रामचरित मानस की 101 कहानियां - भाग 4 | डॉ. सुधीर दीक्षित

 रामचरित मानस की 101 कहानियाँ- इसमे लेखक ने युवा पीढ़ी को कम शब्दों में रामचरितमानस के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए लिखी है, इसे आप मात्र 1 घंटे का समय निकाल कर आसानी से पढ़ सकते हैं। लेखक (डॉ. सुधीर दीक्षित जी) ने इसमें इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि आप अध्ययन के दौरान रोचकता का अनुभव करेंगे।

इस के प्रकाशन का एकमात्र कारण ब्लॉग पाठकों को रामचरित मानस के गूढ़ ज्ञान को सरल भाषा व कम समय में प्राप्त करवाना है। जिसके रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास जी है। डॉ. सुधीर दीक्षित जी को सादर आभार क्योंकि उन्होंने इसके महत्व को जनसामान्य के लिए इस कृति का लेखन किया।

रामचरित मानस की 101 कहानियाँ

लंकाकाण्ड

77. रामसेतु

जब समुद्र पार जाने के लिए सेतु बन रहा था, तब रामचंद्रजी ने शिवलिंग की स्थापना की और कहा कि जो मनुष्य रामेश्वरजी का दर्शन करेंगे, वे मेरे लोक को जाएंगे। जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ाएगा, वह मुक्ति पा लेगा। जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन मात्र करेगा, वह बिना मेहनत के संसाररूपी समुद्र से तर जाएगा। नल और नील ने पांच ही दिनों में सेतु बांधकर उसे मज़बूत बना दिया। यह सेतु 48 कि.मी. लंबा था, लेकिन इसे पांच दिनों में बनाना इस बात का प्रमाण था कि नल-नील कितने कुशल कारीगर थे।

78. अंगद दूत बनकर गए

जब रामचंद्रजी की सेना समुद्र पार करके लंका के बाहर पहुँच गई, तो उन्होंने बालिपुत्र अंगद को अपना दूत बनाकर भेजा। साथ ही उन्होंने हिदायत दी कि शत्रु से वही बातचीत करना, जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो। लंका में घुसते ही अंगद का रावण के एक पुत्र से झगड़ा हो गया और अंगद ने उसका वध कर दिया। नगर भर में कोलाहल मच गया कि जिस वानर ने लंका जलाई थी, वह फिर आ गया है। तब अंगद ने रावण से कहा कि वह बालि का पुत्र है। जब रावण ने कहा कि वानरों और इंसानों में उसे कोई बलशाली नहीं लगता, केवल लंका को जलाने वाला हनुमान ही महाबलशाली है। यह सुनकर अंगद ने कहा कि तुम महान योद्धा कहकर जिसकी प्रशंसा कर रहे हो, वह तो सुग्रीव का अदना हरकारा है। वह ज़्यादा वीर नहीं है। उसे तो हमने केवल ख़बर लेने के लिए भेजा था। इस तरह की बातें करके अंगद रावण का मनोबल कम कर रहा था। अंगद ने कहा कि क्‍या सचमुच ही उस वानर ने प्रभु की आज्ञा के बिना ही तुम्हारा नगर जला डाला? तभी वह लौटकर सुग्रीव के पास नहीं गया और कहीं जाकर छिप गया।

79. सभासदों ने दिया अंगद को सम्मान

जब अंगद सभा में पहुँचा, तो उसके मन में कोई हिचक नहीं थी, कोई भय नहीं था। अंगद को देखते ही सब सभासद उठ खड़े हुए। यह देखकर रावण को बहुत गुस्सा आया। जब अपने ही पक्ष के लोग शत्रु को सम्मान दें, तो भावनात्मक आघात लगता है, जैसा कि रावण को लगा। वह सोचने लगा कि खाते मेरा हो, बजाते उसका हो, यह तो उचित नहीं। रावण पहले ही विभीषण और उसके मंत्रियों के शत्रु के पक्ष में जाने से दुखी था, इसलिए सभासदों के इस व्यवहार को देखकर वह तिलमिला गया।

80. रावण के मनोबल पर चोट

अंगद ने रावण की सभा में जाकर कहा, मैंने जितने रावण अपने कानों से सुन रखे हैं, उन्हें सुन। एक रावण बलि को जीतने पाताल में गया था, वहां बच्चों ने उसे घुड़साल में बांध दिया था और खेल खेल में जाकर उसे मारते थे। बलि ने दया करके उसे छुड़ा दिया। एक रावण को सहस्त्रबाहु ने देखा और तमाशे के लिए उसे घर ले गया। तब पुलस्त्य मुनि ने जाकर उसे छुड़ाया। एक रावण तो बहुत दिनों तक बालि की कांख में दबा रहा था। अंगद ने व्यंग्य के सहारे रावण की पुरानी असफलताओं को गिनाया, ताकि रावण हीन भावना से ग्रस्त हो जाए।

81. रावण की डींगें

रावण ने अंगद से कहा कि बताओ तो सही, रावण के समान शूरवीर कौन है! मस्तकों को काटते समय जब मैंने अपने ललाटों पर लिखे विधाता के अक्षर देखे, तब मैंने देखा कि मेरी मृत्यु मनुष्य के हाथों लिखी थी। बूढ़े ब्रह्मा ने बुद्धि॒म से ऐसा लिख दिया था। रावण की आत्मप्रशंसा सुनकर अंगद ने व्यंग्यबाण मारते हुए कहा कि अरे रावण, तेरे समान लज्जावान जगत में कोई नहीं है। लज्जाशीलता तो तेरा सहज स्वभाव है। तू अपने मुंह से अपने गुण कभी नहीं कहता और अपनी प्रशंसा तो कभी करता ही नहीं है।

अंगद को अपना उद्देश्य स्पष्ट रूप से मालूम था कि उसे रावण का मनोबल कम करना है, इसीलिए वह इस दिशा में सारे यत्न कर रहा था। वह सभासदों के मनोबल को भी कम कर रहा था, ताकि वे भी समझ जाएं कि उनका राजा सिर्फ़ डींगें हाकता है।

82. रावण के मुकुट

जब रावण ने रामचंद्रजी की निंदा की, तो अंगद ने अपने दोनों भुजदंड ज़मीन पर दे मारे, जिससे रावण के सुंदर मुकुट धरती पर गिर गए। अंगद ने चार मुकुट उठाकर रामचंद्रजी के पास फेंक दिए। मुकुटों को हवा में उड़ते आते देखकर वानर भागे और रामचंद्रजी से पूछने लगे, क्या दिन में उल्कापात हो रहा है या फिर रावण ने क्रोध करके चार वज्र चलाए हैं, जो इतनी तेज़ गति से आ रहे हैं। रामचंद्रजी ने कहा कि डरो नहीं, ये रावण के मुकुट हैं, जिन्हें बालिपुत्र अंगद ने फेंका है। पवनपुत्र हनुमान ने उछलकर उन्हें पकड़ लिया और प्रभु के पास ले आए।

83. अंगद का पैर

अंगद ने रावण की सभा में प्रण करके अपना पैर रोप दिया और कहा कि हे मूर्ख, अगर तुममें से कोई मेरा चरण हटा देगा, तो श्रीरामजी लौट जाएंगे और मैं सीताजी को हार गया। तब रावण ने अपने सभी वीरों से कहा कि वे अंगद का पैर पकड़कर उसे पृथ्वी पर गिरा दें। पैर को उठाना तो दूर रहा, कोई उसे हिला भी नहीं पाया। अंगद का बल देखकर सब हिम्मत हार गए। तब रावण स्वयं उठा। जब वह अंगद का पैर पकड़ने लगा, तब अंगद ने कहा, मेरे चरण पकड़ने से तेरा बचाव नहीं होगा। अरे मूर्ख, तू जाकर श्रीरामचंद्रजी के चरण क्‍यों नहीं पकड़ता ? यह सुनकर रावण लज्जित और तेजहीन हो गया।

84. काल की चाल

अंगद के जाने के बाद मंदोदरी ने रावण को समझाया कि काल लाठी लेकर किसी को नहीं मारता। वह तो धर्म, बल, बुद्धि और विचारशक्ति को हर लेता है। हे स्वामी, जिसका काल यानी मरण समय निकट आ जाता है, उसे आप ही की तरह भ्रम हो जाता है। इसलिए आप अपनी भूल और काल की गति को पहचानें और अब भी रामचंद्रजी की शरण में चले जाएं। मंदोदरी की बात को अभिमानी रावण ने हसी में उड़ा दिया और युद्ध की तैयारी करने लगा।

85. मायावी युद्ध

वानरों और राक्षसों में युद्ध होने लगा। सूर्यास्त के बाद भी राक्षस लड़ते रहे, क्योंकि राक्षस सायंकाल के समय ज़्यादा बलवान हो जाते हैं। अकंपन और अतिकाय सेनापतियों ने अपनी सेना को विचलित होते देखकर माया की और पल भर में घुप्प अंघेरा हो गया तथा ख़ून, पत्थर और राख की वर्षा होने लगी। इससे वानरों की सेना में हाहाकार मच गया। श्रीरामजी ने तुरंत ही अग्निबाण चलाया, जिससे प्रकाश हो गया और अंधेरा मिट गया।

86. वीरघातिनी शक्ति

रावण के पुत्र मेघनाद ने लक्ष्मणजी पर वीरघातिनी शक्ति चलाई, जिससे वे बेहोश हो गए। इसके बाद मेघनाद लक्ष्मणजी को उठाने की कोशिश करने लगा। लेकिन लक्ष्मणजी तो शेषजी के अवतार थे, जो जगत के आधार हैं, इसलिए मेघनाद उन्हें कैसे उठा पाता? संध्या होने पर हनुमानजी लक्ष्मणजी को उठाकर रामचंद्रजी के पास ले आए। अपने प्रिय भाई को इस हालत में देखकर रामचंद्रजी दुखी हो गए। जाम्बवान ने कहा कि लंका में सुषेण वैद्य रहता है, उसे ले आएं। हनुमानजी लघु रूप में गए और सुषेण को उसके घर समेत तुरंत ही उठा लाए।

87. संजीवनी बूटी लाने का बीड़ा

वैद्य धर्म के नाते सुषेण ने तुरंत ही बता दिया कि औषधि कौन सी है और किस पर्वत पर मिलेगी। संजीवनी बूटी हिमालय पर्वत पर मिलती है और हनुमानजी को इसे सुबह तक लाना होगा। गौर करें, काम मुश्किल था, क्योंकि लंका दक्षिण में थी और हिमालय उत्तर में था और इनके बीच की दूरी बहुत ज़्यादा थी। सभी इस सोच में थे कि यह काम कौन करेगा। तब हनुमानजी ने कहा कि मैं जाकर संजीवनी बूटी लेकर आऊंगा।

88. कालनेमि प्रसंग

एक गुप्तचर ने रावण को बताया कि हनुमानजी संजीवनी बूटी लेने जा रहे हैं। तब रावण कालनेमि के घर गया और उससे प्रपंच रचने को कहा। कालनेमि ने मुनि का वेश बनाकर हनुमानजी को रोकना चाहा, लेकिन हनुमानजी ने उसे मार डाला।

89. हनुमानजी ने उठाया पर्वत

यह कथा रामचरित मानस पर कम और किंवदंती पर ज़्यादा आधारित है। जब हनुमानजी हिमालय से संजीवनी बूटी लेने जा रहे थे, तो उन्होंने पूछा कि हिमालय पर तो बहुत सारी जड़ी बूटियां हैं, मैं संजीवनी बूटी को कैसे पहचानृूंगा? तब सुषेण वैद्य ने कहा कि संजीवनी बूटी अंधेरे में चमकती है, इसलिए तुम उसे पहचान जाओगे। रावण ने अपनी मायावी शक्तियों से ऐसा स्वांग रचा कि हिमालय की सारी बूटियां चमकने लगीं। हनुमानजी समझ गए कि यह रावण की चाल है, लेकिन हनुमानजी कर्मप्रधान थे, इसलिए वे किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं हुए। वे जानते थे कि अगर बूटी सुबह तक न पहुंची, तो लक्ष्मणजी की जान चली जाएगी, इसलिए उन्होने हिमालय पर्वत को ही उखाड़ लिया और उसे उठाकर चल दिए।

90. भरतजी हनुमानजी प्रसंग

हनुमानजी पर्वत उठाकर आकाश मार्ग से लौटते समय अयोध्यापुरी के ऊपर से निकले। जब भरतजी ने आकाश में अत्यंत विशाल स्वरूप देखा, तो उन्होंने सोचा कि यह कोई राक्षस है। उन्होंने कान तक धनुष खींचकर बिना फल का बाण मारा। बाण लगते ही हनुमानजी 'राम, राम' कहते हुए पृथ्वी पर गिर पड़े और बेहोश हो गए। रामनाम सुनकर भरतजी ने हनुमानजी को जगाया, पर वे नहीं जागे। इस पर भरतजी दुखी होकर बोले, यदि मेरा श्रीरामजी के चरणों में निष्कपट प्रेम हो, तो यह वानर तुरंत पीड़ारहित होकर उठ जाए। ईश्वर की कृपा से हनुमानजी तुरंत उठकर बैठ गए। फिर जब हनुमानजी ने संक्षेप में सारी बात सुनाई, तो भरतजी बोले, हे तात! तुमको जाने में देर होगी और सबेरा होते ही काम बिगड़ जाएगा। इसलिए तुम पर्वत सहित मेंरे बाण पर चढ़ जाओ, ताकि मैं तुम्हें श्रीरामजी के पास शीघ्र भेज दूं। हनुमानजी ने जवाब दिया कि मैं आपके प्रताप से तुरंत चला जाऊंगा। सुबह होने से पहले ही हनुमानजी पहुंच गए और वैद्य सुषेण ने वह बूटी लक्ष्मणजी को पिला दी, जिससे वे तुरंत उठकर बैठ गए।

91. कुम्भकर्ण प्रसंग

जब रावण ने सुना कि लक्ष्मणजी ठीक हो गए हैं, तो उसने जाकर कुम्भकर्ण को जगाया। तुलसीदासजी ने विस्तार से नहीं बताया है, लेकिन कुम्भकर्ण छह महीने लगातार सोता था और फिर एक दिन जागकर अपना पेट भरकर फिर छह महीने के लिए सो जाता था। वह इतना शक्तिशाली था कि देवता तक उससे घबराते थे। जब ब्रह्माजी ने उससे वरदान मांगने को कहा, तब वह “इन्द्रासन' कहना चाहता था, परंतु माता सरस्वती ने उसकी जीभ से “निद्रासन” बुलवा दिया। ब्रह्माजी के तथास्तु कहते ही कुम्भकर्ण चिर निद्रा में सो गया, लेकिन रावण की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए ब्रह्माजी ने यह जोड़ दिया कि वह हर छह महीने बाद एक दिन जागेगा।

जब रावण ने कुम्भकर्ण की पूरी कहानी बताई, तो कुम्कर्ण ने उसे बहुत कोसते हुए सलाह दी कि अभिमान छोड़कर रामचंद्रजी को भजो, तो कल्याण होगा। पहले जगा देता, तो नारद मुनि का बताया ज्ञान तुझे भी बता देता, पर अब तो समय ही चला गया है। अब आखिरी बार मुझसे गले मिल ले। फिर मैं जाकर ईश्वर के दर्शन करता हूं।

अनेक भैंसे खाकर और करोड़ों घड़े मदिरा पीकर कुम्मकर्ण बिना सेना लिए अकेला ही किले से निकला। विभीषण ने उसके चरणों पर गिरकर प्रणाम किया। कुम्भकर्ण ने कहा, हे पुत्र सुन, तू धन्य है; रावण तो काल के वश हो गया है। कुम्भकर्ण ने लड़ाई में अंगद आदि वानरों को बेहोश किया और बेहोश सुग्रीव को कांख में दबाकर चल दिया। सुग्रीव की बेहोशी दूर हुई, तो वह कांख से नीचे गिर पड़ा और उसने दांतों से कुम्भकर्ण के नाक कान काट लिए।

92. कुम्भकर्ण वध

श्रीरामचंद्रजी ने कुम्भकर्ण का वध किया। उन्होंने सौ बाण चलाए, जिनके लगते ही कुम्भकर्ण विचलित हो गया। जब उसने एक पर्वत उखाड़ा, तो रामचंद्रजी ने उसकी वह भुजा ही काट दी। फिर वह बाएं हाथ में पर्वत लेकर दौड़ा। प्रभु ने उसकी वह भुजा भी काट दी। वह ज़ोर से चिंघाड़ा और मुंह फैलाकर दौड़ा। ईश्वर ने देवताओं और वानरों को भयभीत देखकर उसका मुख बाणों से भर दिया। तब भी कुम्भकर्ण पृथ्वी पर नहीं गिरा। इसलिए प्रभु ने तीक्षा बाण लिया और उसका सिर घड़ से अलग कर दिया। उन्होंने ऐसा बाण मारा, जिससे कुम्मकर्ण का सिर रावण के सामने जाकर गिरे।

93. जाम्बवान का पराक्रम

मेघनाद रामचंद्रजी से लड़ने लगा। उसने उन्हें नागपाश में बांध लिया, जिससे देवताओं को बड़ा भय हुआ। तुलसीदासजी कहते हैं कि यह सब रामचंद्रजी की लीला थी। जिनका नाम जपकर लोग जन्म मरण के बंधन काट डालते हैं, उन्हें कौन सा बंधन बांध सकता है? इस पर जाम्बवान ने मेघनाद को ललकारा। मेघनाद ने कहा कि मूर्ख, तुझे बूढ़ा समझकर छोड़ दिया था, लेकिन तेरी यह जुर्रत कि तू मुझे ललकार रहा है। यह कहते हुए मेघनाद ने एक त्रिशूल मारा। जाम्बवान उसी त्रिशूल को हाथ से पकड़कर दौड़ा। और उसे मेघनाद की छाती पर दे मारा। जब मेघनाद चक्कर खाकर पृथ्वी पर गिरा, तो जाम्बवान ने उसका पैर पकड़कर उसे घुमाया और पृथ्वी पर पटक दिया। फिर जाम्बवान ने उसका पैर पकड़कर उसे लंका की ओर फेंक दिया। इधर नारदजी को बहुत दुख हुआ कि उनके ही शाप के कारण भगवान को इतने कष्ट उठाने पड़ रहे हैं, इसलिए उन्होंने प्रभु को नागपाश से मुक्त करने के लिए गरुड़ को भेजा, जो नागों को खा गया। सभी वानर माया से रहित होकर प्रसन्‍न हो गए।

94. मेघनाद वध

होश में आने पर मेघनाद अजय यज्ञ करने के लिए पर्वत की गुफा में चला गया, जिससे वह अजेय हो जाए। विभीषण ने रामचंद्रजी से कहा कि आगर मेघनाद का यज्ञ सिद्ध हो गया, तो उससे जीतना मुश्किल होगा। रामचंद्रजी ने अंगद आदि वानरों को बुलाकर कहा कि सब लोग लक्ष्मणजी के साथ जाकर मेघनाद के यज्ञ का विध्वंस करो। उन्होंने लक्ष्मणजी से कहा कि संग्राम में तुम ही उसे मारना। उन्होंने जाम्बवान, सुग्रीव और विभीषण को सेना समेत लक्ष्मणजी के साथ जाने का आदेश दिया। तब लक्ष्मणजी ने प्रतिज्ञा की कि यदि मैं आज उसे बिना मारे लौटू, तो रामचंद्रजी का सेवक न कहलाऊं। उन्होंने देखा कि मेघनाद ख़ून और भैंसे की आहुति दे रहा है। यज्ञ विध्वंस करने के बाद भी जब वह नहीं उठा, तो वानरों ने उसके बाल खींचे और लातों से बहुत मारा। मेघनाद त्रिशूल लेकर दौड़ा और वानर उसे वहां तक ले आए, जहां लक्ष्मणजी खड़े थे। जब उसने लक्ष्मणजी पर त्रिशूल छोड़ा, तो उन्होंने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए। लक्ष्मणजी ने श्रीराम का स्मरण करके बाण चलाया और वह मेघनाद की छाती के बीच में लगा। हनुमानजी ने मेघनाद का शव उठाकर लंका के द्वार पर रख दिया और देवताओं ने स्तुति की।

रामचंद्रजी जानते थे कि मेघनाद को केवल लक्ष्मणजी ही मार सकते हैं, क्योंकि मेघनाद को यह वरदान मिला था कि उसे वही व्यक्ति मार सकता है, जो लंबे समय से सोया न हो और उससे स्त्री संसर्ग न किया हो। इसका अर्थ यह था कि केवल लक्ष्मणजी ही यह काम कर सकते थे, जो पूरे वनवास के दौरान नहीं सोए थे। तुलसीदासजी ने नहीं लिखा है, लेकिन किंवदंती है कि जब वनवास के दौरान निद्रा देवी लक्ष्मणजी के पास आईं, तो लक्ष्मणजी ने उनसे अनुरोध किया कि वे प्रभु की रक्षा करने के लिए उन्हें 14 साल तक जागते रहने का वरदान दें। निद्रा देवी ने कहा कि लक्ष्मणजी के बदले किसी न किसी को तो सोना पड़ेगा। तब लक्ष्मणजी ने अपने हिस्से की नींद अपनी पत्नी उर्मिला को दे दी। इसी कारण लक्ष्मणजी पूरे 14 साल तक जागे और उर्मिला पूरे 14 साल तक सोई।

95. रावण-लक्ष्मण युद्ध

जब रावण रथ पर सवार होकर युद्ध के लिए आया, तो विभीषण अधीर हो गया, क्योंकि रामचंद्रजी के पास रथ नहीं था। विभीषण ने कहा कि आपके पास न रथ है, न ही तन की रक्षा करने वाला कवच है, न ही जूते हैं। आप रावण को कैसे जीतेंगे? तब रामचंद्रजी ने उसे समझाया कि सत्य और शौर्य साथ हों, तो किसी भी शत्रु को हराया जा सकता है। रावण बीस भुजाओं से एक साथ बाण चला रहा था। लक्ष्मणजी ने उसे सौ बाण छाती में मारे, जिससे रावण बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। होश आने पर उसने ब्रह्माजी की दी हुई प्रचंड शक्ति लक्ष्मणजी पर चलाई। लक्ष्मणजी बेहोश होकर गिर पड़े और रावण ने उन्हें उठाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उठा नहीं पाया। तब हनुमानजी ने रावण को घूसा मारा, जिससे वह बेहोश हो गया। इसके बाद हनुमानजी लक्ष्मणजी को उठाकर रामचंद्रजी के पास ले गए, जिससे रावण को आश्चर्य हुआ, क्योंकि वह लक्ष्मणजी को नहीं उठा पाया था। रामचंद्रजी ने उस शक्ति से लक्ष्मणजी को मुक्त कराया और वह शक्ति आकाश में चली गई।

96. रावण का यज्ञ

जब रावण विजय प्राप्ति के लिए यज्ञ करने लगा, तो विभीषण ने यह ख़बर रामचंद्रजी को दी। वानर सेना के वीर योद्धा यज्ञ का विध्वंस करने लगे। जब वे रावण को लात मारने लगे, तब कहीं जाकर वह उठा। जब रावण रथ में युद्ध कर रहा था, तब इन्द्र ने प्रभु को पैदल देखकर तुरंत अपना रथ भेज दिया। रामचंद्रजी ने उस रथ पर चढ़कर तीस बाण मारे और बीस भुजाओं तथा दस सिरों को काटकर पृथ्वी पर गिरा दिया। लेकिन उनकी जगह पर नए सिर और भुजाएं उग आए। इस तरह प्रभु ने बहुत बार रावण की भुजाएं और सिर काटे, लेकिन तुरंत ही उनकी जगह पर नए सिर और भुजाएं आ जाती थीं।

97. विभीषण रावण युद्ध

राम रावण युद्ध के दौरान रावण ने क्रोधित होकर विभीषण पर प्रचंड शक्ति छोड़ी। श्रीरामजी ने शरणागत को दुख से बचाने के लिए तुरंत ही विभीषण को अपने पीछे कर लिया और स्वयं शक्ति सह ली। शक्ति लगने से वे कुछ समय के लिए मूर्च्छित हो गए। प्रभु को कष्ट में देखकर विभीषण क्रोधित होकर गदा लेकर दौड़ा। रावण को खरी खोटी सुनाते हुए उसने रावण की छाती के बीच में गदा मारी। रावण पृथ्वी पर गिर पड़ा और उसके दसों मुखों से खून बहने लगा। विभीषण के पीछे रामचंद्रजी का बल था, इसलिए वह रावण जैसे जगद्विजयी योद्धा को कुछ नहीं समझ रहा था। वरना विभीषण क्‍या कभी रावण के सामने आख उठाकर भी देख सकता था? परंतु अब वही काल के समान उससे भिड़ रहा था, यह रामचंद्रजी का ही प्रभाव था।

98. विभीषण ने खोला अमृतकुंड का भेद

जब रावण के सिर और भुजाएं काटने के बाद भी नए आते रहे और वह मरने का नाम नहीं ले रहा था, तो विभीषण ने रामचंद्रजी के सामने राज़ खोलते हुए कहा कि रावण की नाभि में अमृतकुंड है। हे नाथ! रावण उसी के बल पर ज़िंदा है। यह सुनते ही श्रीरघुनाथजी ने इकतीस बाण छोड़े। पहले बाण ने नाभि के अमृतकुण्ड को सोख लिया। बाक़ी बाण उसके सिरों और भुजाओं को लेकर चले। अब घड़ ही अकेला रह गया, जिसके प्रभु ने बाण मारकर दो टुकड़े कर दिए। देवता सुखी हो गए और रामचंद्रजी का काम पूर्ण हो गया।

99. अग्निपरीक्षा

जब रामचंद्रजी ने सीताजी को लिवाने भेजा, तो उन्होंने कुछ कटु वचन कहे और सीताजी लक्ष्मणजी से बोलीं, तुरंत आग तैयार करो। आग तैयार होने के बाद सीताजी ने कहा, यदि मन, वचन और कर्म से मेरे हृदय में रामचंद्रजी को छोड़कर दूसरा कोई न हो, तो यह आग मेरे लिए चंदन के समान शीतल हो जाए। सीताजी चंदन के समान शीतल अपिन में प्रवेश कर गईं और उनकी छायापूर्ति उस प्रचंड अग्नि में जल गई तथा वास्तविक सीताजी प्रकट हो गईं। अग्नि ने शरीर धारण करके सीताजी का हाथ पकड़कर उन्‍हें रामचंद्रजी को सौंपा। देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे और आकाश में डंके बजने लगे।

100. अमृतवर्षा

देवराज इंद्र ने अंत में रामचंद्रजी से पूछा कि आपने मेरे लिए इतना कुछ किया है, अब मैं आपके लिए क्‍या कर सकता हू? इस पर रामचंद्रजी ने कहा कि हमारे वानर भालू, जिन्हें निशाचरों ने मार डाला है, पृथ्वी पर पड़े हैं। इन्होंने मेरे हित के लिए अपने प्राण दिए हैं। अतः हे देवराज इंद्र! इन सबको जिला दो। इन्द्र ने अमृत बरसाकर वानर भालुओं को जिला दिया। अमृत की वर्षा दोनों ही दलों पर हुई थी, पर रीछ वानर ही जीवित हुए, राक्षस नहीं। क्योंकि राक्षसों के तो भव बन्धन छूट गए थे और वे मुक्त हो चुके थे।

101. पुष्पक विमान

विभीषणजी ने जब युद्ध समाप्त होने के बाद रामचंद्रजी से लंका आने का आग्रह किया, तो प्रभु ने कहा कि तपस्वी बनकर भरत मेरा नाम जप रहे हैं। यदि अवधि बीत जाने पर पहुचा, तो भाई जीवित नहीं रहेगा। अतः ऐसा उपाय करो, जिससे मैं जल्दी से जल्दी भरत के पास पहुच जाऊं। यह सुनकर विभीषण महल गए और पुष्पक विमान ले आए। तब रामचंद्रजी पुष्पक विमान पर चढ़कर अयोध्या पहुंचे और निष्कंटक राज्य करने लगे।


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