निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय सूक्ति पर निबंध

निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय सूक्ति पर निबंध

निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय सूक्ति पर निबंध

संकेत बिंदु– (1) ईर्ष्या मानव का प्राकृतिक गुण (2) हरिशंकर परसाई द्वारा निन्दकों की श्रेणियाँ (3) निंदा से अंह को चोट (4) निंदा दोषों की निवृति में सहायक (5) निन्दक का जीवन में महत्त्व।

पर-दोषों की चर्चा करना निन्दा है। किसी व्यक्ति या वस्तु के दोष-कथन को निंदा कहा जाता है। वायु पुराण (59/101) के अनुसार केवल दोष प्रदर्शनपूर्वक दूसरे के वाक्यों की भर्त्सना करना अथवा स्पष्ट शब्दों में निन्दा करना निंदा कहलाता है। परनिंदा करने वाला निन्दक कहलाता है।

ईर्ष्या मानव का प्राकृतिक गुण

ईर्ष्या मानव का एक प्राकृतिक गुण है। अत: वह दूसरों के उत्कर्ष को देखकर जलता है। अपने अंदर हीनता और कमजोरी महसूस करता है। वह अपनी हीनता और कमजोरी को पर-निन्दा द्वारा दूर करता है। दूसरों की निन्दा कर वह ऐसा महसूस करता है कि वे सब निकृष्ट हैं और वह उनसे अच्छा है। शेक्सपीयर की तो यह धारण है कि, “Be thou as chaste as ice, as pure as snow, thou shalt not escape calumny.” (हेमलेट, 3/1) तुम बर्फ के समान विशुद्ध रहो और हिम के समान पवित्र तो भी लोक-निन्दा से नहीं बच सकते।

हरिशंकर परसाई द्वारा निन्दकों की श्रेणियाँ

हिन्दी के सुप्रसिद्ध व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई ने निन्दकों की तीन श्रेणियाँ मानी–

(क) निर्दोष मिथ्यावादी निन्दक– ये स्वभाव तथा प्रकृति के वशीभूत झूठ बोलते हैं। इनके मुख से सहज रूप में, बिना किसी प्रयोजन के झूठ ही निकलता है। इनके पास दूसरों के दोषों का कैटलॉग होता है।

(ख) मिशनरी निन्दक– बिना किसी राग-द्वेष के अहर्निश पवित्र भाव से परनिन्दा में लीन रहने वाले मिशनरी निन्दक होते हैं। निन्दा इनके लिए 'टॉनिक' है। प्रसंग आने पर वे अपने बाप की पगड़ी भी उसी आनन्द से उछालते हैं, जिस आनन्द से अन्य लोग दुश्मन की।

(ग) ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निन्दक– इस प्रकार के निन्दक अपनी हीनता और कमजोरी को छिपाने तथा अहम् की तुष्टि के लिए दूसरों की निन्दा करते हैं। ये लोग अहर्निश जलते रहते हैं। अपनी अक्षमता से पीड़ित ये बेचारे दूसरे की क्षमता को कोसते रहते हैं।

निंदा से अंह को चोट

व्यक्ति अपनी निन्दा सुन नहीं पाता, कारण निन्दा से उसके अहं को ठेस लगती है। मन दुःखी होता है, अत: वह निंदक से बचता है, उससे दूर रहने की चेष्टा करता है। स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती इस प्रवृत्ति के विपरीत कहते हैं, “अगर कोई तुम्हारी निन्दा करे तो तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए, क्योंकि निन्दा करके वह तुम्हारा हाथ अपने ऊपर ले रहा है।” परसाई जी निन्दक से मिलने में कोई बुराई नहीं समझते, पर वे चेतावनी भी देते हैं, “छल का धृतराष्ट्र जब आलिंगन करे तो पुतला आगे बढ़ाना चाहिए।” शेक्सपीयर भी चेतावनी भरे शब्दों में कहता है, “Take each man's censure, but reserve the Judgment.” अर्थात् प्रत्येक की निन्दा सुन लो, परन्तु अपना निर्णय व्यक्त न करो। तुलसीदास जी निन्दक को क्षमा का पात्र मानते हैं।

मानपुरी महाराज तो निन्दक के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कहते हैं–

निन्दक दुर्जन की बलिहारी।
आगे पीछे देवे गारी, निर्मल काया होय हमारी॥

सन्त कबीर दास का संत-हृदय तो इससे भी बढ़कर कहता है–

निन्दक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय॥

वस्तुतः मानव दोष-पूर्ण अस्थि पुंज है। दोषों से मुक्ति चित्त-शुद्धि का माध्यम जगत् में प्रायः मानव अपने दोष नहीं देख पाता। अन्तर्मन में झाँकने और कर्तव्य पुनर्विचार करने, ऊँच-नीच का चिन्तन करने का आज के व्यस्त जीवन में मानव के अवकाश ही कहाँ है ? फिर दोषों की निवृत्ति कैसे हो? इसकी पूर्ति करता है निन्दक है।

निंदा दोषों की निवृति में सहायक

जिस प्रकार माली बगीचे से झाड़-फूस निकालकर पेड़-पौधों को पनपने का सुअवसर देता है, उसी प्रकार निन्दक पर-दोषों की चर्चा करके, उस व्यक्ति विशेष के दोषों का भान उसे करा देता है। जैसे घोड़ा चाबुक लगने पर एक बार सहमता है, उसी प्रकार मानवमन आरोपित दोषों पर एक बार चिन्तन करने पर विवश होता है। वह हृदय-मंथन करता है। चित्त-शुद्धि का एक स्वर्ण अवसर उसको प्राप्त होता है।

अत: कबीरदास जी ने ऐसे शुभेच्छु व्यक्तियों को अपने समीप ही रखने की सलाह दी है, ताकि पानी और साबुन के बिना वह आपके स्वभाव को निर्मल कर दे। किन्तु प्रायः होता यह है कि हम अपने दोषों को सुनकर क्रोधित हो जाते हैं और निन्दक की अपशब्दों या निन्दनीय शब्दों से भर्त्सना कर डालते हैं। कारण, मानव की यह दुर्बलता है कि वह अपनी बुराई सुन ही नहीं सकता। वस्तुतः यह भयंकर स्थिति है। अपनी निन्दा सुनकर अपनी मन:स्थिति विचलित कर लेना मानवता का लक्षण नहीं। इसलिए तो महर्षि वेदव्यास ने महाभारत के आदि पर्व में लिखा है, “जो मनुष्य अपनी निन्दा सह लेता है, उसने मानो सारे जगत् पर विजय प्राप्त कर ली।”

निन्दक का जीवन में महत्त्व

अध्ययन की कमी का ज्ञान अध्यापक करा सकता है, शरीर के रोग का भान डॉक्टर या वैद्य करा सकता है, मशीन की खराबी का कारण मैकेनिक बता सकता है, पेड़-पौधों के विकास रुकने का कारण माली बता सकता है, परन्तु मानव के स्वभाव की कमियों का दिग्दर्शन कौन कराए? सन्त-महापुरुष सामाजिक और समूह रूप में मानव के सत्पथ की चर्चा करते हैं, धार्मिक ग्रंथ और सांस्कृतिक पुस्तकें भी मानव-कल्याण का सामूहिक चिन्तन करती हैं, तब व्यक्ति-विशेष के दोषों की शिल्य-क्रिया कौन करे? निन्दक इस भार को वहन करता है। निन्दक इस कार्य को पुण्यकर्म समझ कर बिना पारिश्रमिक लिए पूर्ण करता है। वह मेरी-तेरी, उसकी निन्दा कर मेरे-तेरे, उसके अवगुणों की शल्य-क्रिया करता है। अत: जीवन में जो महत्त्व अध्यापक, गुरु, डॉक्टर या वैद्य का है, वही महत्त्व निन्दक का है। अतः उसे समीप रखने में ही जीवन की सार्थकता है।

निन्दा की मानवीय प्रवृत्ति से अपने जीवन को कलुषित होने से बचाने का सहज और सुलभ उपाय है कि निन्दक को समीप रखो, ताकि वह आपके स्वभाव की कमियों को आप पर बार-बार प्रकट करता रहे और आप इसके लिए उसका धन्यवाद करते हुए अपने स्वभाव में क्रमशः परिवर्तन कर सको, अपने दोषों को त्याग सको।

समीप रहने वाला मानव अपने पड़ोसी की निन्दा करने से घबराता भी है। कारण, पड़ोसीपन के दैनन्दिन व्यवहार के कारण जो प्रेम उत्पन्न होता है, उससे उसमें बुराई भी अच्छाई लगने लगती है। बुराई और अच्छाई को परखने का कोई निश्चित मापदंड तो है नहीं! वह तो मानव का अपना सोचने का दृष्टिकोण ही है। इस प्रकार निन्दक को समीप रखकर हम उसका हृदय-परिवर्तन भी कर सकते हैं। इससे बढ़कर मानव-सेवा और क्या हो सकती है?

निंदक दूरी न कीजिए, दीजे आदर मान।
निरमल तन-मन सब करै, बकि बकि आनहिं आन। –कबीर

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