रामचरित मानस की 101 कहानियां- भाग 2 | डॉ. सुधीर दीक्षित

 रामचरित मानस की 101 कहानियाँ- इसमे लेखक ने युवा पीढ़ी को कम शब्दों में रामचरितमानस के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए लिखी है, इसे आप मात्र 1 घंटे का समय निकाल कर आसानी से पढ़ सकते हैं। लेखक (डॉ. सुधीर दीक्षित जी) ने इसमें इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि आप अध्ययन के दौरान रोचकता का अनुभव करेंगे।

इस के प्रकाशन का एकमात्र कारण ब्लॉग पाठकों को रामचरित मानस के गूढ़ ज्ञान को सरल भाषा व कम समय में प्राप्त करवाना है। जिसके रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास जी है। डॉ. सुधीर दीक्षित जी को सादर आभार क्योंकि उन्होंने इसके महत्व को जनसामान्य के लिए इस कृति का लेखन किया।

रामचरित मानस की 101 कहानियाँ


अयोध्याकाण्ड

21. रामचंद्रजी को युवराज बनाने का निर्णय

एक दिन जब राजा दशरथजी दर्पण में अपना मुंह देखकर मुकुट सीधा कर रहे थे, तो उन्होंने देखा कि कानों के पास बाल सफ़ेद हो गए हैं, मानो बुढ़ापा उपदेश दे रहा हो कि हे राजन, अब रामचंद्रजी को युवराज पद देकर गृहस्थ जीवन छोड़ो। तब दशरथजी ने गुरु वशिष्ठजी से कहा कि रामचंद्रजी को युवराज बना दें, ताकि मन में कोई हसरत बाक़ी न रहे और जीवन में कोई पछतावा न रहे। यह समाचार सुनकर सभी अयोध्यावासी ख़ुश हो गए।

22. मंथरा और बुद्धि का फेर

मंथरा कैकेयी की मुहलगी दासी थी। जब रामचंद्रजी का राजतिलक होने वाला था, तो देवताओं ने सोचा कि अगर राम अयोध्या के राजा बन गए, तो राक्षमों का विनाश कौन करेगा और देवताओं के दुख दूर कैसे होंगे, इसलिए उन्होंने देवी सरस्वती से अनुरोध किया कि वे कोई ऐसा उपाय करें, जिससे रामचंद्रजी का राजतिलक न हो पाए और वे राज्य त्यागकर वन को चले जाएं, ताकि देवताओं का कार्य सिद्ध हो। देवी सरस्वती ने देवताओं के लाभ के लिए कैकेयी की कम अक्ल दासी मंथरा की बुद्धि फेर दी।

बुद्धि भ्रष्ट होने के बाद मंथरा ने रानी कैकेयी से कहा कि तुम्हारा सगा पुत्र भरत तो ननिहाल में है और राजा ने उसे चालाकी से वहां भेजा है, ताकि यहां चुपके से रामचंद्रजी को राजगद्दी दे दी जाए। कौसल्या तुमसे जलती है, क्योंकि राजा का तुम पर विशेष प्रेम है। इस राज्याभिषेक के बाद तुम्हें रामचंद्रजी की मां कौसल्या की दासी बनकर रहना पड़ेगा। जब कैकेयी ने कहा कि वे जीतेजी किसी की दासी नहीं बनेंगी, तो मंथरा ने उन्हें एक उपाय बताया। वह बोली कि तुम राजा से वो दो वरदान मांग लो, जो तुमने अब तक नहीं मांगे हैं; एक तो भरत का राजतिलक और दूसरा राम को चौदह वर्ष का वनवास।

मंथरा को अपना सबसे बड़ा हितैषी मानते हुए कैकेयी कोपभवन में चली गई और उसने राजा से ये दो वरदान मांग लिए कि भरत को राजा बनाओ और राम को वनवास भेजो। राजा वरदान देने के लिए विवश थे, क्योंकि 'रघुकुल रीति सदा चलि आईप्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई।।' दशरथजी ने कहा कि भरत को राजा बनाने में कोई समस्या नहीं है, क्योंकि रामचंद्रजी को राज्य का लोभ नहीं है, लेकिन राम के वनवास वाला वरदान मत मांगो,

नहीं तो मैं जी नहीं पाऊगा। लेकिन कैकेयी अपनी ज़िद पर अड़ी रही, क्योंकि देवी देवताओं की यही इच्छा थी।

23. वचन सोच समझकर दें

यह कथा रामचरित मानस में नहीं है, लेकिन बहुत प्रचलित है। जब राजा दशरथ देव दानव युद्ध में देवताओं की मदद करने गए थे, तो साथ में रानी कैकेयी को भी ले गए थे, जो उन्हें अति प्रिय थीं। युद्ध में दशरथ
का धुरा टूट गया और संबरासुर का तीर राजा के कवच को भेदकर सीने में लगा। कैकेयी उस समय दशरथजी का रथ चला रही थीं और वे रथ को युद्ध से दूर ले गईं। उस समय कैकेयी ने धुरे में अपना बायाँ हाथ लगाकर रथ को टूटने से बचाया और दायें हाथ से रथ चलाती रहीं। एक ऋषि के वरदान के कारण कैकेयी का बायाँ हाथ वज्र की तरह मज़बूत था।

दशरथजी कैकेयी की वीरता देखकर बहुत ख़ुश हुए। उन्होंने प्रसन्न  होकर कैकेयी से कहा कि वे कोई भी दो वरदान माँग लें। कैकेयी ने कहा कि वे बाद में मांगेंगी।

24. सीताजी का निर्णय

सीताजी को कौसल्याजी ने और फिर रामचंद्रजी ने समझाया कि वे वन जाने के बारे में न सोचें, क्योंकि वन में दुख ही दुख हैं। यदि प्रेमवश हठ करोगी, तो दुख पाओगी। वहाँ की धूप, जाड़ा, वर्षा और हवा सभी बड़े भयानक हैं। रास्ते में काँटे और कंकड़ हैं। उन पर बिना जूते के पैदल चलना होगा। तुम्हारे पैर कोमल और सुंदर हैं। कैसे चलोगी? वहां हिंसक जानवर भी रहते हैं। ज़मीन पर सोना होगा, पेड़ों की छाल के वस्त्र पहनना होगा और कन्‍द मूल व फल खाना होगा। तुम तो स्वभाव से ही कोमल और डरपोक हो, जबकि वन की भयंकरता से तो साहसी मनुष्य भी डर जाते हैं, क्योंकि वहां भीषण सर्प, भयानक पक्षी और राक्षस रहते हैं। तुम वन जाने के योग्य नहीं हो। लेकिन जानकीजी ने कहा कि हे स्वामी, आपके बिना स्वर्ग भी मेरे लिए नरक के समान है। उन्होंने कहा कि जैसे बिना जीव के देह और बिना जल के नदी होती है, वैसे ही बिना पुरुष के स्त्री होती है। प्रभु के साथ मुझे क्या डर है? मैंने आपकी सेवा का वचन दिया है और अगर आप वन जा रहे हैं, तो मैं भी सेवा करने के लिए आपके साथ वन में चलूगी।

25. वनगमन

रामचंद्रजी के वनगमन के अवसर पर पूरे अयोध्या में हाहाकार मच गया और लंका में बुरे शकुन होने लगे। देवलोक में सब हर्षित हो गए, क्योंकि उन्हें इस बात का हर्ष था कि उनके कष्टों का अब अंत होगा और राक्षसों का नाश होगा। अयोध्यावासी वर्तमान दुख से दुखी हो रहे थे, जबकि लंकावासी भावी दुख की आशंका से दुखी हो रहे थे। सिर्फ़ देवता ही भावी सुख की कल्पना करके ख़ुश थे। ध्यान रखें, बुरी दिखने वाली परिस्थिति के परिणाम सुखकारी भी हो सकते हैं। विपत्ति में प्राय: सौभाग्य का बीज छिपा होता है। रामचंद्रजी का वनगमन बहुत बुरा दिख रहा था, लेकिन इसी कारण राक्षसों का संहार होने वाला था, हालाँकि उस समय देवताओं को छोड़कर कोई यह बात नहीं जानता था। काल की गति अनिर्वचनीय है, अत: कोई नहीं जानता कि किस घटना से परिणामों की वह श्रृंखला शुरू हो जाएगी, जो विपत्ति को अंततः सौभाग्य में बदल देगी।

26. केवट का हठ

जब गंगा नदी के तट पर आने के बाद रामचंद्रजी ने केवट से नाव लाने को कहा, तो उसने प्रेमवश इंकार कर दिया। निषादराज केवट ने कहा कि वह नाव इसलिए नहीं लाएगा, क्योंकि अहल्या की तरह कहीं उनके पैर लगते ही वह नाव स्त्री न बन जाए। जब इन चरणों को छूते ही पत्थर की शिला सुंदर स्त्री हो गई, तो मेरी नाव भी स्त्री बन जाएगी, जिससे मेरी रोज़ी रोटी का सहारा चला जाएगा। मैं इसी नाव से परिवार का पेट पालता हूं, इसलिए अगर आप नाव में बैठना चाहते हैं, तो पहले मुझे अपने पैर पखाले दें, तभी मैं नाव पर चढ़ाऊगा। इस तरह पैर पखारने के बाद केवट ने उन्हें गंगा पार कराई।

जब रामचंद्रजी केवट को नाव की उतराई देने लगे, तो केवट ने मना करते हुए उनके चरण पकड़ लिए। गोस्वामीजी ने इसका वर्णन नहीं किया है, लेकिन किंवदंती है कि केवट ने उतराई लेने से इंकार करते हुए कहा कि जैसे मैंने आपको नदी पार कराई है, उसी तरह आप भी मरने के बाद मुझे वैतरणी नदी पार करा देना। यह सुनकर रामचंद्रजी ने हसते हुए उसे वैकुंठ धाम में पहुचाने का वचन दिया।

27. पदचिन्‍हों का सम्मान

सम्मान की पराकाष्ठा देखें। सबसे आगे रामचंद्रजी चल रहे थे, उनके पीछे सीताजी थीं और सबसे पीछे लक्ष्मणजी थे। सीताजी रामचंद्रजी के पदचिन्हों के बीच में पैर रखकर चल रही थीं और इस बात से डर रही थीं कि कहीं उनके पैर भगवान के पदचिन्हों पर न पड़ जाएँ। इसी तरह लक्ष्मणजी भी मर्यादा की रक्षा कर रहे थे। वे सीताजी और समचंद्रजी दोनों के पदचिन्हों को बचाते हुए उन्हें दाहिने रखकर चल रहे थे।

28. चित्रकूट

जब रामचंद्रजी चित्रकूट पहुचे, तो उनका मन वहां रम गया। यह देखकर देवता अपने मुख्य भवननिर्माता विश्वकर्माजी को लेकर वहां पहुंच गए। सभी देवताओं ने कोल भीलों के वेष में आकर दिव्य पत्तों तथा घास के सुंदर घर बना दिए। उन्होंने दो सुंदर कुटियां बनाईं, जिनमें एक बड़ी और दूसरी छोटी थी।

हमें प्रायः यह पता नहीं होता कि कितने सारे लोग किस तरह से हमारी मदद कर रहे हैं। इसलिए मनुष्य को हर दिन कृतज्ञता का अभ्यास करना चाहिए। देवता जब हमारी मदद करते हैं, तो हमें यह पता नहीं होता कि वे किस वेष में या किस मनुष्य के माध्यम से हमारी मदद कर रहे हैं।

29. परशुरामजी की पितृभक्ति

मानस में परशुरामजी के अपनी मां को मारते का प्रसंग आया है, जो इस प्रकार है। एक बार परशुरामजी की माँ रेणुका पानी लेने नदी पर गईं और वहां एक सुंदर गंधर्व को तैरते देखकर उस पर मोहित हो गईं। वे भूल गईं कि उनके पति जमदग्नि पूजन के पानी का इंतज़ार कर रहे हैं। जब वे लौटकर आईं, तो जमदग्नि ने जान लिया कि पराए मर्द पर मोहित होने के कारण उनकी पत्नी को देर हुई है। इस पर गुस्सा होकर उन्होंने कुल्हाड़ी देकर अपने पांचों पुत्रों को एक एक करके आदेश दिया कि वे अपनी माँ की हत्या कर दें। जैसे जैसे पुत्र इंकार करते गए, जमदग्नि उन्हें पत्थर में बदलते गए। जब बाक़ी चारों पुत्र पत्थर की शिला में बदल गए, तो सबसे छोटे पुत्र परशुराम ने अपनी मां को कुल्हाड़ी से मार डाला। जमदग्नि ने जब इस पर प्रसन्‍न होकर वरदान मांगने को कहा, तो परशुरामजी ने यह वरदान माँगा कि उनकी मां और भाई दोबारा जीवित हो जाएं और उन्हें यह घटना याद न रहे।

इस प्रसंग का भली भाँति विवेचन करना महत्वपूर्ण है। पहली नज़र में तो किसी स्त्री की हत्या और वह भी माँ की हत्या जघन्य अपराध है, लेकिन परशुरामजी यह भी जानते थे कि अगर उन्होंने पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया, तो वे उन्हें पत्थर का बना देंगे। दूसरी ओर, वे यह भी जानते थे कि अगर वे अपने पिता की आज्ञा का पालन करेंगे, तो पिताजी प्रसन्‍न होकर उन्हें वरदान देंगे और वे अपनी मां के जीवित होने का वरदान माँग लेंगे। यही सोच विचार कर परशुरामजी ने अपनी मां की हत्या की थी। इस तरह अपनी चतुराई और विचारशीलता से परशुरामजी ने अपनी मां को पिता के क्रोध से बचा लिया और किसी तरह का नुक़सान भी नहीं होने दिया।

30. भरतजी पर संदेह

जब भरतजी रामचंद्रजी को लौटाने के लिए वन में जा रहे थे, तो सेना और अयोध्यावासी भी उनके साथ थे, क्योंकि सभी श्रीरामजी के दर्शन करना चाहते थे। जब निषादराज ने भरतजी को सेना सहित आते देखा, तो उन्होंने सोचा कि भरतजी के मन में कपट भाव हो सकता है। यदि मन में कुटिलता न होती, तो सेना साथ क्यों लाते? भरतजी शायद लक्ष्मणजी और रामचंद्रजी को मारकर सुख से निष्कंटक राज्य करना चाहते होंगे। यह सोचकर निषादराज ने अपने लोगों से कहा कि सारी नावें डुबा दो, घाट रोक लो और भरतजी की सेना से जूझकर मरने के लिए तैयार हो जाओ। भरतजी से मुकाबला मैं करूंगा और जीतेजी उन्हें गंगा पार नहीं करने दूगा।

निषादराज ने जब लड़ाई का ढोल बजाने को कहा, तो बाईं ओर छींक हुई। शकुन विचारने वालों ने कहा कि जीत होगा, लेकिन तभी एक बूढ़े ने शकुन विचारकर कहा कि भरतजी से मिल लीजिए, उनसे लड़ाई नहीं होगी, क्योंकि शकुन कह रहा है कि विरोध नहीं है। निषादराज गुह ने उसकी बात मानते हुए कहा कि बिना सोच विचार के जल्दबाजी में कोई काम नहीं करना चाहिए, अन्यथा मूर्ख लोगों को पछताना पड़ता है।

31. भ्रातृप्रेम

भरतजी जब रामचंद्रजी से मिलने जा रहे थे, तो वे समय के फेर पर विचार कर रहे थे। जो रामचंद्रजी कभी महलों में सोने के पलंगों पर सोते थे, अब वे जंगल में पृथ्वी पर कुश बिछाकर सोते हैं। माताएँ रामचंद्रजी की रक्षा ऐसे करती थीं, जैसे पलक नेत्रों की और सांप अपने मणि की रक्षा करते हैं। वही रामचंद्रजी अब जंगलों में पैदल फिरते हैं और कंद मूल तथा फल फूलों से पेट भरते हैं। जिन सीता माता ने ज़मीन पर कोमल पैर नहीं रखा, अब वही जंगल के कठिन रास्तों पर चलने के लिए मजबूर हैं। जिनके शरीर में कभी गरम हवा भी नहीं लगी, वे वन में हर तरह की विपत्तियाँ सह रहे हैं। यह सब विधाता का लिखा हुआ है, जो हो रहा है। भरतजी भी नंगे पैर चल रहे थे। जब उनके साथ के लोगों ने उनसे कहा कि वे घोड़े पर या रथ पर बैठ जाएं, तो उन्होंने कहा कि यह भी कोई बात हुई कि रामचंद्रजी तो पैदल गए और हम रथ, हाथी या घोड़े पर बैठकर जाएँ! उन्होंने कहा, उचित तो यही है कि मैं सिर के बल चलकर जाऊँ, क्योंकि पुत्रमोह के कारण मेरी ही माता ने यह सब कराया है।

32. लक्ष्मणजी का क्रोध

उत्तर दिशा के आकाश में घूल छा रही थी और पशु पक्षी व्याकुल होकर रामचंद्रजी के आश्रम की ओर आ रहे थे। रात को सीताजी ने स्वप्न में देखा था कि भरतजी मिलने आए हैं। तभी कोल भीलों ने आकर बताया कि चतुरंगिनी सेना लेकर भरतजी आ रहे हैं। लक्ष्मणजी ने कहा कि भरतजी नीतिपरायण हैं, लेकिन संभवत: सत्ता मिलने पर वे अहित करने आए हैं, अन्यथा सेना लेकर क्‍यों आते? यह सोचकर लक्ष्मणजी गुस्सा होकर बोले कि भरतजी की करनी का फल मैं उन्हें चखाऊंगा। तभी आकाशवाणी हुई कि किसी भी काम को करने से पहले उचित-अनुचित का भलीभाँति विचार कर लेना चाहिए। जो बिना विचारे जल्दी में किसी काम को करके पछताते हैं, वे बुद्धिमान नहीं होते।

33. कर्म की गति

निषादराज गुह जब भरतजी और अयोध्यावासियों को रामचंद्रजी तक पहुंचने का रास्ता बता रहे थे, तो वे प्रेम के वशीभूत होकर रास्ता भूल गए। ज़रा सोचें, जीवन भर वन में रहने वाले निषादराज प्रेम के वशीभूत होकर रास्ता भूल सकते हैं, तो इंसानों का क्या हाल होता होगा? लेकिन चूँकि निषादराज ईश्वर के प्रेम में रास्ता भूले थे, इसलिए देवताओं ने उन्हें सही रास्ता बतलाया और पुष्पवर्षा की। जब रामचंद्रजी अपनी माताओं से मिले, तो उन्होंने माता कैकेयी से कहा कि उनका कोई दोष नहीं है; यह तो काल, कर्म और विधाता का दोष है। उन्होंने सबको समझाया कि पूरा जगत ईश्वर के अधीन है, इसलिए हमें किसी को भी दोष नहीं देना चाहिए। इसी प्रकार बाद में कौसल्याजी ने कहा कि किसी का दोष इसलिए नहीं है, क्योंकि सुख दुख, लाभ हानि सब कर्म के अधीन है। कर्म की गति कठिन है और इसे विधाता ही जानता है, जो शुभ और अशुभ सभी फल देता है।

34. सत्संग का प्रभाव

अयोध्याकाण्ड में भील जब अयोध्यावासियों की सेवा करते हैं और उन्हें शहद के दोने तथा कंद, मूल, फल आदि देते हैं, तो लोग उन्हें पैसे देना चाहते हैं, पर वे इंकार कर देते हैं। वे कहते हैं कि आप हमारे प्रेम को देखें, दाम देकर हमारे प्रेम का तिरस्कार न करें। आप अतिथि हैं और यह हमारा सौभाग्य है कि हमें आपकी सेवा करने का अवसर मिला। भील सिर्फ लकड़ी और पत्तों से ही सेवा कर सकते हैं। वे ख़ुद को विनीत दिखाते हुए कहते हैं कि हमारी तो यह सेवा ही कम नहीं है कि हम आपके कपड़े और बर्तन नहीं चुरा रहे हैं। हम लोग जड़ जीव हैं, जीवों की हिंसा करते हैं, कुटिल हैं और कुबुद्धि हैं। हम दिन रात पाप करते हैं, फिर भी न तो हमारी कमर में कपड़ा होता है और न ही पेट भरता है। यह तो श्रीरामचंद्रजी के दर्शनों का प्रभाव है कि हम प्रेमपूर्ण हो गए हैं और हमें सुबुद्धि आ गई है।

35. रामचंद्रजी का बड़प्पन

अयोध्याकाण्ड में भरतजी कहते हैं कि रामचंद्रजी का स्वभाव तो मैं जानता हूं। वे अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते हैं। मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह रहा है। मैंने खेल में भी कभी उनकी अप्रसन्‍नता नहीं देखी। मेरे हारने पर भी खेल में प्रभु मुझे जिता देते थे।

मनुष्य का स्वभाव छोटी छोटी बातों से पता चलता है। वह हारने पर कैसी प्रतिक्रिया करता है? वह मुश्किल परिस्थितियों में कैसी प्रतिक्रिया करता है? वह असफलता पर कैसी प्रतिक्रिया करता है? क्या वह बहाने बनाता है या दोष देता है या फिर गुस्सा होकर चिढ़ जाता है? या फिर वह अपनी ग़लती को स्वीकार करता है और उससे सबक़ सीखने का निर्णय लेता है? वह दूसरों को नीचे गिराकर ख़ुद ऊपर उठना चाहता है या फिर अपने हाथ बढ़ाकर दूसरों को ऊपर खींचना चाहता है? बड़प्पन की पहचान यही है कि आप अपने साथियों को जिताएं।

36. प्रेम का नियम

वशिष्ठजी ने कहा कि वैर और प्रेम छिपाए नहीं छिपते हैं। पशु पक्षी मुनियों के पास बेधड़क चले जाते हैं, परंतु हिंसा करने वाले बधिकों को देखते ही भाग जाते हैं। मित्र और शत्रु को तो पशु पक्षी भी पहचानते हैं। फिर मनुष्य का शरीर तो गुण और ज्ञान का भंडार है, अतः यह पहचान मनुष्यों को सहज ही होती है।

हमें ऐसे मित्र चुनने चाहिए, जो उसी रास्ते पर जा रहे हों, जिधर हम जा रहे हैं। हमें मित्र और शत्रु के अंतर को समझना चाहिए और यह ध्यान रखना चाहिए कि कई बार तो हमारा मित्र भी शत्रु बन सकता है, यदि वह हमें ग़लत रास्ते पर ले जाए या हमें ग़लत आदतें सिखाए। मनुष्य को विवेक से कार्य करके मित्रों को परखने के बाद ही मित्रता करनी चाहिए।

37. सेवाधर्म की कठिनता

अयोध्याकाण्ड में भरतजी कहते हैं कि जगत जानता है कि सेवाधर्म बड़ा कठिन होता है। स्वामी के प्रति कर्तव्यपालन और अपने ख़ुद के स्वार्थ में विरोध होता है यानी दोनों एक साथ नहीं निभ सकते। भरतजी आगे कहते हैं कि सेवक को कपट, स्वार्थ और चारों पुरुषार्थों अर्थ, घर्म, काम और मोक्ष को छोड़कर स्वाभाविक प्रेम से स्वामी की सेवा करना चाहिए और आज्ञापालन से बढ़कर कोई दूसरी सेवा नहीं है। रामचंद्रजी ने कहा है कि सेवक हाथ, पैर और नेत्रों के समान होना चाहिए, जबकि स्वामी मुख के समान होना चाहिए। 'मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुं एक। पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।' बन में रामचंद्रजी ने भरतजी को नीति का यह उपदेश दिया कि मुखिया को मुख के समान होना चाहिए, जो पूरे शरीर में खाने वाला इकलौता अंग होता है, लेकिन वह विवेकपूर्वक सभी अंगों का पालन पोषण करता है। यही राजधर्म का पूरा सार है।

38. देवराज इंद्र का भय

जब देवताओं ने देखा कि भरतजी, जनकजी और वशिष्ठजी के स्नेह में रामचंद्रजी प्रेममय हो गए हैं, तो वे घबरा गए कि कहीं उनके आग्रह पर रामचंद्रजी अयोध्या न लौट जाएं। तुलसीदासजी कहते हैं कि देवराज इंद्र कपट और कुचाल की सीमा हैं। उन्हें परायी हानि से कोई मतलब नहीं, बस हमेशा अपना लाभ ही देखते हैं। देवराज इंद्र ने सरस्वतीजी से अनुरोध किया कि हे देवि, हम सभी देवता आपकी शरण में आए हैं, हमारी रक्षा करें और अपनी माया रचकर भरतजी की बुद्धि फेर दें। सरस्वतीजी ने स्वार्थी देवताओं से कहा कि भरतजी की बुद्धि फेरने की बात सोचना भी मत! माया का जाल भरतजी की बुद्धि पर असर नहीं डाल सकता, क्योंकि उनके हृदय में सीतारामजी का निवास है। जहा सूर्य का प्रकाश होता है, वहां अंधेरा कैसे रह सकता है? उसी तरह जिस भक्त के हृदय में भगवान का वास होता है, उसे मायाजाल का क्षोभ नहीं होता है और वह भय तथा भ्रम के बंधनों से मुक्त रहता है।

39. यथासंभव सहायता

आपको पता नहीं होता कि आपकी सहायता कौन कर रहा है? अयोध्या के सभी लोग बिना जूते के चल रहे हैं, यह देखकर पृथ्वी ने ख़ुद को कोमल कर लिया। इसने कुश, काँटे, कंकड़, दरारें आदि कठोर और बुरी चीज़ें छिपा लीं तथा मार्गों को सुंदर व कोमल कर दिया। हवा भी गर्म और तीखी चलने के बजाय सुखदायक, शीतल, मंद और सुगंधित हो गई। रास्ते में देवता फूल बरसा रहे थे, बादल छाया कर रहे थे, वृक्ष फल फूल दे रहे थे, मृग जैसे पशु दिखकर आंखों को शीतल कर रहे थे और पक्षी सुंदर वाणी बोलकर कानों में अमृत घोल रहे थे। इस वर्णन से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हर व्यक्ति अपने वश की सहायता करता है, हालाँकि हमें प्राय: इस बात का पता नहीं होता।

40. खड़ाऊँ सिंहासन पर

रामचंद्रजी ने जब भरतजी को सिंहासन पर बैठने को कहा, तो वे राज़ी नहीं हुए और बोले कि वे रामचंद्रजी की खड़ाऊं को सिंहासन पर बैठाएंगे और राजपाट के काम उसी की अनुमति से करेंगे। जब रामचंद्रजी ने अपनी खड़ाऊ दे दी, तो भरतजी ने उन्हें आदरपूर्वक सिर पर धारण किया। भरतजी ने उन्हें रामचंद्रजी की कृपा का प्रतीक मान लिया। भरतजी ने अच्छे मुहूर्त में रामचंद्रजी की खड़ाऊे को सिंहासन पर बैठाया और नंदिग्राम में पर्णकुटी में रहने लगे। वे भी रामचंद्रजी की तरह सिर पर जटाजूट और शरीर पर मुनियों के वल्कल वस्त्र धारण करते थे। वे भोजन, वस्त्र, व्रत, नियम सभी बातों में ऋषियों जैसा आचरण करते थे। उन्होंने समस्त भोगसुख और गहने वस्त्र त्याग दिए। वे हर दिन रामचंद्रजी की खड़ाऊं का पूजन करते थे और उनकी आज्ञा मांग मांगकर सारे काम करते थे।


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