सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय'- जीवन परिचय, कृतियाँ, भाषा शैली

स्मरणीय संकेत
जन्म– सन्‌ 1911 ई०
मृत्यु– सन्‌ 1987 ई०
पिता– हीरानन्द।
जन्म स्थान– कश्मीर
काव्यगत विशेषताएँ– हिन्दी में प्रयोगवादी काव्यधारा के प्रवर्तक, व्यक्तिगत भावनाओं की अभिव्यक्ति।
भाषा– अतुकान्त छन्‍दों में काव्य रचना, प्रसंगानुसारिणी भाषा।
शैली– शब्द प्रयोग में बड़ी सावधानी, अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में भाषा गम्भीर, सरल विषय के वर्णन में भाषा सरल हो जाती है।
रचनाएँ– आँगन के पार द्वार, अरी ओ करुणा, प्रभामय, हरी घास पर क्षण भर, इन्द्रधनु रौंदे हुए थे आदि

प्रश्न– सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनको कृतियों का उल्लेख कीजिए।

sachchidanand hiranand vatsyayan agyey ka jivan parichay

जीवन परिचय– श्री सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' का जन्म सं० 1967 वि० (सन्‌ 1911 ई०) में कश्मीर प्रदेश में हुआ था। इनका बचपन अपने विद्वान पिता के साथ कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता। आपकी शिक्षा लाहौर और मद्रास में हुईं। बी०एस०सी० परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद एम०ए० (अंग्रेजी) में प्रविष्ट हुए किन्तु देशप्रेम की प्रेरणा से राजनैतिक आन्दोलन में सम्मिलित हो गये। परिणामस्वरूप पढ़ाई छूट गयी और सन्‌ 1930 ई० में गिरफ्तार हो गये। चार वर्ष जेल में और दो वर्ष नजरबन्द रहना पड़ा। तत्पश्चात्‌ आपने किसान आन्दोलन में भाग लिया और 'सैनिक', 'विशाल भारत', 'प्रतीक' और अंग्रेजी त्रैमासिक 'बात' पत्रों का सम्पादन किया। कुछ वर्ष 'आकाशवाणी' में भी कार्य किया।

सन्‌ 1946 से 1949 तक देशसेवा में लगे रहे। इसके पश्चात साप्ताहिक 'दिनमान' पत्रिका का किया और कुछ समय “नया-प्रतीक” नामक पत्र का भी सम्पादन कार्य किया। अज्ञेय जी ने अनेक देशों की यात्राएँ भी की है। 4 अप्रैल सन्‌ 1987 ई० को इनका स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक कृतियाँ– 

आँगन के पार द्वार, अरी ओ करुणा, प्रभामय, हरी घास पर क्षण भर, इन्द्रधनु रौदे हुए थे, कितनी नावों में कितनी बार, बावरा अहेरी, इत्यलम्‌, चिन्ता, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, भग्नावदात, सागर मुद्रा आदि।

इनके अतिरिक्त आपने कहानी, उपन्यास, निबन्ध, समीक्षा, भ्रमण वृत्तान्त तथा नाटक आदि विविध गद्य विधाओं में अपने मौलिक व्यक्तित्व को प्रकट किया है।

प्रश्न– 'अज्ञेय' की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

'अजेय' जी का हिन्दी साहित्य जगत में आगमन उस समय हुआ जब हिन्दी, साहित्य मे एक क्रान्तिकारी आन्दोलन आरम्भ हो रहा था। हिन्दी में छायावादी कविताओं का युग समाप्त होने जा रहा था। इन्होंने प्रगतिवादी कविता को एक नया रूप दिया जो साहित्य जगत में प्रयोगवाद नाम से प्रसिद्ध हुआ। तात्पर्य यह है कि हिन्दी में प्रयोगवादी कविताओं के प्रवर्तक अज्ञेय जी हैं।

भावपक्ष–

अज्ञेय जी ने 'तारसप्तक' नाम से सात प्रयोगवादी कविताओं का एक काव्य संकलन प्रकाशित किया। 'तारसप्तक' की भूमिका ही प्रयोगवादी आन्दोलन का घोषणा पत्र सिद्ध हुई। अज्ञेय ने अपने काव्य में भाव जगत के उन नवीनतम रूपों का प्रकाशन किया जिनको अभी तक किसी ने छुआ भी नहीं था। उन्होंने पुरानी घिसी-पिटी राजनीति, सुधार और क्रान्ति के नारों को छोड़कर मानव हृदय की धड़कनों को बोलचाल की भाषा और वार्तलाप एवं स्वगत शैली में मुखरित किया। इनकी कविता में जीवन की गहरी अनुभूति, कल्पना की ऊँची उड़ान और भावों को जगाने वाली संकेतमयी व्यंजना शक्ति है। अज्ञेय ने काव्य में एक ऐसी नवीन धारा का प्रवर्तन किया जो छायावाद की लाक्षणिकता और आलंकारिकता से सर्वथा मुक्त है। उनकी निजी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति ही प्रयोगवादी कविता के रूप में प्रकट हुई, जो विवाद का विषय होते हुए भी काव्यक्षेत्र में स्थान पा चुकी है।

रहस्यानुभूति– 'अज्ञेय' जी के काव्य में रहस्यानुभूतियों का प्राधान्य है। जागतिक वस्तुएँ– सागर, हरे भरे खेत, हरी-भरी घाटियाँ तथा मानवीय मुस्कान, प्रेम, श्रद्धा आदि सभी कवि की दृष्टि में उस विराट सत्ता की देन हैं। कवि उस विराट सत्ता से तादात्म्य स्थापित करते हुए वर्णन करता है–

“मैं सोते के साथ बहता हूँ
पक्षी के साथ गाता हूँ
वृक्षों के कोपलों के साथ थरथराता हूँ
और उसी अदृश्य क्रम में, भीतर ही भीतर
झरे पत्तों के साथ गलता और जीर्ण होता रहता हूँ
नये प्राण पाता हूँ। "

प्रेम निरूपण– 'अज्ञेय' के काव्य में प्रेमानुभूतियाँ अभिव्यक्त हुई हैं। प्रणय की तीव्रानुभूति निम्नलिखित पंक्तियों में देखी जा सकती है–

“और सब समय पराया है
बस उतना क्षण अपना
तुम्हारी पलकों का कँपना।"

प्रकृति चित्रण– प्रकृति के पारखी के रूप में 'अज्ञेय' प्रसिद्ध हैं। उन्होने प्रकृति के मनोरम चित्र अंकित कर अपने काव्य को रमणीयता से भर दिया है। मानवीकरण, रहस्यात्मकता, उद्दीपक, आलम्बन आदि प्रकृति के भयंकर पक्ष का चित्रण देखिए–

“हाँ, मुझे स्मरण है;
दूर पहाड़ियों से काले मेघों की बाढ़
हथियों का मानो चिंघाड़ रहा हो यूथ
घरघराहट चढ़ती बहिया की।”

व्यक्तिगत भावनाओं की अभिव्यक्ति– वास्तव में 'अज्ञेय' जी से अपनी कविताओं में मानव स्वभाव, प्राकृतिक सौन्दर्य और परम्परागत शैली का सर्वथा परित्याग कर अपने निजी हृदय की अनुभूतियों को साकार किया है। वे समष्टि का महत्व स्वीकार करते हैं किन्तु व्यक्ति का महत्व भी का कम नहीं मानते। उनके विचार से समष्टि (समाज) के विकास के लिए का विकास आवश्यक है। व्यक्ति का विकास होने पर समष्टि का विकास स्वयं हो जायेगा। इसलिए व्यक्तिगत भावनाओं एवं अनुभूतियों को काव्य के माध्यम से अभिव्यक्त कर देने में ही ये अपने कवि-कर्म की पूर्ति मानते हैं।

'अज्ञेय' जी की यह सदैव मान्यता रही है कि केवल बाहरी आवश्यकताओं की पूर्ति से ही मनुष्य का काम चल पाना सम्भव नहीं है। उसके लिए मानसिक विकास भी उतना ही आवश्यक है जितनी बाहरी समृद्धि। भौतिक सुख समृद्धि के होते हुए भी यदि मनुष्य का मानसिक विकास एवं सुधार न हुआ तो वह अपने तथा समाज के लिए बोझ ही बना रहता है। इसलिए वे अपने काव्य में व्यक्ति के विकास को ही महत्वपूर्ण मानकर चले हैं। “मैने आहुति बनकर देखा है” शीर्षक कविता में 'अज्ञेय' की निजी अनुभूति दर्शनीय है–

“वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव रस का कटु प्याला है
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहनकारी हाला है,
मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया
मैंने आहुति बनकर देखा, यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है।”

कलापक्ष–

भाषा शैली– 'अज्ञेय' जी ने अतुकान्त छन्दों में काव्य रचना की है। शब्द प्रयोग में वे बड़ी सावधानी से काम लेते हैं। 'अज्ञेय' जी द्वारा प्रयुक्त शब्द उनके हृदय की गहराई को खोलने में पूर्ण रूप से समर्थ है। मानव की चरम वैज्ञानिक उन्नति के प्रतीक परमाणु बम के प्रति उनकी मानसिक अनुभूति कितनी मार्मिक और स्पष्ट है–

"मानव का रचा हुआ सूरज
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है।"

“अज्ञेय” जी की भाषा प्रसंगानुसारिणी है। भावों की गम्भीरता के साथ भाषा भी गम्भीर हो जाती है। जहाँ वे अपनी गम्भीर अनुभूतियों को व्यक्त करते हैं, वहाँ भाषा इतनी गम्भीर हो जाती है कि वह सर्वसाधारण की बुद्धि का विषय नहीं रह जाती; सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत बुद्धि का पाठक ही उनके भाषा को ग्रहण कर सकता है।

छन्द विधान– 'अज्ञेय' जी ने मुक्त छन्दों में काव्य रचना की है। वे गद्यात्मक काव्य लिखने में सिद्धहस्त थे। विम्ब एवं प्रतीकों के माध्यम से मुक्त काव्य-रचना में वे सफल हुए हैं।

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