नर हो, न निराश करो मन को सूक्ति पर निबंध

नर हो, न निराश करो मन को सूक्ति पर निबंध

Nar ho na nirash kro man ko sakti par nibandh

संकेत बिंदु– (1) सूक्ति का अर्थ (2) निराशा का अर्थ जीवन से प्रसन्नता (3) निराशा पतन का कारण (4) आशा की अराधना निष्फल नहीं होती (5) मन हार गया तो पराजय संभव।

सूक्ति का अर्थ

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की कविता ‘कुछ काम करो’ की यह शीर्ष पंक्ति है– ‘नर हो, न निराश करो मन को।’ गुप्त जी मनुष्यों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे मानव! तुम इस जग को स्वप्न अर्थात् अस्तित्वहीन न समझो। प्रभु ने तुम्हें दो हाथों का दान इसलिए दिया है कि तुम वांछित वस्तु को प्राप्त कर सको। परिश्रम से अपने योग्य गौरव को प्राप्त कर सको, सुख भोग सको। जगदीश्वर के जन होने के नाते तुम्हारे लिए दुर्लभ कुछ नहीं है। अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करो। इसके लिए उपलब्ध साधनों का प्रयोग करो। निज गौरव का ज्ञान रखते हुए, स्वाभिमान का ध्यान रखते हुए तथा मान को रखते हुए काम करो। सुअवसर को हाथ से न जाने दो। उठो! मन में निराशा को स्थान न देते हुए कुछ काम करो। काम करने में ही जन्म की सार्थकता और यशस्विता है।

शक्ति के संचित कोश का नाम नर है तो निराशा निर्बलता का चिह्न है। यह परस्पर विरोध किसलिए? नर और निराशा का 6-3 का सम्बन्ध क्यों? यह तो नर के लिए लज्जा की बात है, जीवन से हार मान लेने की कुंठा है। कुंठा का उत्पत्ति स्थान है मन। मन क्या है ? प्राणियों के अन्त:करण का वह अंश, जिससे वे अनुभव, इच्छा-बोध, विचार और संकल्प-विकल्प करते हैं, मन है। मन उन शक्तियों का मूल है जिसके द्वारा हम सब काम करते हैं, सब बातें जानते हैं, याद रखते हैं, सोचते-समझते हैं। मनन मन का धर्म है। मनन करने से तो मनुष्य 'मनुष्य' है, (मननात् मनुष्यः) अन्यथा मनुष्य नाम की सार्थकता ही कहाँ है?

निराशा का अर्थ जीवन से अप्रसन्नता

ऐसी महत्त्वपूर्ण शक्ति को अर्थात् मन को निराश करने का अर्थ है जीवन से प्रसन्नता का लुप्त होना, पग-पग पर मृत्यु ही दिखाई देना। कारण, निराशा पतनोन्मुखी प्रवृत्ति है। इसलिए मन जब निराश होता है तो दृष्टि नकारात्मक तत्त्वों से विकृत हो जाती है और व्यापक दृष्टि के अभाव में भी (वस्तुपरक न होने के कारण) केवल आत्मलीन होकर रह जाती है। ऐसी ही स्थिति में बहादुरशाह जफर रो उठे–

मेरी घुट-घुट के हसरतें मर गई।
मैं उन हसरतों का मजार हूँ।

इसलिए गुप्त जी कहते हैं कि मन में निराशा को मत आने दो। फिर नर के लिए निराशा शोभाजनक नहीं। कारण, पुरुष तो पुरुषार्थ का प्रतीक है।

निराशा पतन का कारण

निराशा पतन का कारण है और यह स्थिति आत्मविश्वास के अभाव में जाग्रत होती है। कारण, जब मनुष्य स्वयं आत्म-विश्वास खो बैठता है तो उसके पतन का सिरा खोजने पर भी नहीं मिलता। किन्तु पुरुषार्थी-मन पतित होकर भी नहीं हारता। कारण, वह जानता है कि जितनी बार उसका पतन होगा, उतनी बार उसे उठने का अवसर प्राप्त होगा। इसलिए वह आत्मविश्वास को हिलने नहीं देता। ऋषियों के शाप से नहुष स्वर्ग से च्युत हो गया, पर उसने मन में निराशा न आने दी। उसने कहा- ‘फिर भी उठूँगा और बढ़के रहूँगा मैं।’ आत्मविश्वास बढ़ाने की विधि बताते हुए डेल कारनेगी लिखते हैं, “तुम वह काम करो, जिसे तुम करते हुए डरते हो। इस प्रकार ज्यों-ज्यों तुम्हें सफलता मिलती जाएगी, तुम्हारा आत्मविश्वास बढ़ता जाएगा। इसलिए हे नर! तू मन को आशा से पूर्ण कर।”

आशा की अराधना निष्फल नहीं होती

गाँधी जी कहते हैं, 'आशा अमर है, उसकी आराधना कभी निष्फल नहीं होती।' स्वेटमार्डेन लिखते हैं, 'आशा हमारी शक्तियों को न केवल जाग्रत करती है, अपितु दुगना-तिगुना बढ़ा देती है।' गेटे कहता है, 'प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध में निराश होने की अपेक्षा आशावान् होना बेहतर है।' इसीलिए यजुर्वेद की प्रार्थना पंक्ति है, 'अस्माकं संत्वाशिष सत्याः न संत्वाशिषः।' अर्थात् हम आशावादी बनें, हमारी आशाएँ सफल हों।

मन हार गया तो पराजय संभव

हिन्दी की एक सूक्ति है, 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।' इससे भी यही शिक्षा मिलती है कि मन यदि हार गया तो पराभव होगा ही। यदि मन में विजय का संकल्प रहा तो जीत निश्चित है। इतिहास प्रसिद्ध घटनाएं इसका प्रमाण हैं– नैपोलियन की सेना ने आल्प्स-पर्वत को देखकर आगे बढ़ने से इंकार कर दिया तो वह सैनिकों को ललकारते हुए आगे बढ़ता गया। आल्प्स पर्वत नैपोलियन से पराजित हुआ। 

यही परिस्थिति महाराजा रणजीतसिंह के सम्मुख उपस्थित हुई। अटक नदी की उफनती जलधारा को देखकर सेना ठिठक गई तो महाराजा रणजीतसिंह स्वयं आगे बढ़े और अपने घोड़े को नदी में डाल दिया। अटक की धारा परास्त हुई और सेना अटक के पार पहुँच गई। माखनलाल चतुर्वेदी 'एक भारतीय आत्मा' दृढ़ संकल्प के लिए आह्वान करते हुए कहते हैं–

विश्व है असि का नहीं, संकल्प का है।
हर प्रलय का कोण, काया कल्प का है।

अतः मैथिलीशरण गुप्त ने उचित ही कहा है–

प्रभु ने तुमको कर दान किए, सब वांछित वस्तु-विधान किए।
तुम प्राप्त करो उनको न अहो, फिर है किसका यह दोष कहो?
समझो न अलभ्य किसी धन को, नर हो, न निराश करो मन को।

Next Post Previous Post