भिक्षुक की आत्मकथा पर निबंध

भिक्षुक की आत्मकथा

संकेत बिंदु- (1) पापी पेट के लिए (2) भिखारी बनने की कहानी (3) बिना परिश्रम के धन अर्जन (4) तीर्थ स्थलों में धर्म के नाम पर लूट (5) भिखारी जीवन त्याग कर नया जीवन।

पापी पेट के लिए

पेट की क्षुधा-पूर्ति के लिए अन्न अनिवार्य है। जब भूख लगी हो, आतें कुलमुला रही हों, तब कोई कार्य अच्छा नहीं लगता। “भूखा मरता, क्या न करता।” पापी पेट सब कुछ करवा सकता है। मान और अभिमान, ग्लानि और लज्जा, ये सब चमकते हुए तारे उसको काली घटाओं की ओट में छिप जाते हैं।

मैंने दरिद्र कुल में जन्म लेकर भी येन-केन प्रकारेण दसवीं कक्षा पास की। मैट्रिकुलेट कहलाया। माता-पिता की आँखें चमकी- 'हमारा पुत्र बाबू बनेगा।' बाबू बनने के लिए दर-दर की ठोकरें खाईं। किसी ने दया न दिखाई। माता-पिता की चमकी आँखों में अंधेरा छा गया। मेरा मन उदास रहने लगा।

भिखारी बनने की कहानी

मंगलवार का दिन था। प्रातः हनुमान जी के मन्दिर में गया। हनुमान चालीसा का पाठ किया। मन में आया कि आज दिन-भर हनुमान जी का जाप करूँ। शायद हनुमान जी प्रसन्न होकर मुझे भी अपने कंधे पर बैठा लें। मन्दिर के प्रांगण में एक ओर बैठकर आँखें मूंद ली। मन्द स्वर में हनुमान चालीसा का पाठ करने लगा। आधा घण्टे तक इसी प्रकार ध्यानमग्न रहा। आँखें खोली तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा। मेरे सामने लोग पैसे फेंक गए थे। गिने तो पूरे पाँच रुपये थे। रुपये जेब के हवाले किए। दान-पुण्य हिन्दू जाति की विशेषता है। पात्र-कुपात्र के विचार का प्रश्न ही नहीं उठता। भगवान् बुद्ध को तो घोर तपस्या के बाद ज्ञान प्राप्त हुआ था, मुझे तो आधा घण्टे में ही हनुमान जी ने कंधे पर उठा लिया। अब मुझे भिक्षुक नाम मिल चुका था।

घरवालों से झूठ बोला। मेरी नौकरी मथुरा में लग गई है। कल ही जाना है। दूसरे दिन पहुंच गया कृष्ण की जन्म और क्रीडा-भूमि में। तीन दिन मथुरा के मन्दिरों का अध्ययन किया। यमुना-तट पर भक्तों का स्नान-ध्यान देखा। धर्म की विविध लीलाएँ देखीं। कहीं मोक्ष बाँटा जा रहा है, कहीं पुत्र लुटाए जा रहे हैं, कहीं-कहीं पाप धोए जा रहे हैं। सर्वत्र ढोंग और ठगी का बाजार गर्म है। कहीं चिमटा चमकता है, तो कही मुंडचिरा सिर पटकता है। ' उदरनिमित्तं बहुकृतवेशः।'

वहाँ मैंने देवताओं के नाम पर माल उड़ाते और मस्त जीवन जीते पंडितों को देखा, कूड़े-करकट की पूजा करती नारियाँ देखीं, सैयदों से दुआ माँगती युवतियों को देखा, पीपल, बेर, आक, बबूल को पुजते देखा। मन ही मन हँस पड़ा- ‘कृष्ण नाम की लूट है, लूटी जाए सो लूट।’

बिना परिश्रम के धन अर्जन

साधुओं के वेष में भिखारियों को बिना परिश्रम के धन प्राप्त करते देखकर मैंने भी वही पथ निश्चित किया। ब्राह्ममूहूर्त में उठकर यमुना में स्नान किया। एक स्थान पर चद्दर बिछाई और ध्यानमग्न होने का स्वांग रचकर बैठ गया।कीर्तन करने लगा। नर-नारी आते, पैसे चढ़ाकर चल देते। दिन चढ़ने के साथ ही भगवान् भास्कर की उष्णता बढ़ने लगी। कीर्तन बन्द किया।पैसे इकट्ठे किए और चल पड़ा प्रातराश करने। इस प्रकार एक सप्ताह में सौ रुपए इकट्ठे हो गए। केवल दो घंटे का नाम-मात्र का परिश्रम करना पड़ा।

तीर्थ स्थलों में धर्म के नाम पर लूट

एक दिन घाट वाले पंडित जी ने मुझे बुलाया। परिचय पूछा। जब उसे पता चला कि मैं बनिया होकर भक्तों को लूट रहा हूँ, तो उन्हें क्रोध आ गया। 'पाखंडी', 'नीच' न जाने क्या-क्या 'पुण्य श्लोक' पंडित जी ने सुना दिए। मैंने कह दिया, 'पंडित जी, कल से यहाँ नहीं बैठूंगा।' यह सुनकर पंडित जी की सिट्टी-पिट्टी गुम। कहने लगे, नहीं-नहीं भई, तुम्हें घाट-देवता का हिस्सा तो देना ही चाहिए। घाट भी देवता बन गया और पंडित जी दलाल? पर मैं उसको पूजना नहीं चाहता था।

कभी पढ़ा था बहता पानी, रमता जोगी निर्मल रहता है। चल पड़ा मथुरा छोड़कर पावन नदियों के संगम पर, तीर्थराज प्रयाग की ओर। वहाँ के तथाकथित भक्तों, सन्तों को देखा। कोई भैरव का भक्त भोपा बनकर लूट रहा है, मुसलमान शंकर बम भोला' बनकर पुज रहा है, संपेरे, कंजड़ भगवा वस्त्र पहनकर साधु बने बैठे हैं। किसी के हाथ में संप्पर और गले में हड्डियों की माला है और अपने को किसी महान् ऋषि की सन्तान बता रहा है। कोई एक हाथ ऊपर उठाकर स्वर्ग पर चढ़ रहा है, तो अनेक विभूति लगाकर जटाएँ बढ़ाकर पहुँचे हुए महात्मा बने बैठे हैं। भक्तों के सम्मुख ये साधु ऐसा रूप बनाएंगे, त्योरियाँ बदलेंगे, स्वाँग भरेंगे कि यदि भक्त ने उनकी मांग पूरी न की तो झट शाप दे देंगे। मुंह में शाप और हृदय में पाप। यह सब देखकर मन प्रसन्न हुआ। सोचा यहाँ कमाई अच्छी होगी। हुआ भी वही। 

हनुमान्-मन्दिर के बाहर प्रातः दो घंटे कीर्तन करने लगा। कंठ मधुर था, आय बढ़ने लगी। मन्दिर के पुजारी की त्यौरियाँ चढ़ने लगीं। हनुमान जी ने एक छलांग में सागर पार किया था, ये एक दिन एक ही श्लोक में मुझे काबू करना चाहते थे। जब मैं काबू न आया यो हनुमान् जी की सेना आ धमकी। लगा सभी जेब कतरे, जुआरी, शराबी हनुमान् जी के सैनिक हैं। मैंने हार मान ली। पण्डित जी के चरण-स्पर्श किए, विदा हुआ।

'स्थान भ्रष्टाः न शोभन्ते' की सूक्ति मन में गूंज गई। दोपहर को पण्डित जी के चरणों में पहुंचा। दण्डवत् प्रणाम किया। समझौता हुआ। अब मेरा कीर्तनस्थल मन्दिर का प्रांगण बना। दरियाँ बिछा दी गई। मेरा आसन लगा दिया गया।माथे पर तिलक और मुँह के सामने माइक रख दिया गया। आमदनी सुरसा के मुँह की तरह बढ़ने लगी। समझौता था-'फिफ्टी-फिफ्टी।' अर्थात् पचास प्रतिशत मंदिर का।

भिखारी जीवन त्याग कर नया जीवन

एक दिन एक सज्जन आए। घर पर भोजन का निमन्त्रण दे गए। उनके घर भोजन करने गया। स्वादिष्ट भोजन किया। उनकी बैठक में थोड़ा विश्राम किया। बातचीत हुई। आत्मपरिचय दिया और भिक्षुक बनने का कारण बताया। वे सिहर उठे। लगा उनका आत्मीय मिल गया। उन्होंने अपनी फैक्टरी में तीन हजार रुपये मासिक वेतन पर नौकरी की पेशकश की। अन्धे को क्या चाहिए-दो आँखें। मैंने स्वीकृति दे दी। मुझे भी भिक्षुक जीवन से घृणा हो गई थी।

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