यदि मैं प्रधानाचार्य होता पर निबंध

यदि मैं प्रधानाचार्य होता! 

या

अगर मैं विद्यालय का प्रधानाचार्य होता!

संकेत बिंदु- (1) छात्रों में शिक्षा और विज्ञान का प्रचार-प्रसार (2) विद्यालय का शिक्षा स्वर उन्नत और छात्रों में साहित्य प्रेम (3) छात्रों को अच्छा चिकित्सक और मानव बनने की प्रेरणा (4) छात्रों की कला प्रदर्शन और विद्यालय में अनुशासन (5) उपसंहार।

छात्रों में शिक्षा और विज्ञान का प्रचार-प्रसार

मैं यदि विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो देश के राष्ट्रपति रह चुके सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन् के विचारों का प्रचार-प्रसार करता और विद्यालय के प्रत्येक छात्र को शिक्षा के सम्बन्ध में तथ्यपूर्ण जानकारियाँ भी उपलब्ध कराने का भरसक प्रयत्न करता। शिक्षक रह चुके डॉ. राधा कृष्णन् की विचारधारा और उनके स्वप्न को भी साकार करने का प्रयास करता।

मैं यदि विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की भाँति अपने विद्यालय के छात्रों को विज्ञान में उन्नतशील बनाने और सफल वैज्ञानिक बनकर राष्ट्र का नाम उज्ज्वल करने की प्रेरणा देता। विज्ञान आज के युग की आवश्यकता है और विज्ञान के माध्यम से ही हम भारत को समूचे विश्व में विश्व गुरु के पद पर आसीन करने में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। आज भारत का नाम समूचे विश्व में विज्ञान के द्वारा ही जाना जा रहा है और मैं विद्यालय के छात्रों को विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी रहने की प्रेरणा भी देता और विद्यालय के छात्र अपने साथ अपने देश के नाम को भी ऊँचा करने में सफल होते। जिस प्रकार भारत ने विज्ञान के माध्यम से अन्तरिक्ष में सफलता पायी है उसी प्रकार मैं अपने विद्यालय के योग्य छात्रों को नासा के माध्यम से अन्तरिक्ष में अध्ययन के और अधिक अवसर दिलाने का प्रयास करता।

विद्यालय का शिक्षा स्वर उन्नत और छात्रों में साहित्य प्रेम

मैं यदि विद्यालयका प्रधानाचार्य होता तो सबसे पहले तो मैं अपने पद और अधिकार का उपयोग कर अपने साथी अध्यापकों को विद्यालय का शिक्षा-स्तर और अधिक उन्नत बनाने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करता। योग्य अध्यापकों को राज्य स्तर पर और राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित और पुरस्कृत करने की सरकार से सिफारिश भी करता। यदि अध्यापक कुशलता से छात्रों को अध्ययन करायेंगे तो विद्यालय पूरे जिले और राज्य में सर्वश्रेष्ठ कहलाने का गौरव भी प्राप्त करेगा। मेरा हर सम्भव यह प्रयास होता कि अध्यापक और छात्र में संवाद प्रक्रिया बनी रहे। मैं यह भी प्रयास करता कि विद्यालय का प्रत्येक छात्र अपने सहपाठी से चार कदम आगे चलकर सफलता की सीढ़ियां चढ़ता चले। अध्यापकों और छात्रों में पढ़ाई के अतिरिक्त नैतिकता का भी सामंजस्य स्थापित करने का मेरा प्रयास रहता।

मैं यदि विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो विद्यालय के प्रत्येक छात्र को कला और साहित्य में अग्रणी बनाने का प्रयास करता । जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', रामधारी सिंह 'दिनकर', श्याम नारायण पाण्डेय, सोहनलाल द्विवेदी, भवानीप्रसाद मिश्र, देवराज 'दिनेश', सुरेन्द्र शर्मा, अशोक चक्रधर', सोम ठाकुर, कुंअर बेचैन', अज्ञेय, नागार्जुन, सरीखे कवि विद्यालय के छात्रों को बनाने का प्रयास करता। मेरा यह भी प्रयास रहता कि मुंशी प्रेमचंद, भीष्म साहनी, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी हजारी प्रसाद द्विवेदी, सियाराम शरण गुप्त जैसे लेखक बनने की विद्यालय के छात्रों को प्रेरणा भी देता।

छात्रों को अच्छा चिकित्सक और मानव बनने की प्रेरणा

मैं यदि विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो छात्रों को चिकित्सक बनने की प्रेरणा भी देता। कहा जाता है कि, "डॉक्टर भगवान् का दूसरा रूप होता है" और मैं विद्यालय के छात्रों को यह शिक्षा भी देता कि डॉक्टर, वैद्य, हकीम बनकर समाज के रोगी जनों की सेवा करो और उन्हें नीरोग बनाकर उनका जीवन सुखमय बनाओ। समाज में डॉक्टर की एक प्रकार की विशेष भूमिका होती है और मेरे विद्यालय का छात्र डॉक्टर बनकर मरीज को स्वस्थ बनाता जिससे उसका और विद्यालय का नाम चमकता। मैं यह भी प्रयास करता कि विद्यालय का छात्र डॉक्टर बनकर उन उपेक्षित क्षेत्रों में जाकर मरीजों की सेवा करे जो क्षेत्र शहर से बहुत दूर हैं और जहाँ चिकित्सा सुविधा नहीं है।

मैं यदि विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो विद्यालय के छात्रों को प्राकृतिक आपदा, जैसे- भूचाल, बाढ़, तूफान में फंसे व्यक्तियों की मदद करने की प्रेरणा देता। छात्रों को मानव-सेवा की शिक्षा भी देता क्योंकि, 'नर सेवा ही नारायण सेवा' कहलाती है। प्राकृतिक आपदा में फंसे हजारों बच्चे, बूढ़े, नर-नारियों की सेवा और सहायता के लिए विद्यालय के छात्रों को लगाकर विद्यालय के नाम को ऊँचा उठाने का प्रयास करता। आपदा और संकट की घड़ी में किसी को भी सहायता देना मानवता का पहला कार्य माना जाता है, इसके लिए मैं विद्यालय के अध्यापकों और छात्रों का पूर्ण सहयोग लेकर स्वयं भी सेवा और सहायता को तत्पर होता। इस कार्य के लिए मैं सरकार से भी हर सम्भव सहायता देने की मांग भी करता। मुसीबत में फंसे व्यक्तियों को भोजन, दवाई, पानी, दूध आदि का भी प्रबन्ध कराकर छात्रों को उन पीड़ितों की सेवा में लगा देता। इससे विद्यालय और छात्रों का गौरव और बढ़ता।

यदि मैं विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो विद्यालय के छात्रों को हर प्रकार के खेलों का अभ्यास करने की प्रेरणा देता। क्रिकेट, हॉकी, फुटबॉल, तैराकी, शतरंज आदि जो भी खेल हैं उनमें विद्यालय के छात्रों को निपुण बनाकर ओलंपिक में उन्हें खेलने की प्रेरणा देता। तीरन्दाजी, निशानेबाजी में विद्यालय के छात्र निपुण होकर विद्यालय का नाम ऊंचा करने में सहायक होते। यही नहीं, मैं विद्यालय के छात्रों को पर्वतारोहण की प्रेरणा भी देता, जो तेनसिंह की तरह हिमालय पर्वत के शिखर पर तिरंगा लहराने के स्वप्न को साकार करते।

छात्रों की कला प्रदर्शन और विद्यालय में अनुशासन

यदि मैं विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो विद्यालय के छात्रों की कला का प्रदर्शन प्रत्येक वर्ष गणतंत्र दिवस पर राजपथ पर झांकियों के रूप में कराने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करता। विद्यालय के छात्र विजय चौक पर देश के राष्ट्रपति के समक्ष अपनी कला के प्रदर्शन से देश में सर्वोच्च स्थान पाने में सफल होते। छात्रों द्वारा नृत्य, भाँगड़ा और अनेक प्रकार के खेलों से राजपथ पर विद्यालय के नाम की चर्चा होती और कार्यक्रम का दूरदर्शन पर सीधा प्रसारण देश की जनता के सम्मुख होता। इससे विद्यालय और विद्यालय के छात्रों का नाम ऊँचा होता।

यदि मैं विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो 'विद्यालय में अनुशासन' सर्वप्रथम मेरी प्राथमिकता होती। विद्यालय का प्रत्येक छात्र एक वृक्ष विद्यालय में लगाता, जिससे वातावरण में शुद्ध वायु का प्रवाह होता। वायु में ही आपका जीवन होता है। सभी छात्र वृक्ष के साथ-साथ विद्यालय में तरह-तरह फूल भी लगाते। फूल जीवन में सुगन्ध फैलाते हैं, फूल ही प्रेम-प्यार का प्रतीक होते हैं। फूल किसी भी प्रियजन को उपहार में भेंट किये जा सकते हैं।

उपसंहार

यदि मैं विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो अपने अध्यापक साथियों के साथ मिलकर विद्यालय का शिक्षा का स्तर प्रत्येक क्षेत्र में इतना ऊँचा उठाने का प्रयास करता कि समूचे राष्ट्र में मेरे विद्यालय के छात्र एक प्रकार से प्रत्येक विषय में हिन्दी, अंग्रेजी, गणित, विज्ञान, भौतिकी, रसायन विज्ञान, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, सामाजिक शास्त्र, कला और साहित्य में प्रथम, द्वितीय श्रेणी को प्राप्त करते। जिला, राज्य और राष्ट्र में हमारे विद्यालय का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता। सम्मान किसी व्यक्ति या संस्था के चेहरे को नहीं मिला करता, सम्मान तो संस्था या व्यक्ति के काम को मिला करता है। यदि मैं विद्यालय का प्रधानाचार्य होता और मेरा विद्यालय सम्पूर्ण राष्ट्र में प्रथम स्थान प्राप्त करता और मीडिया वाले मेरी राय जानने आते तो मैं विद्यालय काप्रधानाचार्य होने के नाते प्रत्येक टी.वी. चैनल और समाचार-पत्रों को एक ही बात कहता कि, "मन में आगे बढ़ने का विश्वास, मन में लगन, लगन के साथ धैर्य और सहनशीलता और दूरदृष्टि-पक्का इरादा ही व्यक्ति को कुछ कार्य करने की प्रेरणा लेकर सफलता की ओर अग्रसर होने का अवसर प्रदान करता।"

मेरा प्रयास देश के भविष्य को उन्नत, प्रखर, बनाकर विश्व में शिखर पर पहुंचाने का है। भारत के सपूत जब शेर के मुँह में हाथ डाल कर दाँत गिनने का साहस कर सकते हैं, भारत के वीर घोड़ों की टापों से उठी चिनगारियों से दीप माला मनाने का साहस कर सकते हैं तो मेरे विद्यालय के छात्र मेरे प्रधानाचार्य काल में समूचे विश्व में भारत को विश्व- गुरु का पद भी दिलाने की हिम्मत कर सकते हैं। यदि मैं प्रधानाचार्य होता तो न जाने कितने और अद्भुत कदम उठाकर अपना और विद्यालय का आदर्श प्रस्तुत करता। इसी संदर्भ मैं कवि मनोहर लाल रत्नम् के मन की अभिलाषा को भी देख लिया जाये तो उत्तम रहेगा।

प्रधानाचार्य मैं होता यदि, विद्यालय को शिखर चढ़ाता।
जिला, राज्य की बात नहीं फिर, पूर्ण राष्ट्र में नाम बढ़ाता॥
विद्यालय का हर बालक ही, ज्ञानी-विज्ञानी कहलाता।
थल में, जल में, 'रत्नम्' नभ में, अमर तिरंगा ही लहराता॥ 

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