनयापन की सुन्दर शैली है। जीवन की प्रतिकूलता में भी आनन्द लेने का रहस्य है।
सब पाप पुण्य जिसमें जल-जल, पावन बन जाते हैं तिमल।
मिटते असत्य से ज्ञान लेश। समरस अखंड आनन्द वेश। -कामायनी (प्रसाद)

