रेलगाड़ी की आत्मकथा पर निबंध

रेलगाड़ी की आत्मकथा पर निबंध 

संकेत बिंदु- (1) मेरा आविष्कार और भारत में आगमन (2) मेरी बनावट और स्थान का सदुपयोग (3) गति के अनुसार मेरे रूप (4) स्टेशन के प्रकार व समय की पाबंदी (5) धर्मनिरपेक्ष स्वरूप और जीवन में महत्त्व।

मेरा आविष्कार और भारत में आगमन

मेरा नाम रेलगाड़ी है। जार्ज स्टीफेन्सन मेरे आविष्कारक थे। यूरोप मेरी जन्म-भूमि है। मैं लोह-पथ गामिनी हूँ। अनेक दशकों तक केवल कोयला ही मेरा भोजन था, पानी मेरे प्राण तथा भाप मेरी शक्ति थी। वैज्ञानिक अनुसंधानों की प्रगति ने मेरी शक्ति के साधन बदले। अब मैं डीजल और बिजली द्वारा भी जीवन-शक्ति ग्रहण करने लगी हूँ।

भारत में मेरा आगमन 16 अप्रैल, 1853 को हुआ। इस शुभ दिन मैं 400 यात्रियों को लेकर बम्बई से थाना के लिए चली थी। आज 147 वर्ष पश्चात् मेरा यौवन विकसित हुआ है। भाप, डीजल तथा बिजली, तीनों की सहायता लेकर मैं यात्रियों की सेवा कर रही हूँ। भारत में न केवल मेरा तेजी से विस्तार हुआ है, अपितु मेरी प्रौद्योगिकी में भी उल्लेखनीय विकास हुआ है। आज लगभग मेरे 10,800 प्रतिरूप 70 लाख से अधिक यात्रियों और 5.5 लाख टन सामान को लगभग 7000 रेल-स्टेशनों तक पहुँचाने की सेवा में रत हैं। 

मेरी बनावट और स्थान का सदुपयोग

मूलतः मैं लौह-निर्मित हूँ और लौह-चरणों (चक्रों) से लोह-पथ पर चलती हूँ। मेरी दुम (डिब्बे : कम्पार्टमेंट्स) लकड़ी की कारीगरी का कौशल हैं। मैं विद्युत्-शक्ति से विभूषित हूँ, आरामदेह, गद्देदार सीटों से अलंकृत हूँ।

मेरा एक-एक डिब्बा वैज्ञानिक तथ्यों के सदुपयोग का प्रमाण है । स्थान का सदुपयोग करना कोई मुझसे सीखे। पूरे परिवार के लिए जो कुछ अनिवार्य है, एक डिब्बे में सभी कुछ प्राप्त है- बैठने के लिए बर्थ, सामान रखने अथवा विश्राम के लिए 'टाँड', क्रास वेंटीलेटेड विंडोज, प्रकाश के लिए बल्ब, हवा के लिए पंखे, शौचालय तथा हाथ-मुँह धोनेके लिए वाश-बेसिन। इन सबके अतिरिक्त आपत् काल  में मेरी गति अवरुद्ध करने के लिए हर डिब्बे में 'खतरे की जंजीर' भी है।

गति के अनुसार मेरे रूप

गति के अनुसार मेरे तीन रूप हैं- पैसेंजर, मेल, सुपरफास्ट। इसी के अनुसार मेरे डिब्बों के भी तीन विभाग हैं- द्वितीय श्रेणी, प्रथम श्रेणी तथा वातानुकूलित। बर्थ-व्यवस्था भी तीन प्रकार की है- लकड़ी के बैंच, गद्देदार सोफा तथा आरामदेह कुर्सियाँ। इसी प्रकार बैठने की तीन व्यवस्थाएं हैं- सार्वजनिक व्यवस्था, 4 या 6 यात्रियों की सामूहिक व्यवस्था तथा एक-एक कमरा (कॉरीडोर) व्यवस्था। इसी प्रकार मेरा शुल्क भी त्रिरूप है- पैसेंजर का कम, मेल का लगभग डेढ़ गुना तथा सुपरफास्ट का लगभग ढाई गुना। अब तो राजधानी एक्सप्रेस, ताज एक्सप्रेस, शताब्दी एक्सप्रेस जैसे अति तीव्रगागी और सब प्रकार की सुविधाओं से सम्पन्न मेरे रूप भी बन चुके हैं। इनसे यात्रियों के समय की पर्याप्त बचत हो जाती है।

भारत में मेरा रूप एशिया में सर्वाधिक विराट् है, तो विश्व में विराट्ता की दृष्टि से मेरा चौथा स्थान है। मेरे लौह-पथ की लम्बाई मात्र भारत में 1,07,360 किलोमीटर है। इसमें 81,121 किलोमीटर बड़ी लाइन है, तो 22,201 किलोमीटर मीटर लाइन तथा 4038 किलोमीटर छोटी लाइनें हैं। (भारत 1999 : पृष्ठ 592)

स्टेशन के प्रकार व समय की पाबंदी

मेरे प्रस्थान करने तथा ठहरने के निश्चित स्थान हैं। इन्हें स्टेशन कहते हैं। स्टेशन भी तीन प्रकार के हैं- छोटे ग्रामीण स्टेशन, बड़े नगरीय स्टेशन (जंक्शन) तथा महान् महानगरीय स्टेशन। ये स्टेशन मेरी व्यवस्था, सुरक्षा के लिए उत्तरदायी हैं। प्रायः स्टेशनों के चार भाग होते हैं- बाहरी प्रांगण, प्रवेश प्रांगण, प्लेटफार्म तथा पटरी। हर जंक्शन पर मेरे पहियों की देखभाल होती है, मुझे पानी प्रदान किया जाता है, हर विशिष्ट अवयव की जाँच होती है।

मैं समय की पाबन्द हूँ। समय की पंक्चुअलिटी को कोई मुझसे सीखे। मेरी गति 'घड़ी की सुइयों' को खुले नेत्रों से देखती रहती है। आप एक सेकिण्ड विलम्ब से स्टेशन पहुंचे, मैं प्लेटफार्म छोड़ रही होती हूँ। यात्रा करते हुए आप किसी स्टेशन पर पानी पीने या जलपान करने उतरे और आपने मेरी चेतावनी की उपेक्षा करके एक क्षण का विलम्ब कर दिया, तो मैं आपकी प्रतीक्षा नहीं करूंगी, आपको चाहे कितनी भी हानि उठानी पड़े। किसी भी स्टेशन पर धक्का-मुक्की में चढ़ न सके या गंतव्य पर उतर न सके, तो मुझे क्षमा कर देना, क्योंकि मैं आपको छह बार चेतावनी देती हूँ- दो बार सीटी बजाकर और दो बार हरी झंडी दिखाकर मेरा अंगरक्षक 'गार्ड' आपको सावधान करता है तथा दो बार मैं सीटी मारती हूँ। मेरे लिए टाइम की कीमत है। मैं जानती हूँ कि मुंह से निकले शब्द और समय कभी वापस नहीं बुलाए जा सकते। तथा 'जो वक्त की जरूरतों को पूरा नहीं करते, वक्त उन्हें बर्बाद कर देता है।'

धर्मनिरपेक्ष स्वरूप और जीवन में महत्त्व

मैं सच्चे अर्थों में धर्म-निरपेक्ष हूँ। सभी जाति, धर्म, सम्प्रदाय तथा प्रांतों के लोग मेरी सवारी करते हैं। एक साथ बैठते हैं, हँसी-ठट्ठा करते हैं। कोई किसी से नफरत नहीं करता। मेरे स्टेशन 'असाम्प्रदायिकता' के जीवन्त प्रतीक हैं। यहाँ के नल, बैंच, शौचालय, प्लेटफार्म का सभी लोग ममान रूप में प्रयोग कर सकते हैं। धर्म-विशेष के कारण किसी को कोई रियायत नहीं, किसी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं।

जीवन-व्यवस्था में जहाँ मेरा महत्त्वपूर्ण स्थान है, वहाँ मैं अत्यन्त शक्तिशाली भी हूँ। 'जो मुझ से टकराता है, चूर-चूर हो जाता है।' मुझे कोई हानि नहीं पहुँचती। बसें, कारें, ट्रक तो मेरे सामने चींटी से हैं। जीवन और जगत् से निराश मानव आत्महत्या करने मेरे लौह-पथ की शरण लेता है। कभी-कभी मेरी दो बहनों (रेलों) की टक्कर यात्रियों का रूप विकृत कर देती है, और उन्हें यमलोक पहुँचा देती है।

भ्रष्टाचार और चरित्र-हीनता आज के भौतिकवादी युग की सबसे बड़ी विकृतियाँ हैं। उसकी काली छाया ने मेरे स्वरूप को विकृत करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। चोरी, डाके, हत्या, बलात्कार मेरे सौन्दर्य को बिगाड़ रहे हैं, तो मेरे डिब्बों से शीशे, पंखे, गद्दों की चोरी, कोयला-डीजल की चोरी मेरी काया को क्षीण कर रहे हैं। कार्य में प्रमाद करने, कार्य के प्रति उपेक्षा भाव या असावधानी के कारण रेलों की टक्कर कराने वाले अधिकारी लोक में मेरी निन्दा कराने पर तुले हैं।

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