बिनु सत्संग विवेक ना होई सूक्ति पर निबंध

बिनु सत्संग विवेक न होई सूक्ति पर निबंध

संकेत बिंदु- (1) दोहे का भावार्थ (2) विवेक का आधार ज्ञान (3) ज्ञान का विकास विवेक (4) शास्त्रों का पठन, अध्ययन और मनन विवेक का द्वार (5) उपसंहार।

दोहे का भावार्थ

रामचरित मानस के बालकाण्ड के आरम्भ में गोस्वामी तुलसीदास सत्संग की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं, 'बिनु सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।' इसका भाव यह है कि सद्विचार की योग्यता, सत्य ज्ञान, विवेचन और विचारणा, विचार-विमर्श और गवेषणा, भले-बुरे की पहचान, वस्तुओं में उनके गुणानुसार भेद करने की शक्ति, दृश्यमान जगत् तथा अदृश्य आत्मा में भेद करने की शक्ति, माया या केवल बाह्य रूप से वास्तविकता को पृथक् करने की शक्ति, सत्संग के बिना प्राप्त नहीं होती।

सत्संग क्या है ? साधु-महात्मा या धर्मनिष्ठ व्यक्ति के साथ उठना-बैठना और धर्मसम्बन्धी बातों की चर्चा करना सत्संग है। उससमाज या जन-समूह की संगति करना जिसमें कथा-वार्ता या प्रभु नाम का पाठ होता है, सत्संग है । सज्जनों के साथ उठना-बैठना भी सत्संग है। तुलसी ने सत्संग का अर्थ संत-मिलन और उनके दर्शन, कथा, वार्ता आदि के श्रवण में लिया है। जैसे-उत्तर काण्ड में जब सनकादि जी भगवान् श्रीराम के दर्शनार्थ उपवन आते हैं, उस समय भगवान् कहते हैं-

आजु धन्य मै सुनहु मुनीषा। तुम्हारे दरस जाहि अघ खीसा।
बड़े भाग पाइअ सत्संगा विनहि प्रयास होय भव भंगा।।

विवेक का आधार ज्ञान

यहाँ सन्त-दर्शन मात्र को सत्संग कहा है। विवेक का आधार है ज्ञान। ज्ञान है कुछ जानने, समझने आदि की योग्यता। किसी बात या विषय के सम्बन्ध में होने वाली वह तथ्यपूर्ण, वास्तविक और संगत जानकारी जो अध्ययन, अनुभव , निरीक्षण, प्रयोग आदि के द्वारा प्राप्त होता है, ज्ञान है। आध्यात्मिक और धार्मिक क्षेत्रों में, आत्मा और परमात्मा के पारस्परिक संबंध, वास्तविक स्वरूप आदि और भौतिक संसार की अनित्यता, नश्वरता आदि से संबंध को होने वाली अनुभूति, जानकारी या परिचय जो आवागमन के बंधन से छुड़ाकर मुक्ति या मोक्ष देने वाला माना गया है, ज्ञान है। ज्ञान प्राप्त करने और निश्चय विचार आदि करने की शक्ति है बुद्धि। सारांशतः बुद्धि के द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान से विवेक उत्पन्न होता है।

ज्ञान का विकास विवेक

आयु बढ़ने से, यश फैलने से, बार-बार प्रश्नों को पूछने से, गुरु और विद्वज्जनों के सान्निध्य से, चिंतन-मनन करने से, बुद्धिमान् लोगों से संलाप करने से, मन में प्रेम-भाव बढ़ाने से, अनुकूल स्थान में वास करने से, पढ़ने-लिखने तथा भ्रमण करने से बुद्धि उसी प्रकार विकसित होती है, जिस प्रकार सूर्य की किरणों से कमलों का समूह।

विकसित बुद्धि से जब मनुष्य अध्ययन, अनुभव, निरीक्षण और प्रयोग के द्वारा तथ्यपूर्ण, वास्तविक और संगत जानकारी के लिए चिंतन-मनन करता है तो उसका-ज्ञान व्यापकत्व की ओर बढ़ता है। धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में शास्त्रों का अध्ययन, मनन तथा चिंतन, उपासना-साधना तथा सत्संगति ज्ञान का वर्धन करती है। ज्ञान का विकास ही विवेक है।

इसलिए तुलसी जी का यह कहना 'बिनु सत्संग विवेक न होई' विवेक-विकास की दृष्टि से एकांगी है। दूसरी ओर, जब वे दर्शन-मात्र की सत्संगति से विवेक जागृत होता है, बताते हैं तो बात गले नहीं उतरती। कारण, परम श्रद्धेय शंकराचार्यों, महामंडलेश्वरों तथा ज्ञानी संतों के दर्शन लाखों हिन्दू करते हैं, पर वे तो विवेकी नहीं हो पाते। हाँ, जब वे सत्संग का अर्थ संतों का साथ मानते हैं तथा उनके साथ रहकर हरिकथा श्रवण करते हैं, तो निश्चय ही उनमें विवेक की जागृति होती है। इसी प्रकार संत-समागम के ज्ञान से विवेक के कपाट भी खुलते हैं। महर्षि नारद की संगति से रत्नाकर का विवेक जागृत होना और गौतम बुद्ध के संग से अंगुलिमाल में विवेक जागृत होना इसके प्रमाण हैं।

शास्त्रों का पठन, अध्ययन और मनन विवेक का द्वार

धार्मिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में शास्त्रों का पठन, अध्ययन, चिंतन और मनन भी विवेक के द्वार खोलता है। उसकी ओर तुलसी ने संकेत तक नहीं किया। तुलसी शब्दसागर (कोश) में सत्-संगति के लिए अच्छी संगति तथा अच्छों का संग अर्थ दिए हैं। उदाहरण रूप में मानस की यह चौपाई उद्धृत की गई है- 'सत संगति संसृति कर अंता।' अच्छी संगति में शास्त्रों की संगति भी आ जाती है।

धर्म तो जीवन का एक पुरुषार्थ है। शेष रहते हैं- अर्थ, काम, और मोक्ष। क्या सत्संग का इन क्षेत्रों में विवेक जागृत करने की शक्ति है ? इसका उत्तर देते हुए महर्षि वेद व्यास जी लिखते हैं-

तुलयाम लवेनापि, न स्वर्ग नापुनर्भवम्।
भगवत्संगि संगस्य, मर्त्यनाम किमुताशिषः॥

यदि भगवान् में आसक्त रहने वाले लोगों का क्षणभर भी संग प्राप्त हो, तो उससे स्वर्ग और मोक्ष तक की तुलना ही नहीं कर सकते, फिर अन्य अभिलषित पदार्थों की तो बात ही क्या?' क्षण भर के संग से अभिलषित पदार्थों की प्राप्ति मात्र अंधविश्वास है। कारण, तर्क से यह असिद्ध है। भवभूति उत्तर-रामचरित में कहते हैं, 'सत्संगजानि निधनान्यपि तारयन्ति' अर्थात् सत्संग से उत्पन्न मरण भी मनुष्य का उद्धार कर सकता है। इसमें भी मोक्ष पुरुषार्थ के विवेक चक्षु खुलते हैं। फिर भी रह जाते हैं- अर्थ और काम। जब मनुष्य सत्संग से धर्म और मोक्ष के प्रति विवेक जागृत होता है तो अर्थ और काम तो मोक्ष प्राप्ति के दूसरे तीसरे सोपान हैं। इनके प्रति विवेक स्वतः उद्भूत होता है।

उपसंहार

'बिनु, सत्संग विवेक न होई' के 'सत्संग' का व्यापक अर्थ लें तो इसकी सत्यता में संदेह नहीं रहता, किन्तु जब विवेक उत्पन्न होने के व्यापक कारणों में जाते हैं तो लगता है भक्तेतर-जनों पर इसकी पुष्ट नहीं हो पाती।

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