दया धर्म का मूल सूक्ति पर निबंध

दया धर्म का मूल सूक्ति पर निबंध


संकेत बिंदु– (1) मन में उठने वाली सात्विक भावना (2) दया के अनेक रूप (3) महापुरुषों द्वारा दया के उदाहरण (4) मूर्खता और अज्ञान से की गई दया तामसी (5) उपसंहार।

मन में उठने वाली सात्विक भावना

मन में स्वत: उठने वाली वह मानवोचित्त सात्विक भावना या वृत्ति जो दुःखियों और पीड़ितों के कष्ट, दुःख आदि दूर करने में प्रवृत्त करती है, ‘दया’ है। मन का दुःखपूर्ण वेग, जो किसी को दूसरे का कष्ट दूर करने की प्रेरणा देता है ‘दया’ है। जाबाल दर्शनोपनिषद् के अनुसार “समस्त प्राणियों को अपने ही समान समझकर उनके प्रति मन, वाणी और शरीर द्वारा आत्मीयता का अनुभव करना ‘दया’ है।” पुराण-साहित्य में समस्त भूतों को आत्मवत् समझकर समदृष्टि रखते हुए व्यवहार करने अथवा सब प्राणियों पर अनुग्रह करने को ‘दया’ कहा गया है। सन्त तुकाराम के शब्दों में ‘प्राणियों का पालन और दुष्टों का संहार, इसी का नाम दया है।’

सामाजिक कर्तव्य जिसका पालन समाज के अस्तित्व या स्थिति के लिए आवश्यक होता है और जो प्रायः सर्वत्र सार्थक रूप में मान्य होता है, धर्म है। जैसे, दया का आचरण मनुष्य का धर्म है। लौकिक क्षेत्र में वे सब कर्म तथा कृत्य जिनका आचरण या पालन किसी विशिष्ट स्थिति के लिए निहित हो, धर्म है। जैसे, पशु पर दया दर्शाना मानव का धर्म है। ऋषि, मुनि या आचार्य द्वारा निर्दिष्ट वह कृत्य जिससे पारलौकिक सुख प्राप्त है, धर्म है।

'दया धर्म का मूल है' का अर्थ हुआ– मन, वाणी और शरीर द्वारा दूसरों के दुःख, कष्ट, पीड़ा आदि में आत्मीयता का भाव अनुभव कर, उन्हें दूर करने की प्रवृत्ति लौकिक और सामाजिक दृष्टि से मान्य होने के कारण धर्म है और पारलौकिक सुख प्राप्ति का आधार तत्त्व है।

यह सूक्ति तुलसीदास जी के दोहे से उद्धृत है। पूरा दोहा इस प्रकार है–

दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िए, जब लगि घट में प्राण।।

तुलसीदास जी ने ही सर्वप्रथम इस तत्त्व-ज्ञान को प्रसारित किया हो, ऐसा नहीं है। चाणक्य नीति में लिखा है, 'दया धर्मस्य जन्मभूमिः' अर्थात् दया ही धर्म की जन्मभूमि है। महात्मा कबीर के विचार इस प्रकार हैं–

जहाँ दया तह धर्म है, जहाँ लोभ तह पाप।
जहाँ क्रोध तह काल है, जहाँ क्षमा तह आप।।

दया के अनेक रूप

प्यासे को पानी पिलाना, भूखे को भोजन देना, नंगे को वस्त्र देना, निराश्रित को आश्रय देना दया के रूप हैं। अंधे को मार्ग तय करने में सहयोग देना दया का रूप है। चींटी, कबूतर, चिड़िया, कुत्ते-बिल्ली आदि पशु-पक्षियों को चुग्गा देना तथा जल का प्रबन्ध करना दयाकर्म हैं। गिरते को सम्बल देना, दुर्घटना में घायल प्राणी या प्राणियों की पीड़ा को महसूस कर सहयोग देना (पुलिस को सूचित करना, अस्पताल पहुंचाना आदि) दया का लक्षण है।

सूखा, भूकम्प, बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं से ग्रस्त जन-समुदाय के दुःख-पीड़ा को देखकर व्याकुलतावश तन, मन, धन से सहयोग देना, दिलवाना दया का विशाल रूप है।

महापुरुषों द्वारा दया के उदाहरण

पशु-बलि के लिए तत्पर पशु को देखकर गौतम बुद्ध का हृदय व्याकुल हो उठा। उन्होंने पशु के स्थान पर अपना शीश प्रस्तुत कर दिया। महाराजा शिवि ने तो कपोत-रक्षार्थ अपना अंग-अंग काटकर प्रस्तुत कर दिया। महर्षि दयानन्द ने उनके दूध में विष मिलाने वाले रसोइए को न केवल भागने में मदद दी, अपितु आर्थिक सहयोग भी दिया। अमरीका के राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन ने संसद् जाते हुए मार्ग में एक सूअर को दलदल में फँसे-तड़पते देखा तो शाही परिधान में ही दलदल में कूद पड़े और सूअर की प्राण-रक्षा की। गोदावरी नदी के तट पर धूप से तप्त रेत पर पड़ी कन्या का चीत्कार सुनकर संत एकनाथ का हृदय पिघला और वे उसे उठाकर घर लाए। नहलाया, खिलाया-पिलाया और उसके घर पहुंचा आए।

दया धर्म का मूल तब तक है, जब तक प्राणी दया का पात्र है । अपात्र पर दया हत्या का रूप ले लेती है। शेक्सपीयर का कथन है, “Murcy but murders, pardening those that kill.” (रोमियो एण्ड जूलियट, 31) अर्थात् हत्यारों को क्षमा करके दया हत्या ही करती है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने भी ऐसा ही कहा है, “जब-तब, जहाँ-तहाँ, जिस तिस पर दया नहीं करनी चाहिए। दया दिखाने की भी एक सीमा है। देश, काल, पात्र के अनुसार ही दया दिखाना उचित है।” शेखशादी ने तो एक कदम आगे बढ़कर लिखा है, 'बुरों पर दया करना भलों पर अत्याचार है।' महाराज पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी पर दया दर्शा कर सतरह बार जीवन-दान दिया। परिणाम क्या हुआ? वे न केवल गौरी के हाथों मारे गए अपितु भारत में हिन्दू-साम्राज्य का भी अंत हो गया।

मूर्खता और अज्ञान से की गई दया तामसी

मूर्खता व अज्ञान से, सारासार विवेक न करते हुए की गई दया तामसी दया है। आलसी और फोकटे लोगों को खिलाना तामसी दया है। साँप, बिच्छू, बाघ, सिंह आदि हिंस्र प्राणियों को न मारना तामसी दया है। प्रवृत्ति से चोर, लुच्चे, हत्यारे मनुष्यों को दण्ड न देना तामसी दया है। समाज, राष्ट्र अथवा धर्म के लिए घातक शत्रु का दमन न करना तामसी दया है। तात्पर्य, दया का वास्तविक अर्थ न समझकर अनुग्रह करने की भावना से किया गया दया का कार्य तामसी दया कहलाता है।

दया-बुद्धि का प्रदर्शन करना अथवा दया का व्यापार करना राजसी दया है। नाम हो, कीर्ति मिले, प्रसिद्धि हो, इसलिए रुग्णालयों को बड़े-बड़े दान दिये जाते हैं। अनाथालय चलाने अथवा गोशाला बनवाने के पीछे अनेक लोगों का इसी प्रकार का हेतु रहता है। दया करते हुए लोग अपने को देखें, अपने को दयालु एवं धार्मिक कहें, अपने चित्र छपें, इस प्रकार लोकेषणा के उद्देश्य से की गई दया राजसी दया होगी।

“नि:स्वार्थ बुद्धि से, व्यापक दृष्टि से लोककल्याण हेतु परिश्रम करना सात्विक दया है। अपना नाम हो, अधिकार-पद मिले अथवा स्वर्ग में स्थान मिले, इस प्रकार की कोई भी अभिलाषा मन में न रखकर इतरजनों की सहायता करना यथार्थ में सात्विक दया कहलाती है।” (जीवन मूल्य भाग 1, पृष्ठ 189-190)

जरूरत मंद सात्विक पात्र की कष्ट-पीड़ा, दु:ख-दर्द के प्रति मन की व्याकुलता से उत्पन्न दुःखकातरता तथा पीड़ा-हरण की प्रवृत्ति और प्रेरणा से सिक्त दया धर्म का मूल तत्त्व बन जाएगी। अपात्र के प्रति दया, स्वार्थ के वशीभूत दया, यश, कीर्ति, लोकेषणा से प्रेरित दया धर्म का मूल नहीं हो सकती।

शेक्सपीयर दया को परमात्मा का निजी गुण मानता है। (Murcy is an atriibute to God himself) इस परमात्म-गुण को अपने अन्त:करण में विकसित कर मानव धर्म-ध्वजा फहराते हुए ‘देहान्ते तव सान्निध्यं’ की आकांक्षा को पूर्ण कर सकता है।

उपसंहार

दया के समान न धर्म है, न दया के समान तप है, न दया के समान दान है और न दया के समान दान है और न दया के समान कोई सखा है। जो मनुष्य दुःखी जीवों का उद्धार करता है, वही संसार में सुकृती-पुण्यात्मा है। उसको नारायण के अंश से उत्पन्न समझना चाहिए। हम लोगों की ऐसी धारणा है कि मनुष्य आर्त प्राणियों के दुःख दूर करने पर वह सुख प्राप्त करता है, जिसके सामने स्वर्ग तथा मोक्ष सम्बन्धी सुख भी कुछ नहीं है।

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