सबै दिन होत न एक समान सूक्ति पर निबंध

सबै दिन होत न एक समान सूक्ति पर निबंध

संकेत बिंदु- (1) परिवर्तन ही जीवन (2) जीवन में उतार-चढ़ाव (3) इतिहास का एक अन्य प्रसंग (4) प्रकृति परिवर्तन का दूसरा रूप (5) उपसंहार। 

गुण, मूल्य, महत्त्व, आकार, प्रकार, रूप, मात्रा, विस्तार तथा संक्षेपण की दृष्टि से जीवन में सब दिन एक-ही जैसे नहीं रहते। मानव हो या पशु, प्रकृति हो या सृष्टि, चल हो या अचल, सब पर यह उक्ति चरितार्थ होती है। कारण, परिवर्तन ही जीवन है और समय परिवर्तनशील है। श्रीधर पाठक 'भारत-गीत' में लिखते हैं-

परिवर्तन है प्राण प्रकृति के अविचल क्रम का।
परिवर्तन क्रम ज्ञान मर्म है, निगमागम का।
परिवर्तन है हार सृष्टि के सौन्दर्यों का।
परिवर्तन है बीज विश्व के आश्चर्यों का।। 

जीवन में समय की गति तीव्र है। इस तीव्र गति से दौड़ते समय के चक्र की जो भी चपेट में आया, वह बदल गया। आशा निराशा में, सफलता असफलता में, जय पराजय में, उत्थान पतन में, सुख दुःख में, मिलन वियोग में, राग द्वेष में, प्रेम घृणा में, त्याग भोग में, तृष्णा वितृष्णा में बदल गई। परिणामतः जीवन की स्थिति बदल गई, गुण और मूल्य बदल गए। यशस्वी पुरुष के लिए उसका यश विद्रूप बन गया। अर्थवान् के लिए अर्थ अनर्थ हो गया। अहिंसावादी मनुष्य के लिए अहिंसा हास्यास्पद बन गई। राजा रंक बन गया और दीन मंत्री बन बैठा, प्रांत या राष्ट्र का भाग्यविधाता बन बैठा।

हम अपने जीवन में झाँक कर देखें तो अपने जीवन के उतार-चढ़ाव, आनन्द और शोक, अवनति-उन्नति, शान्ति-कलह इस बात को प्रमाणित करेंगे कि जीवन में सब दिन एक समान नहीं होते। दैनिक जीवन में भी इसका अनुभव कर सकते हैं- घर में खीर बनी है, सब चाट-चाट कर खा रहे हैं, कल सब्जी में नमक ज्यादा था, इसलिए सब बड़बड़ा रहे थे। कल दफ्तर की बस बीच रास्ते में ऐसी ख़राब हुई कि तबीयत नासाद हो गई और आज जब घर लौटे तो घर में महाभारत मचा था।

भारत में कल तक जमींदारों और राजाओं, नवाबों का राज्य था। जमींदारी उन्मूलन में जमींदारी खत्म हुई। राजाओं-नवाबों की सल्तनतें खत्म हुईं, प्रीवी पर्स खत्म हुए। राजशाही इतिहास के पन्नों की कथा बनकर रह गई।

प्रभु राम का जीवन भी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। कहाँ राजसी वैभव और कहाँ बनवास के चौदह वर्षों का कष्टकर जीवन। ऊपर से सीता-हरण का दारुण दुःख। रावण से युद्ध की पर्वत-सम समस्या। सीता-मिलन से पूर्व सीता की अग्नि-परीक्षा राम राजा बने, सीता गर्भवती हुई, पर हुआ गर्भवती सीता का त्याग। इसे 'राम की लीला' कहें या 'सब दिन होत न एक समान' का श्रीराम के जीवन पर प्रभाव।

इतिहास का एक अन्य प्रसंग है। भारत की सशक्त प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी का जीवन 'सबै दिन होत न एक समान' का जीवंत उदाहरण है। इलाहाबाद हाई कोर्ट का निर्णय, आपत्-काल की घोषणा, निर्वाचन में हार, मुकदमें और आरोप, पुनः प्रधानमंत्री बनना। देश की समस्याओं से जूझना। सैंकड़ों सुरक्षाकर्मियों से घिरी सुरक्षित इन्दिरा जी। और अन्त में बाड़ ही खेत को खा गई- उनके दो सुरक्षाकर्मियों ने ही उनकी हत्या कर दी। है न 'सबै दिन होत न एक समान' का सटीक उदाहरण। पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहराव को ही लीजिए। कभी उनकी तूती बोलती थी, और अब मुकदमों के चक्कर में उनके तोते बोलते हैं। सबै दिन होत न एक समान का सटीक उदाहरण देते हुए कविवर नरोत्तमदास श्री कृष्ण से मिलने के पश्चात् सुदामा के जीवन में हुए परिवर्तन का उल्लेख करते हुए लिखते हैं- 

कै वह टूटी-सी छानी हुती कहँ। कंचन के सब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हुतीं कहूँ। लै गजराजहु ठाडे महावत।।
 भूमि कठोर पै रात कटै कहँ। कोमल सेज पै नींद न आवत॥
कै जुरतो नहिं कोदौं सवा, प्रभु के परताप ते दाख न भावत।।

(सुदामाचरित पद कं. 119) 

प्रकृति हर दूसरे महीने अपना वेश बदलकर 'सबै दिन होत न एक समान' को चरितार्थ करती है। वासन्ती परिधान में पृथ्वी इठलाती है, तो गर्मी में सूर्य की तेज किरणों से धरा तप्त होती है। मेघावली के जल के सिंचन से हरियाली छाती है, तो शीत का हृदय कम्पाने वाला वेग और हिम पूरित वायु का सन्नाटा तन-मन को झकझोर देता है।

प्रकृति-परिवर्तन का दूसरा रूप 'सबै दिन तो क्या पहर-पहर होत न एक समान' का साक्षी है। प्रभात बेला का बाल-अरुणोदय, दोपहर में अंशुमाली का दृप्ततेज, सायंकाल थके सूर्य की जल समाधि और मधुरात्रि में तारागणों की जगमगाहट देखकर जीवन के परिवर्तन को कौन झुठला सकता है ?

सृष्टि परिवर्तन का अनोखा रूप देखिए। जहाँ कभी बीहड़ जंगल थे, वहाँ आज भव्य नगर हैं। जहाँ कहीं मेघ बरसने से भी डरते थे, वहाँ महाबाँधों ने पृथ्वी को सस्यश्यामला कर रखा है। और जहाँ कहीं देवदारु के पेड़ आकाश को छूते थे, वहाँ अब जंगल में मंगल है। जहाँ गहन अन्धकार रहता था, वहाँ अब विद्युत् प्रकाश की चकाचौंध है।

राजनीति में तो यह सूक्ति पूर्णत: चरितार्थ होती रहती है। ''आयाराम-गयाराम' पार्टी बदल की संज्ञा बनी। जिस भारतीय जनता पार्टी को विपक्ष साम्प्रदायिकता की गाली देते थकता नहीं था, आज अधिकांश वही विपक्ष भाजपा में सत्ता का साझीदार है। वेदव्यास जी ने महाभारत में सच ही कहा है, 'अरिश्च मित्रं भवति मित्रं चापि प्रदुष्यति।' (शांतिपर्व 80/8) अर्थात् शत्रु भी मित्र बन जाता है और मित्र भी बिगड़ जाता है।

परिवर्तन जीवन और प्रकृति का शाश्वत नियम है, सृष्टि को अपनी प्रकृति है। जब परिवर्तन-क्रिया होती है तो जीवन प्रभावित होता है। जीवन की एकरसता, एकरूपता में बदल जाती है। यह बदल ही 'सबै दिन होत न एक समान' की वास्तविकता है। 

सदा न फूले तोरई, सदा न सावन होय।
सदा न जीवन थिर रहे, सदा न जीवै कोय॥

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