नदी की आत्मकथा पर निबंध | Nadi Ki Atmakatha Essay In Hindi

Nadi Ki Atmakatha Essay In Hindi: हिन्दी विषय की परीक्षाओं में नदी की आत्मकथा पर निबंध (Nadi Ki Atmakatha par nibandh) लिखने को कहा जाता है। नीचे दिये गए निबंध को पढ़कर आप इस विषय पर अच्छा निबंध लिख सकते हैं। 

Nadi Ki Atmakatha Essay In Hindi

नदी की आत्मकथा पर निबंध

संकेत बिंदु- (1) मेरे अनेक रूप और नाम (2) मेरे जल के अनेक रूप (3) मेरे तट तीर्थ और जल स्वास्थ्यवर्धक (4) मनोरंजन साधन के रूप में (5) मेरा प्रलयकारी रूप।

हिमगिरि से निकल, कलकल-छलछल करती, निरन्तर प्रवहमान निर्मल जलधाराजी हाँ, मैं नदी हूँ।' पर्वतराज मेरी माता है, समुद्र मेरा पति है। माता की गोद से निकलकर कहीं धारा के रूप में और कहीं झरने के रूप में इठलाती-गाती आगे-आगे बढ़ती हुई वसुधा के वक्षस्थल का प्रक्षालन करती हूँ, सिंचन करती हूँ।अन्त में पति-अंक-(विशाल जलनिधि) में शरण लेती हूँ। 'रविपीतजलातपात्यये पुनरोधेन हि युज्यते नदी', कहकर मेरी प्रतिष्ठा की गयी है।

मेरे अनेक रूप और नाम

हृदय की विशालता देखकर मुझे 'नद' (दरिया) कहा गया। सदा-सतत बहाव के कारण मेरा 'प्रवाहिणी' नाम पड़ा।जल-प्रपात रूप के कारण मुझे 'निर्झरिणी' नाम से पुकारा गया। निरन्तर सरकने या चलते रहने के कारण मुझे 'सरिता' नाम दिया गया और अनेक स्रोत होने के कारण 'स्रोतस्विनी' कहा गया है। मेरे सर्वाधिक पवित्र (पुण्य) सलिल रूप को 'गंगा' कहा गया है। गंगा के समानान्तर बहने वाले रूप को 'यमुना' नाम से पहचाना गया। दक्षिण भारत के गंगा रूप को 'गोदावरी' कहा गया। शतगु (सतलुज) की सहायक होने के कारण मुझे ऋग्वेद में 'सरस्वती' नाम से पहचाना गया। पवित्रता की इस श्रृंखला में मुझे 'काबेरी', 'नर्मदा' तथा 'सिंधु' नाम भी दिए गए।

मेरे जल के अनेक रूप

भूमि-सिंचन मेरा धर्म है। मुझसे नहरें निकालकर खेती तक पहुंचाई जाती हैं, सिंचाई से भूमि उर्वरा होती है, अनाज अधिक पैदा होता है। अन्न ही जीवों का प्राण है (अन्नं वै प्राणाः भूतानां-वेद)। अतः मैं जीवों की प्राणदात्री हूँ। मैं पेड़-पौधों का सिंचन करती हूँ और प्राणियों की प्यास बुझाती हूँ।

मेरी धारा को ऊँचे प्रपात के रूप में परिवर्तित करके विद्युत् का उत्पादन किया जाता है। विद्युत् वैज्ञानिक सभ्यता का सूर्य है। भौतिक उन्नति का मूल कारण है।आविष्कार और उद्योगों का प्राण है। यह दैनिक चर्या में मानव की चेरी है और बुद्धि-प्रयोग में वह मानवीय चेतना का 'कम्प्यूटर' है। यदि मेरे जल से विद्युत् तैयार न हो तो उन्नति के शिखर पर पहुंची विश्व-सभ्यता वसुधा पर आँधी पड़ी कराह रही होगी।

मैं परिवहन के लिए भी उपयोगी माध्यम सिद्ध हुई हूँ। परिवहन समृद्धि का अनिवार्य अंग है। प्राचीनकाल में तो प्रायः सम्पूर्ण व्यापार ही मेरे द्वारा होता था, किन्तु आज जबकि परिवहन के अन्यान्य सुगम साधन विकसित हो चुके हैं, तब भी भारत-भर में नौकापरिवहन-योग्य जलमार्गों द्वारा ६६ लाख टन समान की दुलाई की जाती है। यही कारण है कि मेरे तट पर बसे नगर व्यापारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं।

मेरे तट तीर्थ और जल स्वास्थ्यवर्धक

मेरे जल से प्राणी अपनी प्यास बुझाते हैं, बहते नीर में स्नान करके न केवल आनन्दित होते हैं, अपितु स्वास्थ्यवर्धन भी करते हैं। आज का अभिमानी नागरिक कह सकता है कि हम तो नगर-निगम द्वारा वितरित जल पीते हैं, जो नलों से आता है। अरे आत्माभिमानी मानव! यह न भूल कि यह जल मेरा ही है, जिसे संगृहीत करके रासायनिक विधि द्वारा शुद्ध तथा पेय बनाकर नलों के माध्यम से तुम्हारे पास पहुंचाया जाता है। इसलिए कहती हूँ-मेरा जल अमृत है और पहाड़ों से जड़ी-बूटियों के सम्पर्क के कारण औषधियुक्त है।

मेरे तट तीर्थ बन गए। शायद इसीलिए घाट को 'तीर्थ' कहा गया, क्योंकि तीर्थ भवसागर पार करने के घाट ही तो हैं। सात पुरियाँ-अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका तथा द्वारिका एवं असंख्य पवित्र धार्मिक स्थान मेरे तट ही पर बसे हैं। इतना ही नहीं वर्तमान भारत के 'बापू' महात्मा गाँधी और प्रथम महामात्य पं. नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और श्रीमती इन्दिरा गाँधी को समाधियाँ भी मेरे ही यमुना तट को ही अलंकृत कर रही हैं। मेरे गंगा, यमुना, नर्मदा आदि रूप को 'मोक्षदायिनी' का पद प्रदान कर मेरी स्तुति गाई जाती है, आरती उतारी जाती है ।

मेरे जल में स्नान पुण्यदायक कृत्य माना गया है। अमावस्या, पूर्णमासी, कार्तिक पूर्णिमा, गंगा दशहरा तथा अन्यान्य पर्यों पर मेरे दर्शन, स्नान तथा मेरे जल से सूर्य-अर्चन तो हिन्दू-धर्म में पवित्र धर्म-कर्म की कोटि में सम्मिलित हैं।

मनोरंजन साधन के रूप में

मैं मानव के आमोद-प्रमोद के काम आई, उसके मनोरंजन का साधन भी बनी। एक ओर मानव मेरी धारा में तैराकी का आनन्द लेने लगा, तो दूसरी ओर जल-क्रीडा से तो घंटों प्रसन्न रहने लगा। नौका-बिहार का आनन्द लेने के लिए तो वह मचल उठा। चाँदनी रात हो, समवयस्क हमजोलियों की टोली हो, गीत-संगीत का मूड हो, तालियों की लयबद्ध ताल हो, तो मुझमें नौका-विहार के समय किसका हृदय बल्लियों नहीं इछलेगा?

कल-कल के मधुर गान में,
उठती-गिरती लहरों की तान में,
बनते-मिटते जलफफोलों की क्रीडा पर,
तट पर विद्युत्-स्तम्भों से पड़ती जलीय विद्युत्-क्रीडा पर,
जल राशि की कम्पायमान स्थिति पर,
मछली-कछुओं के जल-नर्तन पर किसका हृदय न्यौछावर नहीं होता?

प्रकृति के चितेरे सुमित्रानन्दन पंत का हृदय इसलिए गा उठा-

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र तो मेरे गंगा रूप को देखते-देखते मुग्ध हो कहने लगे-

नव उज्ज्वल जलधार हार हीरक सी सोहती।
बिच-बिच छहरति बूंद मनु मुक्तामणि पोहती।

मेरा प्रलयकारी रूप

मनोमुग्धकारी फूल के साथ कष्टदायक और चुभने वाले काँटे भी होते हैं। अति शीतल चन्दन से भी अग्नि प्रकट हो जाती है। अति वृष्टि के कारण बरसाती नाले जब मेरे पवित्र जल को गंदा करने लग जाते हैं, तो मेरा वक्ष फट जाता है। मैं अमर्यादित हो जल-प्लावन का दृश्य उपस्थित कर देती हूँ। तब धन, जन, सम्पत्ति, पेड़-पौधे, हरियाली, खेती और पशुधन का विनाश होता है। कुछ काल पश्चात् मेरी दुःखित आत्मा अपना रोष प्रकट कर पुन: अपने मंगलकारी रूप में परिवर्तित हो जाती है।

मानव मरणोपरान्त भी मेरी ही शरण में आता है। उसकी अस्थियाँ मुझे ही समर्पित की जाती हैं। आदिकाल से अब तक कितने ही ऋषियों, मुनियों, महापुरुषों, समाजसुधारकों, राजनीतिज्ञों और अमर शहीदों के फूलों से मेरा जल उत्तरोत्तर पवित्र हुआ है। अत: मेरे पवित्र जल में डुबकी लगाने का अर्थ मात्र स्नान नहीं, उन पवित्र आत्माओं के सान्निध्य से अपने को कृतार्थ करना भी है।

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