दादा बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया सूक्ति पर निबंध

दादा बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया

संकेत बिंदु– (1) रुपए का महत्त्व सर्वोपरि (2) धन ही बल का आधार (3) धन के आने पर अभिमान (4) धन का कमाल (5) उपसंहार।

रुपए का महत्त्व सर्वोपरि

इस मायावी संसार में रुपए का महत्त्व सर्वोपरि है। रुपया अर्थात् धन। रुपया धन का मूर्त रूप है, क्योंकि वह विनिमय का साधन है। उसी से विविध वस्तुओं की प्राप्ति होती है। अपने से बड़ों का सम्मान और बराबर वालों का आदर रुपए के सम्मुख गौण है। यही कारण है कि रिश्ते-नाते भी अर्थ की सत्ता के इर्द-गिर्द घूमते हैं। गरीब रिश्तेदारी में कौन जाकर खुश होता है? गिरधर कविराय कहते हैं–

साई सब संसार में मतलब का व्यौहार।
जब लगि पैसा गाँठ में, तब लगि ताको यार।
तब लगि ताको यार, यार संग ही संग डोले।
पैसा रहा न पास यार मुख सों नहिं बोले॥

आज धन का लोभी मनुष्य माता की निन्दा करता है, पिता का सम्मान नहीं करता, भाई से बात नहीं करता, नौकरों पर क्रोध करता है, पत्नी का भोग्य वस्तु से अधिक मूल्य नहीं समझता। पुत्र तथा पुत्रियों के लिए उसके पास समय नहीं, क्योंकि रुपया उनके रिश्तों में दीवार बनकर खड़ा है। वह धन के वश में है। धन के स्रोत के वश में है। फिर परिवार का सम्मान क्यों करे?

कहते हैं धन से मोह बढ़ता है। इससे कृपणता, दर्प, अभिमान, भय और उद्वेग आते हैं। महाभारत में इन्हें देहधारियों के लिए धन-जनित दुःख माना गया है। महाभारत काल में वेदव्यास जी के विचार संगत होंगे, किन्तु कृपणता, दर्प, अभिमान और उद्वेग तो आज के धनी के सौभाग्य-चिह्न हैं। रही भय की बात, वह तो उन रिश्तेदारों से रहता ही दूर है, जो उनके धन पर ऐसे मँडराते रहते हैं; जैसे मांस पर चील। क्योंकि मांस सुरक्षित है, इसलिए चील को लगता है कि यहाँ हमें कुछ भी नहीं मिलने वाला।

धन ही बल का आधार

रुपये या धन का महत्त्व बहुत अधिक है। धन ही बल का सबसे बड़ा आधार है। धन के प्रताप से मूर्ख भी पंडितों के समान आदर पाता है। इतना ही नहीं तो धन ही प्रभुता (सत्ता) का मूल है। भर्तृहरि के 'नीति शतक' का एक श्लोक है–

यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः, स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः, सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति।

अर्थात् धन में सब गुण निहित है। संसार में धनी ही कुलीन, पंडित, ज्ञानी, गुणी, वक्ता और सुन्दर माना जाता है।

सम्भवतः इसी कारणलोग आज निजी सम्बन्धों को भी तिलांजलि देकर धन को महत्त्व देते हैं। स्वार्थी संसार में बाप और भैया का सम्मान धन के कारण रह गया है, अन्यथा ये अपमानित होते हैं। सर्वगुण सम्पन्न होने पर भी निर्धन इसी कारण तिरस्कार का पात्र बनता है।

फिर प्रश्न यह है कि धन आने पर धनी रिश्तेदारों को, सगे सम्बन्धियों को सम्मान क्यों दे? वे आएंगे तो स्वार्थवश, वे मिलेंगे तो चापलूसी करेंगे, वे बात करेंगे तो अनर्गल। क्यों? क्योंकि वे धनी के स्टेटस (बड़प्पन) को नहीं समझते, उसके मिलने-जुलने वालों के स्तर को नहीं पहचानते, वे उसके समय की कीमत नहीं जानते?

धन के आने पर अभिमान

धन का अभिमानी किसी का सम्मान नहीं करता, किसी को इज्जत नहीं देता, आदर से बैठाता नहीं, चाय को पूछता नहीं। यह सब कुछ सम्भव है। सुकरात कहते हैं, “अच्छा सम्मान पाने का मार्ग यह है कि जो तुम प्रतीत होने की कामना करते हो, वैसा बनने का प्रयास करो।” सरदार वल्लभभाई पटेल तो स्पष्ट रूप से कहते हैं, “मान-सम्मान किसी के देने से नहीं मिलते, अपनी-अपनी योग्यतानुसार मिलते हैं।”

किंवदन्ती है कि एक बार एक बाप अपने सादे वस्त्रों में अपने ऑफीसर बेटे से मिलने गया। निजी सचिव ने उसे अन्दर भेज दिया। बेटे के पास कुछ लोग बैठे थे। उसने जब बाप का रूप देखा तो उसे लज्जा आई, उसने उन्हें केबिन में भेज दिया। जब पास बैठे लोगों ने परिचय पूछा तो कह दिया– ‘गाँव का मुँह लगा नौकर है।’ अब वह बाप तो कहेगा ही कि बेटे की आँख पर धन की, बड़प्पन की पट्टी बंध गई है जो बाप को नहीं पहचानता।

धन का कमाल

रिश्तेदारों की स्थिति देखिए। आपके पास पद है, पैसा है सम्मान है, आप किसी का काम कर देते हैं या करवा देते हैं तो वह ढिंढोरा पीट-पीटकर आपकी इतनी प्रशंसा करेगा कि सौ रिश्तेदार और काम के लिए खड़े होंगे। खड़ी कर दी न मुसीबत। और आर्थिक सहायता कर दी तो लौटाने का नाम नहीं। मांग लिया तो यही कहेंगे इसकी निगाह में तो 'बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया' ही है।

बीसवीं सदी या कलियुग को स्वार्थ-युग की संज्ञा दी है। गोस्वामी तुलसीदास भी कहते हैं, “सुर नर मुनि सब कै याही रीति, स्वारथ लागि करत सब प्रीति।” इसलिए यदि कोई धनी स्वार्थवश अपने को महत्त्व देता है तो इसमें उसका दोष क्या? वह तो ‘सब कै यह रीति’ पर आचरण कर रहा है।

उपसंहार

संस्कृत की एक लोकोक्ति है– 'योग्यं योग्येन योजयेत्।' अर्थात् योग्य का योग्य के साथ सम्बन्ध उत्तम होता है। योग्यता का अर्थ समान धर्मी या पद भोगना नहीं है, अपितु काबलीयत है, पात्रता है। यदि सम्बन्धी चाहे दूर के हों या समीप के अपने को धनी, ऐश्वर्यवान्, श्री सम्पन्न व्यक्ति के अनुकूल होने के भाव पैदा करेंगे तो 'दादा बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपया' की कहावत झूठी पड़ जाएगी। अन्यथा तो धन की महत्ता, विलक्षणता, शक्ति तथा सामर्थ्य के सम्मुख भाई-बहन, पिता-पितामहः, बड़े-बुर्जुग का रिश्ता मृतप्राय है। गीता में कृष्ण की भाँति धन भी मानो पुकार-पुकार कर कह रहा है–

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।
अहं त्वां सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

अरे! तू कुछ भी उचित-अनुचित कर मैं तुझे थाने से, कचहरी से यहाँ तक कि फाँसी से भी छुड़ा लाऊँगा।

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