रामचरित मानस की 101 कहानियाँ- भाग 3 | डॉ. सुधीर दीक्षित

 रामचरित मानस की 101 कहानियाँ- इसमे लेखक ने युवा पीढ़ी को कम शब्दों में रामचरितमानस के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए लिखी है, इसे आप मात्र 1 घंटे का समय निकाल कर आसानी से पढ़ सकते हैं। लेखक (डॉ. सुधीर दीक्षित जी) ने इसमें इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि आप अध्ययन के दौरान रोचकता का अनुभव करेंगे।

इस के प्रकाशन का एकमात्र कारण ब्लॉग पाठकों को रामचरित मानस के गूढ़ ज्ञान को सरल भाषा व कम समय में प्राप्त करवाना है। जिसके रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास जी है। डॉ. सुधीर दीक्षित जी को सादर आभार क्योंकि उन्होंने इसके महत्व को जनसामान्य के लिए इस कृति का लेखन किया।

रामचरित मानस की 101 कहानियाँ

अरण्यकाण्ड

41. जयंत कौए का प्रसंग

एक बार रामचंद्रजी ने अपने हाथों से फूलों के गहने बनाए और स्फटिक की शिला पर बैठकर सीताजी को पहनाए। इंद्र का मूर्ख पुत्र जयंत कौए का रूप धरकर आया और भगवान के बल की परीक्षा लेने लगा। वह सीताजी के चरणों में चोंच मारकर भागा। जब रक्त बहने लगा, तब श्रीरघुनाथजी ने धनुष पर सींक का बाण चढ़ाकर ब्रह्मबाण चला दिया। जयंत अपने असली रूप में अपने पिता इंद्र के पास गया, लेकिन उ्होंने उसे नहीं रखा। ब्रह्मलोक, शिवलोक आदि समस्त लोकों में किसी ने भी उसे अपने पास नहीं रखा, क्योंकि रामचंद्रजी के द्रोही को कौन रख सकता है? जो रामचंद्रजी से विमुख होता है, पूरा संसार उसका साथ छोड़ देता है और वह हर जगह दुखी तथा परेशान रहता है।

नारदजी ने दया करके जयंत को सलाह दी, रामचंद्रजी के पास जाकर कहो कि मैं आपकी शरण में आया हूं, इसलिए आप ही मेरी रक्षा करो। जयंत ने रामचंद्रजी के चरण पकड़कर रक्षा की फ़रियाद की। रामचंद्रजी ने उसे एक आंख का काना करके छोड़ दिया। यद्यपि उसका वध ही उचित था, पर प्रभु ने कृपा करके उसकी जान बख़्श दी।

42. स्त्री धर्म

जब वनवास के समय रामचंद्रजी और सीताजी अत्रि मुनि के आश्रम में पहुंचे, तो उनकी पत्नी अनसूयाजी ने सीताजी को स्त्रियों के धर्म बताए। उन्होंने कहा कि माता पिता और भाई बहन सभी हितकारी होते हैं, लेकिन वे एक सीमा तक ही सुख देते हैं। केवल पति ही है, जो मोक्षरूप असीम सुख देता है। वह स्त्री अधम है, जो पति की सेवा नहीं करती। धैर्य, धर्म, मित्र और पत्नी इन चारों की परीक्षा विपत्ति के समय ही होती है: “धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी।।' पति चाहे जैसा हो, उसका अपमान करने से स्त्री को भाँति भाँति के दुख उठाने पड़ते हैं। शरीर, वचन और मन से पति के चरणों से प्रेम करना पत्नी का बस यही एक धर्म है, यही एक व्रत है और यही एक नियम है। “एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। काय बचन मन पति पद प्रेमा।

43. दर्शन की अभिलाषा

जब रामचंद्रजी सीता और लक्ष्मणजी सहित वन में पहुंचे, तो उन्हें शरभंग मुनि दिखाई दिए। शरभंग मुनि महायोगी थे और कुछ समय पहले भगवान इंद्र उन्हें ब्रद्मलोक ले जाने के लिए उनके आश्रम में आए थे। शरमंगजी इसलिए नहीं गए, क्योंकि वे जानते थे कि कुछ समय बाद रामचंद्रजी वहां पधारने वाले हैं और वे उनकी मोहिनी छवि देखना चाहते थे। उन्होंने तपोबल और योगबल से अपने प्राणों को अपने शरीर में रोककर रखा। वे दिन रात उनकी राह देख रहे थे और जब उनके दर्शनों की साध पूरी हो गई, तो उन्होंने चिता बनाकर योगाणि में देह त्याग दी तथा वैकुंठ को चले गए।

44. शूर्पणखा प्रसंग

शूर्पणखा रावण की बहन थी और वह पंचवटी में रामचंद्रजी और लक्ष्मणजी को देखकर काम से पीड़ित हो गई। वह राक्षसी कामांध हो गई और सुंदर रूप बनाकर रामचंद्रजी के सामने पहुंचकर बोली, 'तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी। यह संजोग बिधि रचा बिचारी।।' अर्थात्‌ न तो तुम्हारे समान कोई पुरुष है और न मेरे समान स्त्री। विधाता ने यह जोड़ी बहुत सोचकर बनाई है।

तब रामचंद्रजी ने हँसी करके उसे लक्ष्मणजी के पास भेज दिया। लक्ष्मणजी भी हसी में कहने लगे, मैं तो रामचंद्रजी का दास हूं, इसलिए पराधीन हूँ। ये कोसलपुर के राजा हैं और कुछ भी कर सकते हैं। जब शूर्पणखा ने अपना भयंकर रूप दिखाया और सीताजी को डराया, तो रामचंद्रजी ने लक्ष्मणजी को इशारा कर दिया, जिन्होंने उसके नाक कान काट लिए। वह रोती हुई अपने भाई खर और दूषण के पास गई और बोली कि तुम्हारे पौरूष और बल को धिक्‍कार है। तब खर दूषण सेना लेकर आए। सेना आने पर रामचंद्रजी ने लक्ष्मणजी से कहा कि वे सीताजी को लेकर पर्वत की गुफा में चले जाएं। इसके बाद रामचंद्रजी ने अकेले ही खर दूषण समेत पूरी राक्षस सेना को मार डाला।

45. रावण की दुविधा

रावण को जब पता चला कि रामचंद्रजी ने खर दूषण को मार डाला है, तो उसे रात भर नींद नहीं आई और वह सोचने लगा कि देवता, असुर, नाग, पक्षियों और मनुष्यों में ऐसा कोई भी नहीं है, जो मेरे सेवक को भी मार सके और खर दूषण तो मेरे ही जितने शक्तिशाली थे। उन्हें भगवान के सिवा और कौन मार सकता है? यदि भगवान ने ही मनुष्य का अवतार लिया है, तो मैं उनसे हठपूर्वक वैर करूँगा और प्रभु के बाण से प्राण छोड़कर भवसागर से तर जाऊँगा। दूसरी ओर, यदि वे मनुष्यरूपी राजकुमार हुए, तो उन्हें युद्ध में जीतकर उनकी स्त्री का अपहरण कर लूँगा।

46. सीताजी की छायामूर्ति

जब लक्ष्मणजी कंद फल लेने के लिए वन में गए, तो अकेले में रामचंद्रजी ने सीताजी से कहा कि अब मैं कुछ मनोहर मनुष्यलीला करूंगा। इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूं, तब तक तुम अग्नि में निवास करो। सीताजी ने ऐसा ही किया और अपनी छायामूर्ति वहां रख दी, जो हूबहू उनके जैसी ही थी। भगवान की लीला का यह रहस्य लक्ष्मणजी तक को पता नहीं चला। यानी जब रावण ने सीताजी का हरण किया था, तो उसने सीताजी का नहीं, बल्कि छायामूर्ति का हरण किया था।

तुलसीदासजी ने यह प्रसंग सीताजी की पवित्रता को रेखांकित करने के लिए जोड़ा है। गौर करने वाली बात यह है कि तुलसीदासजी के रामचंद्रजी ईश्वर का साक्षात अवतार हैं, इसलिए वे जानते हैं कि आगे क्या होने वाला है। वे जानते थे कि रावण आकर सीताजी का हरण करके ले जाएगा, इसलिए सीताजी को क्लेश और दुख से बचाने के लिए उन्होंने वास्तविक सीताजी को अग्नि में निवास करने के लिए भेज दिया और उनकी जगह पर छायामूर्ति रख दी।

47. स्वर्णमृग

रावण रथ पर चढ़कर अकेला मारीच के पास गया। रावण ने मारीच से कहा, तुम कपटमृग बन जाओ, ताकि मैं उस स्त्री को हर लाऊं। मारीच ने रावण को समझाया, रामचंद्रजी से दुश्मनी मोल मत लो, क्योंकि वे ईश्वर का अवतार हैं। मारीच ने बताया कि रामचंद्रजी के बाण से वह क्षण भर में सौ योजन दूर आ गिरा था। उसने रावण को बहुत समझाया कि जिसने ताड़का और सुबाहु को मारा, शिवजी का धनुष तोड़ा, खर दूषण को मार डाला, ऐसा अति बलशाली कोई साधारण मनुष्य हो सकता है? रावण ने कहा, मुझे ज्ञान मत दो, बल्कि मेरा कहा गया काम करो। मारीच समझ गया कि अगर मैंने रावण को मना किया, तो यह मुझे मार डालेगा। इससे अच्छा तो यह है कि मैं रामचंद्रजी के बाण से मरू, ताकि मेरा जन्म सफल हो जाए। उसने कपटमृग का रूप धरा और सोने का शरीर मणियों से जड़कर बनाया। वह जान बूझकर सीताजी के सामने गया और उसे देखकर सीताजी ने रामचंद्रजी से कहा कि इस मृग की छाल बहुत सुंदर है। इसे लाकर दें। रामचंद्रजी के समझाने पर भी सीताजी नहीं मानीं। प्रभु ने मृग पकड़ने जाते समय लक्ष्मणजी से कहा कि हे भाई वन में बहुत से राक्षस हैं, अत: सावधान रहना।

48. सीताहरण

रामचंद्रजी को धनुष उठाते देख मायावी मृग भागने लगा। रामचंद्रजी भी घनुष चढ़ाकर पीछा करने लगे। मारीच राक्षस प्रभु को दूर तक ले गया और जब रामचंद्रजी ने उसे बाण मारा, तो मरते समय “हा लक्ष्मण' बोलकर वह परमपद प्राप्त कर गया। लक्ष्मण नाम की पुकार सुनकर सीताजी डर गईं और लक्ष्मणजी से बोलीं कि राम संकट में हैं। जब लक्ष्मणजी ने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है, तो सीताजी ने चुभते हुए शब्द बोले कि कैसे भाई हो, जो विपत्ति में रामचंद्रजी का साथ देने के बजाय यहां बैठे हुए हो? अंततः विवश होकर लक्ष्मणजी ने एक रेखा खींचकर कहा कि हे माता, आप इस रेखा को पार मत करना। इस रेखा के भीतर रहने पर आप पर किसी तरह की कोई विपत्ति नहीं आएगी।

इधर लक्ष्मणजी के जाते ही रावण संन्यासी का वेश बनाकर भिक्षा मांगने आया। जब सीताजी भिक्षा देने आईं, तो रावण जान बूझकर लक्ष्मणरेखा के इस पार खड़ा रहा। वह जानता था कि वह रेखा पार नहीं कर सकता, इसलिए उसने सीताजी को रेखा पार करने के लिए उकसाते हुए कहा कि भिक्षा देना है, तो पास से आकर दो, अन्यथा मत दो। जैसे ही सीताजी भोलेपन में लक्ष्मणरेखा के पार आईं, रावण ने अपना असली रूप दिखलाया और उन्हें अपने रथ में बैठाकर आकाश मार्ग से ले गया (तुलसीदासजी ने लक्ष्मणरेखा का ज़िक्र यहां नहीं किया है, किंतु यह रामकथा का महत्वपूर्ण प्रसंग है, इसलिए इसे शामिल करना महत्वपूर्ण लगा)।

49. जटायु-रावण युद्ध

जब जानकीजी विलाप करती हुई आकाश मार्ग से जा रही थीं, तो गीधराज जटायु ने पहचान लिया कि ये तो माता सीता हैं और नीच रावण उनका हरण करके ले जा रहा है। जटायु ने कहा, पुत्री डरो मत, मैं इस राक्षस को मारता हू। वृद्ध पक्षी क्रोध में रावण पर हमला करने लगा। उसने रावण के बाल पकड़कर उसे रथ के नीचे घसीटा और पृथ्वी पर गिरा दिया। गीध सीताजी को एक ओर बैठाकर फिर लौटा और चोंच मारकर रावण का शरीर लहूलुहान कर दिया। बुढ़ापे के कारण इस अनायास श्रम से जटायु को एक घड़ी के लिए मूर्च्छा आ गई। इस मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए रावण ने कटार से जटायु के पंख काट डाले, जिससे जटायु पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर रावण सीताजी को रथ पर दोबारा बैठाकर चल दिया। रास्ते में एक पर्वत आया, जिस पर कुछ बंदर बैठे थे। सीताजी ने हरिनाम लेकर वस्त्र गिरा दिया, ताकि रामचंद्रजी को यह संकेत मिल जाए कि सीताजी इसी रास्ते गई थीं। लंका पहुंचने पर रावण ने सीताजी को अशोकवन में अशोक के पेड़ के नीचे बैठा दिया।

50. जटायु का दाहकर्म

जब रामचंद्रजी वहाँ पहुंचे, जहां जटायु ने रावण से लड़ाई की थी, तो उन्होंने जटायु के सिर पर हाथ फेरा। गीधराज ने उन्हें बताया कि रावण ही जानकीजी का हरण करके दक्षिण दिशा में ले गया है। मैंने आपके दर्शनों के लिए और आपको यह समाचार देने के लिए ही प्राण रोक रखे थे और अब ये चलना चाहते हैं। रामचंद्रजी ने जटायु से कहा कि वे अपना शरीर बनाए रखें। तब गीधराज ने कहा कि आप मेरे नेत्रों के सामने हैं, अत: अब मैं किस कमी की पूर्ति के लिए देह रखूं। इस तरह जटायु परमधाम को प्राप्त हुए। रामचंद्रजी ने ही जटायु का दाहकर्म व अन्य क्रियाएं कीं।

51. शबरी के बेर

सीता हरण के बाद जब रामचंद्रजी और लक्ष्मणजी शबरी के आश्रम में पहुँचे, तो शबरी प्रेम में मगन हो गई। शबरी बोली, मैं अत्यंत मूढ़ और नीच हूँ, अत: मैं किस तरह आपकी स्तुति करूँ? रामचंद्रजी ने कहा कि मैं ऊँच नीच का नहीं, बल्कि भक्ति का ही संबंध मानता हूँ। तब रामचंद्रजी ने शबरी को नवधा भक्ति का ज्ञान दिया। तुलसीदासजी ने शबरी के बारे में प्रचलित दंतकथा का उल्लेख नहीं किया है, लेकिन यह काफ़ी लोकप्रिय है। शबरी भील जाति की थी और बचपन से ही रामभक्त थी। एक दिन मतंग ऋषि ने शबरी को आशीर्वाद दिया कि उसे एक दिन रामचंद्रजी के दर्शन होंगे। तब से शबरी उनका इंतज़ार करने लगी। कुछ देर तक प्रभु के दर्शन करने के बाद शबरी बेर और कंद मूल लेकर आई। बेर खट्टे न हों, इस डर से उसने राम को बेर नहीं दिए। वह खिलाने से पहले उन्हें चखने लगी। अच्छे और मीठे बेर रामचंद्रजी को खाने को देती थी और खट्टे बेर फेंक देती थी। शबरी की भक्ति को देखकर रामचंद्रजी मोहित हो गए। जब लक्ष्मणजी को इस बात पर अचंभा हुआ कि रामचंद्रजी जूठे बेर खा रहे हैं, तो रामचंद्रजी ने समझाया कि ये जूठे बेर शबरी की भक्ति और प्रेम के प्रतीक हैं। तभी से यह कहानी 'शबरी के बेर” नाम से प्रसिद्ध हुई। हर साल फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को शबरी जयंती मनाई जाती है।

 किष्किन्धाकाण्ड

52. हनुमानजी दूत बनकर मिले

सीताहरण के बाद जब रामचंद्रजी ऋष्यमूक पर्वत के निकट पहुंचे, तो वहां रहने वाला सुग्रीव उन्हें दूर से देखकर डर गया। सुग्रीव ने हनुमानजी से कहा कि वे ब्रह्मचारी के वेश में जाकर उनके इरादों का पता लगाएं। यदि इन्हें मन के मलिन बालि ने भेजा है, तो मैं यह पर्वत छोड़कर भाग जाऊंगा। रामचंद्रजी से भेंट करने के बाद हनुमानजी को पता चला कि ये तो अवतार पुरुष श्रीराम हैं। इस पर हनुमानजी ने प्रभु से कहा कि इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहता है, जो आपका दास है। उन्होंने यह सुझाव भी दिया कि रामचंद्रजी अगर सुग्रीव से मित्रता कर लें, तो वह सीताजी की खोज कराएगा और करोड़ों वानर रामचंद्रजी के काम में मदद करेंगे। फिर हनुमानजी श्रीराम और लक्ष्मणजी दोनों को अपने कंधों पर बैठाकर पर्वत पर ले गए। वहां अग्नि को साक्षी बनाकर रामचंद्रजी और सुग्रीव की मित्रता कराई गई। सुग्रीव ने रामचंद्रजी को बताया कि सीताजी आकाशमार्ग से विलाप करती जा रही थीं और उन्होंने वस्त्र भी गिराया था, जो सुग्रीव ने रामचंद्रजी को दे दिया।

53. बालि और सुग्रीव की कहानी

जब रामचंद्रजी ने सुग्रीव से पूछा कि वह पर्वत पर क्यों रहता है, तो सुग्रीव ने कहा कि बालि उसका भाई था और वे एक दूसरे से बहुत प्रेम करते थे। एक बार मय दानव का पुत्र मायावी वहां आया और आधी रात को नगर के फ़ाटक पर आकर बालि को ललकारने लगा। बालि दौड़कर वहां गया और सुग्रीव भी साथ था। मायावी एक पर्वत की गुफा में घुस गया। तब बालि ने सुग्रीव को समझाया कि तुम एक पखवाड़े तक मेंरा इंतज़ार करना। अगर मैं इतने दिन में न लौटूं, तो समझ लेना कि मर गया। सुग्रीव एक महीने तक गुफा के बाहर ही खड़ा रहा। फिर एक दिन उस गुफा में से ख़ून की धारा निकली। तब सुग्रीव को यह डर सताने लगा कि मायावी ने बालि को मार डाला है और और वह कहीं आकर उसे भी न मार दे। इसलिए सुग्रीव गुफा के द्वार पर चट्टान रखकर भाग आया। मंत्रियों ने ज़बर्दस्ती उसे राजा बना दिया। सुग्रीव ने रामचंद्रजी को बताया कि जब बालि मायावी को मारकर लौटा, तो उसने मुझे राजा देखकर सोचा कि राज्य के लालच में मैंने गुफा पर चट्टान रखी थी, ताकि वह बाहर न निकल पाए और मैं राजा बन जाऊं। इसके बाद बालि ने सुग्रीव को बहुत मारा और उसका सारा धन तथा पत्नी भी छीन ली। सुग्रीव ने कहा कि बालि शाप के कारण यहा नहीं आता है, लेकिन फिर भी मैं उससे बहुत डरता हूँ।

54. बालि वध

सुग्रीव का दुख सुनकर रामचंद्रजी विचलित हो गए, क्योंकि सेवक का दुख उनसे सहन नहीं होता और तुलसीदासजी कहते हैं कि जो लोग मित्र के दुख से दुखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। वे कहते हैं कि मित्रता की पहचान यही है कि आप अपने पर्वत जितने बड़े दुख को धूल के समान मानें और मित्र के धूल जितने बड़े दुख को सुमेरु जैसा बड़ा पर्वत मानें। रामचंद्रजी ने सुप्रीव को तसल्‍ली देते हुए कहा कि वे बालि का वध करके उसके दुख दूर करेंगे। सुग्रीव ने कहा कि बालि महाबली है, अतः काम मुश्किल है। इसके बाद की कहानी गोस्वामीजी ने नहीं बताई है, लेकिन अन्यत्र उल्लेख मिलता है कि बालि त्रेता युग में अजेय था, क्योंकि ब्रह्माजी के वरदान के कारण बालि के पास यह शक्ति थी कि जो भी विरोधी उसके सामने आकर लड़ता था, उसकी आधी शक्ति बालि के पास चली जाती थी। इसी वरदान के बूते पर बालि ने रावण जैसे योद्धा को भी हरा दिया था। बालि के पास स्वयं 70,000 हाथियों का बल था, इसलिए आमने सामने की लड़ाई में वह अजेय था।

बालि और सुग्रीव एक जैसे दिखते थे, इसलिए पहली बार जब सुग्रीव ने बालि को ललकारा, तो रामचंद्रजी उसकी मदद नहीं कर पाए। अगली बार उल्होंने सुग्रीव के गले में माला डालकर भेजा, ताकि वे उसे पहचान सकें। फिर उन्होंने एक ही तीर से साल के सात वृक्ष भेदकर बालि का वध किया। मरते समय बालि ने रामचंद्रजी से कहा कि अगर तुम अपनी पत्नी खोज रहे थे, तो तुम्हें मुझसे मित्रता करनी चाहिए थी, मैं रावण को हराकर तुम्हारे क़दमों में डाल देता। बालि की मृत्यु के बाद लक्ष्मणजी ने सुग्रीव का राजतिलक कराया और बालि के पुत्र अंगद को युवराज बना दिया।

55. सुग्रीव का राजमोह

सुग्रीव को राजा बनाने के बाद रामचंद्रजी ने कहा कि वे चौदह वर्ष तक नगर में नहीं आ सकते, इसलिए वे पर्वत पर ही रहेंगे, लेकिन राजा बनकर तुम मेरा काम मत भूलना और याद से करना। वर्षा ऋतु बीतने के बाद जब शरद ऋतु आ गई, तब भी सीताजी की कोई ख़बर नहीं मिली। तब रामचंद्रजी ने कहा कि राज्य, ख़ज़ाना, नगर और स्त्री को पाकर सुग्रीव मुझे और मेरे काम को भूल गया है। वे लक्ष्मणजी से बोले कि सखा सुग्रीव को केवल भय दिखलाकर आ जाओ।

इधर हनुमानजी ने सुग्रीव को समझाया और सुग्रीव ने हनुमानजी के समक्ष अपनी ग़लती मानी। सुग्रीव ने कहा कि विषयों ने मेरे ज्ञान को हर लिया था, अतः दूतों के समूह भेजो और सबसे कह दो कि एक पखवाड़े में जो नहीं लौटा, उसका मैं स्वयं वध करूंगा। उसी समय लक्ष्मणजी वहां पहुच गए और सुग्रीव को उसकी कृतघ्नता याद दिलाने लगे। तब सुग्रीव ने क्षमा मांगते हुए कहा कि विषय के समान कोई मद नहीं है और यह मुनियों के मन में भी मोह उत्पन्न कर देता है, फिर मैं तो विषयी जीव ही ठहरा। सुग्रीव ने वानरों के समूहों को समझाकर कहा कि यह रामचंद्रजी का कार्य है और महीने भर में सब लौट आना। जो महीने भर में नहीं लौटा, उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। सभी दिशाओं में वानर भेजने के बाद सुग्रीव ने सीताजी का पता लगाने के लिए अंगद, नल, नील, हनुमान, अंगद, जाम्बवान्‌ और हनुमान जैसे श्रेष्ठ योद्धाओं को दक्षिण दिशा में भेजा।

56. स्वयंप्रभा की सहायता

जब हनुमानजी साथियों समेत पहाड़ पर पहुचे, तो राह भटक गए। सभी प्यास के मारे बेहाल थे। तभी उन्होंने देखा कि बहुत से पक्षी पृथ्वी के अंदर एक गुफा में जा रहे थे। हनुमानजी ने सबको वह गुफा दिखलाई और सभी उसमें चले गए। अंदर उन्हें एक उपवन और तालाब दिखा। वहीं एक सुंदर मंदिर था, जिसमें एक तपोमूर्ति स्त्री बैठी थी। सबने उस स्त्री को प्रणाम किया और उसने सबको फल खाने को कहां। वानरों की पूरी बात सुनकर वह बोली कि वह रामचंद्रजी के काम में मदद करना चाहती है। वह तपस्विनी वानरों से बोली, तुम लोग आखें मूँद लो और मैं अपने तपोबल से तुम्हें उस जगह पहुंचा देती हू, जहाँ तुम सीताजी के बहुत निकट पहुँच जाओगे। जब वानरों ने आंखें खोलीं, तो वे समुद्र तट पर खड़े थे। यह तपोमूर्ति स्त्री स्वयंप्रभा थी, जो बाद में रामचंद्रजी के पास गई और उन्हें प्रणाम करके बदरिकाश्रम को चली गई (तुलसीदासजी ने तपस्विनी का नाम नहीं दिया है)।

57. सम्पाती गीध से भेंट

सुग्रीव ने महीने भर की जो अवधि दी थी, वह बीत गईं। तब अंगद, हनुमान आदि वानर विचार करने लगे कि काम तो हुआ नहीं। अब सीताजी की ख़बर लिए बिना लौटकर भी क्या करेंगे, क्योंकि वहां वानरराज सुग्रीव मार डालेगा। सब कहने लगे कि सीताजी को खोजे बिना नहीं लौटेंगे। तभी पर्वत की गुफा में से सम्पाती गीध बाहर आया और उसने कहा कि ईश्वर ने मुझे घर बैठे बहुत सा आहार दे दिया। सम्पाती गीध को देखकर अंगद को जटायु की याद आ गई और उसने चालाकी से कहा कि जटायु के समान धन्य कोई नहीं है, जो श्रीरामजी के कार्य के लिए शरीर छोड़कर परमधाम को चला गया। अंगद का तीर सही निशाने पर लगा, क्योंकि सम्पाती जटायु का बड़ा भाई निकला। जटायु का नाम सुनकर सम्पाती ने वानरों को अभयदान दिया और जटायु के बारे में सवाल पूछने लगा। उसने कहा कि मुझे समुद्र किनारे ले चलो, ताकि मैं जटायु को तिलांजलि दे सकूं। इस सेवा के बदले में मैं तुम्हें सीताजी का पता ठिकाना बता दूंगा कि वे इस समय कहां हैं।

58. सम्पाती और जटायु की कहानी

सम्पाती और जटायु दोनों भाई जवानी में एक बार सूर्य के क़रीब गए। जटायु सूर्य का तेज नहीं सह पाया, इसलिए लौट आया। लेकिन अभिमान में सम्पाती सूर्य के इतने पास चला गया कि उसके पंख ही जल गए। चंद्रमा नाम के मुनि ने सम्पाती से कहा कि त्रेतायुग में ईश्वर मनुष्य के रूप में अवतार लेंगे। उनकी पत्नी को राक्षसों का राजा हर ले जाएगा और उसकी खोज में प्रभु दूत भेजेंगे। उनसे मिलने पर तेरे पंख उग आएंगे, बस तू उन्हें सीताजी का पता बता देना। मुनि के कहे अनुसार सम्पाती ने वानरों को सीताजी का पता बता दिया कि त्रिकूट पर्वत पर लंका बसी है, वहां अशोक उपवन में सीताजी बैठी हुई हैं। यह बताते ही सम्पाती के पंख उग गए।

59. सम्पाती की दूर दृष्टि

सम्पाती गीध ने बताया कि सीताजी उसे दिख रही हैं। उसने वानरों से कहा कि तुम उन्हें नहीं देख सकते, मैं देख सकता हूं, क्योंकि गीध की दृष्टि बहुत दूर तक जाती है और एक तरह से अपार है। बीच में सौ योजन यानी चार सौ कोस का समुद्र है, अतः जो इसे लांघ लेगा, वही श्रीरामजी का कार्य कर सकेगा। लेकिन तुम मत घबराओ, क्योंकि तुम तो ईश्वर के दूत हो, जिनके नाम के स्मरण से पापी भी अपार भवसागर पार कर जाते हैं। इसलिए तुम भय और शंका को अपने दिमाग़ से निकालो और श्रीरामजी का नाम लेकर समुद्र को लांघ जाओ।

60. समुद्र लांघने की चुनौती

जब समुद्र लाँघने की चुनौती सामने आई, तो ऋक्षराज जाम्बवान कहने लगे कि अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ, इसलिए शरीर में बल नहीं बचा है। जब वामन अवतार हुआ था, तब मैंने दो घड़ी में ही दौड़कर उस शरीर की सात प्रदक्षिणाएँ कर ली थीं। अंगद ने कहा कि मैं समुद्र के पार चला तो जाऊँगा, परंतु लौटने में कुछ संदेह है। इस पर जाम्बवान्‌ ने हनुमानजी से कहा कि तुम तो पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि और विवेक की खान हो। रामचंद्रजी के कार्य के लिए ही तुम्हारा अवतार हुआ है। जगत में ऐसा कौन सा कठिन काम है, जो तुमसे न हो सके! जाम्बवान की यह बात सुनकर हनुमानजी को अपना बल याद आया और वे प्रेरित हो गए। तुरंत ही उन्होंने अपना शरीर पर्वत जितना बड़ा कर लिया। वे बोले, मैं इस समुद्र को खेल में ही लाँध सकता हूं और पूरे त्रिकूट पर्वत को उखाड़कर यहाँ ला सकता हूँ। हे जाम्बवानू, मुझे बस इतना बता दो कि करना क्या है। तब जाम्बवान्‌ ने कहा कि सीताजी को देखकर लौट आओ और उनकी ख़बर बता दो। फिर रामचंद्रजी ख़ुद अपने बाहुबल से राक्षसों का संहार करके सीताजी को ले आएँगे।

 सुन्दरकाण्ड

61. हनुमानजी की कर्मठता

जब हनुमानजी समुद्र लांघकर लंका की ओर जा रहे थे, तो समुद्र ने मैनाक पर्वत से कहा कि श्रीरघुनाथजी के दूत को अपने ऊपर विश्राम करने दो, ताकि उसकी थकावट दूर हो जाए। जब मैनाक पर्वत ने हनुमानजी से आराम करने को कहा, तो उन्होंने मैनाक पर्वत को प्रणाम करके बोला कि आपकी कृपा के लिए धन्यवाद, लेकिन मैं आराम नहीं कर सकता। श्रीरामचंद्रजी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहां?

62. सुरसा की परीक्षा

जब देवताओं ने पवनपुत्र हनुमानजी को समुद्र लांघते देखा, तो उन्होंने उनकी परीक्षा लेने के लिए सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा। सुरसा ने हनुमानजी से कहा कि वह उन्हें खा जाएगी। हनुमानजी ने कहा कि रामचंद्रजी का काम करके लौट आऊं और सीताजी की ख़बर प्रभु को सुना दूं, उसके बाद तुम मुझे खा लेना। लेकिन सुरसा नहीं मानी और बोली कि उसके मुंह में जाए बिना हनुमानजी आगे नहीं जा सकते। सुरसा ने योजन भर मुंह फैलाया, तो हनुमानजी ने उससे दोगुना शरीर कर लिया। सुरसा ने सोलह योजन का मुख फैलाया, तो हनुमानजी ने अपना शरीर उससे दोगुना कर लिया। जब सुरसा ने सौ योजन का मुख फैलाया, तो हनुमानजी लघु रूप धारण करके सुरसा के मुख में घुसकर तुरंत बाहर निकल आए और विदा मांगने लगे। तब सुरसा ने कहा कि तुममें सचमुच बुद्धि और बल है, तभी तुम इस कठोर परीक्षा में सफल हो गए हो। तुम अवश्य ही श्रीरामचंद्रजी के सारे कार्य करोगे।

63. सिंहिका वध

समुद्र पार करते समय हनुमानजी का मुकाबला सिंहिका नामक एक राक्षसी से हुआ (गोस्वामीजी ने नाम नहीं दिया है)। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। उसे ब्रह्माजी का वरदान था कि वह परछाईं के सहारे किसी को भी नियंत्रित कर सकती है। वह जल में परछाई देखकर पक्षियों की छाया को पकड़ लेती थी, जिससे वे उड़ नहीं पाते थे और समुद्र में गिर जाते थे, जिससे वह उन्हें खा लेती थी। जब उसने हनुमानजी के साथ ऐसा करने की कोशिश की, तो हनुमानजी तुरंत उसका कपट पहचान गए। वे उसके मुख के अंदर गए और उसका पेट फाड़कर बाहर निकल आए। इस तरह सिंहिका राक्षसी का अंत हुआ।

64. लंकिनी प्रसंग

जब हनुमानजी लंका के पास पहुंच गए, तो उन्होंने सोचा कि अत्यंत लघु रूप में रात को नगर में प्रवेश करना उचित रहेगा। यह सोचकर उन्होंने मच्छर जितना लघु रूप बनाया। लंका के द्वार पर लंकिनी नामक राक्षसी पहरा दे रही थी। वह हनुमानजी से बोली, तू कहां जा रहा है, तू तो मेरा आहार है। तब हनुमानजी ने उसे एक घूसा मारा, जिससे वह ख़ून की उलटी करती हुई ज़मीन पर गिर गई। तब लंकिनी हनुमानजी से हाथ जोड़कर बोली कि पहले मैं ब्रह्माजी की द्वारपाल थी। मुझमें अहंकार देखकर ब्रह्माजी ने मुझे राक्षसों के नगर की पहरेदारी करने का शाप दिया। जब मैंने अपनी ग़लती की क्षमा मांगी, तो उन्होंने बताया कि वह इस शाप से तभी मुक्त होगी, जब कोई वानर उसे अपनी शक्ति से ज़मीन पर गिरा देगा और इसके बाद राक्षसों का अंत हो जाएगा।

65. हनुमानजी विभीषण परिचय

हनुमानजी लघु रूप में पूरी लंका में घूमे। घूमते घूमते उन्हें एक सुंदर महल में भगवान का मंदिर दिखा। हनुमानजी को आश्चर्य हुआ कि राक्षसों की नगरी में भगवान का मंदिर किसने बना रखा है। तभी विभीषण ने जागकर राम नाम लिया। राम नाम का उच्चारण सुनकर हनुमानजी प्रसन्‍न हुए और उन्होंने सोचा कि इस व्यक्ति से ज़रूर पहचान करनी चाहिए, क्योंकि साधु व्यक्ति से परिचय करने से कार्य में लाभ होता है। इसलिए वे ब्राह्मण के रूप में प्रकट हो गए। तब विभीषण ने कहा कि मैं लंका में ऐसे रहता हू, जैसे दांतों के बीच में बेचारी जीभ रहती है। फिर विभीषण ने ईश्वर के कार्य में सहयोग करते हुए हनुमानजी को सीताजी के दर्शन का उपाय बता दिया।

66. सीताजी को रावण की घमकी

हनुमानजी मच्छर जितने लघु रूप में अशोकवन में पहुच गए और सीताजी को देखकर मन ही मन प्रणाम किया। तभी रावण बहुत सी स्त्रियों को लेकर वहां आया और बोलने लगा कि तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही, मैं मंदोदरी आदि सब रानियों को तुम्हारी दासी बना दूंगा। जब सीताजी ने जवाब में कटु वचन बोले, तो रावण ने सब राक्षसियों को बुलाकर कहा कि सीताजी को डराओ धमकाओ। अगर इसने महीने भर में मेरी बात नहीं मानी, तो मैं इसे तलवार से मार डालूंगा।

67. त्रिजटा का सपना

सीताजी की पहरेदार राक्षसियों में त्रिजटा नामक राक्षसी भी थी, जो रामचंद्रजी की भक्त थी। उसने बाक़ी पहरेदारों को अपना स्वप्न सुनाया और कहा कि सपने में एक बंदर ने लंका जला दी, राक्षसों की सारी सेना नष्ट हो गई और रावण नंगा होकर गदहे पर बैठा है, उसके सिर मुँडे हुए हैं तथा बीसों भुजाएं कटी हुई हैं। वह यमपुरी की दिशा यानी दक्षिण दिशा में जा रहा है और विभीषण लंका का राजा बन गया है। त्रिजटा ने कहा कि यह स्वप्न अवश्य सच होगा। यह सुनकर सभी पहरेदार राक्षसियां सीताजी के चरणों में गिर गईं।

68. हनुमानजी सीताजी संवाद

एकांत मिलते ही हनुमानजी ने सीताजी के सामने रामचंद्रजी की दी हुई अंगूठी डाल दी। सीताजी उसे देखकर सोच में पड़ गईं। फिर हनुमानजी श्रीरामचंद्रजी के गुणों का बखान करने लगे। पूरी कथा सुनने के बाद सीताजी बोलीं, तुम कौन हो और सामने क्‍यों नहीं आते? तब हनुमानजी पास जाकर बोले, माता जानकी, मैं श्रीरामचंद्रजी का दूत हूं। यह अंगूठी मैं ही लाया हू। श्रीरामचंद्रजी ने मुझे यह निशानी के लिए दी थी। हनुमानजी ने सीताजी को ढांढस बंधाते हुए कहा कि मैं आपको अभी यहां से ले जा सकता हूँ, पर प्रभु की आज्ञा नहीं है।

सीताजी ने कहा कि बंदर बहुत छोटे होते हैं, जबकि राक्षम बलवान योद्धा हैं, तुम इन्हें कैसे मारोगे? तब हनुमानजी ने उन्हें अपना विशाल रूप दिखाया। हनुमानजी ने सीताजी से कहा कि हे माता, कोई निशानी दें, जिससे मैं स्वामी को विश्वास दिला सकू कि मैं आपसे मिलकर आया हूं। तब सीताजी ने उन्हें अपनी चूड़ामणि उतारकर दे दी (एक किंवद्द॑ती है, जिसका उल्लेख रामचरित मानस में नहीं है, कि यदि सीताजी चूड़ामणि नहीं देती, तो रावण को हराया नहीं जा सकता था, क्योंकि इस चूड़ामणि के साथ यह वरदान जुड़ा था कि इसे पहनने वाला जिस राज्य में रहेगा, उसका राजा कभी युद्ध में नहीं हारेगा)।

69. अशोकवाटिका का घ्वंस

हनुमानजी ने सीताजी से कहा कि सुंदर फल वाले वृक्षों को देखकर भूख लग आई है, अतः आपकी आज्ञा हो, तो खा लूं। आज्ञा मिलने के बाद वे बाग में घुसकर फल खाने लगे, वृक्ष तोड़ने लगे और रखवालों को मारने लगे। जब रावण को पता चला कि कोई बंदर अशोकवाटिका उजाड़ रहा है, तो उसने बहुत से योद्धा भेजे, जिन्हें हनुमानजी ने मार डाला। फिर रावण ने अपने पुत्र अक्षयकुमार को भेजा, लेकिन हनुमानजी ने उसे भी मार डाला। तब रावण ने अपने तेजस्वी पुत्र मेघनाद को भेजकर कहा कि उस बंदर को मारना नहीं, बस बांधकर ले आना, ताकि पता तो चले कि वह बंदर कहाँ से आया है और उसके आने का उद्देश्य क्या है। अंत में मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र चलाया। हनुमानजी ने सोचा कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं माना, तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी। इसलिए उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। तब मेघनाद उन्हें नागपाश से बांधकर रावण की सभा में ले आया।

70. लंकादहन

जब मेघनाद हनुमानजी को नागपाश में बांघकर लाया, तो रावण उन्हें मारने का आदेश दे रहा था, लेकिन तभी विभीषण ने कहा कि दूत को मारना नहीं चाहिए, क्योंकि यह नीति के विरुद्ध है। यह सुनकर रावण ने कहा कि बंदर की ममता पूछ पर होती है, अतः तेल में कपड़ा डुबाकर इसकी पूंछ में बांध दो और आग लगा दो। यह सुनते ही हनुमानजी मन ही मन मुस्कुराए कि सरस्वतीजी ने ही इसकी बुद्धि ऐसी कर दी है कि यह मूर्ख अपने विनाश को ख़ुद आमंत्रित कर रहा है। हनुमानजी ने अपनी पूंछ इतनी लंबी कर ली कि इस पर कपड़ा लपेटने में पूरे शहर का कपड़ा और घी तेल लग गया, जिसके बाद नगर में न कपड़ा बचा, न ही घी, तेल।

पूंछ में आग लगने के बाद हनुमानजी ने लघु रूप बनाकर ख़ुद को बंधनमुक्त किया और महलों पर कूदने लगे। ईश्वर की प्रेरणा से हवा भी तेज़ चलने लगी और पूरा शहर जलने लगा। हनुमानजी ने विभीषण के घर को छोड़कर सारा शहर जला डाला। चूँकि हनुमानजी स्वयं ईश्वर के दूत थे, जिन्होंने अग्नि को बनाया था, इस कारण वे अग्नि से नहीं जले। पूरी लंका को जलाने के बाद हनुमानजी समुद्र में कूद गए और अपनी पूछ बुझा ली।

71. मधुवन में उत्पात

जब हनुमानजी सीताजी की ख़बर लेकर लौटे, तो उनके साथी वानर बहुत प्रसन्‍न हुए। तब सब लोग मधुवन में गए और अंगद की सम्मति से सबने मीठे फल खाए। रखवालों के रोकने पर वानर उन्हें पीटने लगे। तब सब रखवालों ने सुप्रीव के पास जाकर शिकायत की कि युवराज अंगद मधुवन उजाड़ रहे हैं। सुग्रीव ने अनुमान लगाया कि वानर प्रभु का काम संपन्‍न करके आ रहे हैं। अगर उन्हें सीताजी की ख़बर नहीं मिली होती, तो वे मधुवन के फल नहीं खाते। और सुग्रीव का अनुमान बिलकुल सही था।

72. मंदोदरी की नेक सलाह

मंदोदरी ने रावण को समझाने की कोशिश की कि जब दूत इतनी तबाही मचाकर गया है, तो स्वामी के आने पर क्या होगा? यह सुनकर अभिमानी रावण बहुत हँसा और बोला कि स्त्रियों का स्वभाव सचमुच बहुत डरपोक होता है। उनका मन कच्चा और कमज़ोर होता है। यदि वानरों की सेना आएगी, तो राक्षसों को खाने को मिलेगा। लोकपाल भी जिसके डर से कांपते हैं, उसकी पत्नी अगर डरती है, तो यह हँसी की बात है। यह कहकर रावण ने मंदोदरी को गले लगा लिया।

73. मंत्रियों की चापलूसी

जब रावण को समाचार मिला कि शत्रु की सेना समुद्र के उस पार इकट्ठी हो गई है, तो उसके मंत्रियों ने कहा कि आपने बिना मेहनत के देवताओं और राक्षसों को सहज ही जीत लिया है, फिर मनुष्य और वानर किस गिनती में हैं? गोस्वामीजी कहते हैं कि जब मंत्री, वैद्य और गुरु ये तीन लोग अप्रसन्‍नता के भय या लाभ की आशा से हितकारी बात न कहकर कानों को प्रिय लगने वाली बात बोलने लगते हैं, तो क्रमशः राज्य, शरीर और धर्म का शीघ्र नाश हो जाता है। विभीषण ने नेक सलाह दी कि परस्त्री के ललाट को चौथ के चंद्रमा की तरह त्याग दें। अर्थात्‌ जिस तरह लोग चौथ के चंद्रमा को नहीं देखते, उसी तरह परस्त्री का मुख न देखें। उन्होंने सलाह दी, वैर छोड़कर श्रीरामचंद्रजी को प्रणाम करो और सीताजी को वापस करके उनकी शरण में जाओ, क्योंकि वे साक्षात प्रभु हैं। अपने शत्रु का गुणगान सुनकर रावण ने विभीषण को लात मारी और विभीषण लंका छोड़कर जाने लगे। जाते-जाते वे कहने लगे कि तुम्हारी समा काल के वश में है और अब मैं श्री रामचंद्रजी की शरण में जा रहा हूँ, मुझे दोष न देना।

74. विभीषण का राजतिलक

वानरों ने जब विभीषण को देखा, तो सुग्रीव ने रामचंद्रजी से कहा कि रावण का भाई आपसे मिलने आया है। उसने यह शंका भी जताई कि शायद वह हमारा भेद लेने आया है, इसलिए उसे बांधकर रखना उचित होगा। जब रामचंद्रजी ने देखा कि विभीषण प्रेमवश रावण का त्याग करके आया है, तो उन्होंने तुरंत ही समुद्र का जल मंगाया और विभीषण का राजतिलक करके उसे लंका का राजा बना दिया। शिवजी ने जो संपत्ति रावण को दस सिरों की बलि देने पर दी थी, वही संपत्ति श्रीरघुनाथजी ने विभीषण को अपना सेवक जानकर सहज में ही दे दी।

75. समुद्र से प्रार्थना

लंका को जीतने की राह में सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि समुद्र को पार कैसे करें। रामचंद्रजी ने सुग्रीव और विभीषण दोनों से पूछा कि समुद्र को कैसे पार करें। विभीषण ने कहा कि हे रघुनाथ, हालाँकि आपका एक ही बाण समुद्र को सोख सकता है, तथापि नीति यही कहती है कि पहले समुद्र से प्रार्थना की जाए। समुद्र अवश्य ही कोई ऐसा उपाय बता देगा, जिससे रीछों और वानरों की सारी सेना बिना मेहनत के समुद्र के पार उतर जाएगी। रामचंद्रजी ने कहा कि यदि दैव सहायक हों, तो यही उचित है। यह सलाह लक्ष्मणजी को पसंद नहीं आई। वे बोले, क्रोध करके समुद्र को सुखा डालें! उन्होंने कहा, दैव का क्या भरोसा! यह दैव तो कायर के मन को तसल्ली देने का तरीक़ा है। आलसी लोग ही दैव दैव पुकारते हैं। 'कादर मन कहु एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा।।'

76. रामचंद्रजी का क्रोध

जब तीन दिन की प्रार्थना के बाद भी समुद्र ने प्रार्थना स्वीकार नहीं की, तो रामचंद्रजी क्रोधित हो गए और बोले कि भय दिखाए बिना काम नहीं होता है, 'बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।' उन्होंने लक्ष्मणजी से धनुष बाण लाने को कहा, ताकि वे अग्निबाण से समुद्र को सुखा दें। रामचंद्रजी के धनुष चढ़ाते ही और भयानक अग्निबाण का संधान करते ही समुद्र के अंदर के जीव व्याकुल हो उठे और तब समुद्र सोने के थाल में रत्न भरकर ब्राह्मण के रूप में बाहर आया। समुद्र ने प्रभु के चरण पकड़कर कहा, हे नाथ, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ये स्वभाव से ही जड़ होते हैं, अतः इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। तब रामचंद्रजी ने समुद्र से उपाय पूछा कि वानरों की सेना किस तरह समुद्र लांघ सकती है। समुद्र ने कहा कि नील और नल नामक दो वानर भाइयों को यह वरदान मिला हुआ था कि उनके छूने से पत्थर तैर जाएंगे। समुद्र ने कहा कि उनके छूते ही भारी भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएंगे।


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