कर्म फले तो सब फले पर निबन्ध | Karm fale to sab fake par nibandh

कर्म फले तो सब फले पर निबन्ध | Karm fale to sab fake par nibandh

Karm fale to sab fake par nibandh

संकेत बिंदु– (1) सूक्ति का भावार्थ (2) कर्म का फल अवश्य मिलता है। (3) पाप और पुण्य कर्म बीज के प्रकार (4) महापुरुषों के कर्म फल का विश्व को लाभ (5) उपसंहार।

सूक्ति का भावार्थ

‘कर्म फले तो सब फले’ सूक्‍ति का भाव है– किसी काम या बात का शुभ परिणाम प्रकट होगा तो उससे सम्बन्धित सभी अंग, अंश, लाभान्वित होंगे। यदि हमारे कर्म उपयोगी और लाभदायक सिद्ध होंगे (फले) तो उससे सभी सफल मनोरथ होंगे। हमारे कर्म सार्थक होंगे, तभी हमारी इच्छा या कामना पूर्ण होगी। धार्मिक कृत्यों का अनुष्ठान (कर्मकाण्ड) यदि शुभ होगा तो उससे जीवन फलेगा, फूलेगा। पूर्वजन्म के लिए कर्मों का फल (कर्म) जब शुभ फल देगा तो शरीर और आत्मा सम्पूर्ण रूप में लाभान्वित होंगे। धंधा अर्थात्‌ व्यवसाय (कर्म) जब उन्नति करेगा तो उसके लाभ से सम्पूर्ण भागीदार (जन) अपना विकास करेंगे।

कर्म का फल अवश्य मिलता है।

कर्म का फल अवश्य मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास इसका समर्थन करते हुए लिख हैं, ‘करई जो करम पाव फल सोई।’ वेदव्यास जी की धारणा है, “कृतं फलति सर्वत्र नाकृतं भुज्यते क्वचित्‌।” (सर्वत्र कर्म ही फल देता है, बिना किए कर्म का फल नहीं भोगा जाता।) अध्यात्मोपनिषद्‌ इसका समर्थन करते हुए कहता है, ‘ज्ञान का उदय होने पर भी प्रारब्ध कर्म अपना फल बिना दिए नष्ट नहीं होता है, जैसे लक्ष्य को उद्दिष्ट कर छोड़ा गया बाण अपना फल बिना दिए नहीं रहता।’

एक व्यक्ति चौर्य कर्म करता है, उसका फल उसे अवश्य मिलता है। पकड़े जाने पर पिटाई और कारावास, न पकड़े गये तो चुराई सम्पत्ति का स्वामित्व। विद्यार्थी विद्यालय जाता है। वह पाठ पढ़ता है, अध्ययन करता है। उसका फल उसे मिलता है– ज्ञानवर्धन। यदि वह पढ़ने से जी चुराता है तो उसके फलस्वरूप उसे मिलती है- मूर्खता। शिवाजी ने औरंगजेब की जेल से भागने का कर्म किया, फल रूप में मिली स्वतंत्रता। बहादुरशाह जफर ने पलायन में निष्क्रियता दिखाई तो फल मिला कारावास और दैन्य जीवन। इसलिए शेक्सपियर का कहना है, किए हुए कर्म को मिटाया नहीं जा सकता। (What is done can not be undone.) श्री हर्ष तो यहाँ तक कहते हैं, 'कर्म क; स्वकृतमत्र न भुंक्ते।' अर्थात्‌ इस जगत्‌ में कौन अपने कर्म का फल नहीं भोगता है ?

कर्म का फल निश्चित रूप से मिलता है, किन्तु वह फलेगा, शुभ फल देगा, कर्ता के लिए लाभदायक होगा ? उससे उसके मनोरथ सफल होंगे, यह निश्चित नहीं। जब वह फलेगा नहीं 'तो सब फले' की स्थिति आएगी नहीं। 'फल' का सिद्धान्त है, ‘यथा बीज तथा निष्पति:’ जैसा बीज बैसा फल। जैसा किया हुआ कर्म, वैसा ही उसका भोग जयशंकर प्रसाद जी 'कामायनी' में स्वीकारते हैं, “कर्म का भोग, भोग का कर्म।” तुलसी ने प्रकारान्तर से यह कहा है–

कठिन करम गति जान विधाता।
सो शुभ-अशुभ सकल फल दाता। 

रहीम तो प्रश्न कर उठे– 'बोवे पेड़ बबूल का, आम कहाँ ते खाए।'

पाप और पुण्य कर्म बीज के प्रकार

कर्म बीज दो प्रकार के हैं– पाप और पुण्य। जिस कार्य में निज आत्मा, समाज, राष्ट्र तथा मानवता का पतन हो, वह पाप है और जिन कार्यों से इन चारों का उत्थान हो, वह पुण्य है। पाप बीज में स्वार्थ होता है, अहंकार और अभिमान होता है और होता है मन में कालुष्य। इसलिए उसका फल विनाशकारी होता है, पतनकारी होता है। जबकि पुण्यबीज में मन का 'सब फलते' नहीं, पुण्य कर्म में 'सब फले' की शक्ति होतो है। इस विवेचन से यह बात स्पष्ट हुई कि पुण्य कर्म ही फलते हैं और उसके फलने से सबको लाभ पहुँचता है। सबकी मनःकामना पूरी होती है।

महापुरुषों के कर्म फल का विश्व को लाभ

भगवान्‌ बुद्ध के कर्म फले तो विश्व मानवता ने अहिंसा का प्रसाद पाकर अपने को धन्य समझा। आदि शंकराचार्य ने चार मठों की स्थापना का पुण्यकर्म किया तो हिन्दू समाज फला फूला। शिवाजी ने मदांध मुगल बादशाह औरंगजेब के विरोध का पुण्य कार्य किया तो हिन्दू पद पादशाही की स्थापना से हिन्दू समाज गौरवान्वित हुआ। लाखों वीरों ने जेल यातना के कष्ट सहकर तथा जीवन न्यौछावर करके जो पुण्य कर्म किया, उसका फल सब भारतवासियों ने स्वाधीन होकर भोगा। महर्षि दयानन्द, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद, राजा राममोहन राय ने समाज सुधार का जो पुण्य कर्म किया, उससे सम्पूर्ण हिन्दू समाज लाभान्वित हुआ। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के पुण्य कर्मों का फल हिन्दू समाज को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रूपी संगठित शक्ति वरदान रूप में मिली, जिससे हिन्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तान, तीनों फल रहे हैं।

वर्तमान काल 'कलियुग' का है। कलियुग में देवताओं में देवत्व नहीं रह गया। साधु-जन भी कपट-पटु हो गए। लोग मिथ्यावादी हो गए। मेघ असमय बरसने और कम जल देने लगे। लोग नीचों का संग पसंद करने लगे। राजा दुष्ट हृदय के हो गए। लोग नष्टभ्रष्ट हो रहे हैं, फिर भी विश्व में सब फले' की सार्थकता दिखाई देती है। विज्ञान की कृपा से भौतिक सुखों के अंबार लगे हैं। तब यह कहना कि कलियुग में पाप फलता है, पुण्य निष्फल होता जा रहा है, कहाँ तक संगत है?

उपसंहार

भौतिक-सुख विज्ञान-कर्म की प्रसादी है। इसमें मानव-हित की कामना है, इसलिए यह पुण्य-कर्म है।ऐसे जन जिनके शोषण, पीड़न, व्यभिचार, बलात्कार तथा समाज-राष्ट्रविरोधी कर्मों को हम पाप मानते हैं, उनको फलते-फूलते देखकर और उनके कारण सहस्रों-लाखों को लाभान्वित देखते हैं तो कहते हैं पाप भी फलता है। हम यह भूल जाते हैं कि अपने प्रारब्ध का फल भोगने के लिए उन्होंने यह जन्म मिला है। अपने संचित कर्म के कारणव श्रेष्ठी हैं, नेता हैं, विशिष्ट व्यक्ति हैं। उद्योगपति बनकर सहस्रों लोगों की रोजीरोटी जुटाते हैं। नेता बनकर समाज, धर्म और देश का उत्थान कर रहे हैं। क्रियमाण कर्म (जो वर्तमान में करते हैं) उसका उनको दंड मिलता ही है। इन सबसे ऊपर पाप और पुण्य का निर्णय मन की भावना करती है। जिस प्रकार वक्ष से लगाते समय पत्नी और पुत्री में भावनान्तर रहता है, उसी प्रकार इन दुष्कर्मों के पीछे भी उनके मन की चेतना है। वे शोषण, पीड़न, व्यभिचार में भी जन-कल्याण के दर्शन करते हैं, क्योंकि उद्योग या समाज का संचालन साधुता से नहीं किया जा सकता।

कर्म वह है जो फले, निष्फल न रहे। उसी कर्म के फलने में सार्थकता है, जिससे सर्वहित हो, जिसमें 'सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः' की कामना हो।

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