मृत्यु : एक अज्ञात रहस्य सूक्ति पर निबंध

मृत्यु : एक अज्ञात रहस्य सूक्ति पर निबंध 

संकेत बिंदु- (1) मृत्यु अवश्यभावी (2) परोपकार की प्रतिमा का अंत असामान्य क्यों (3) मृत्यु के विभिन्न रूप (4) महापुरुषों के जीवन का कष्टदायक अंत (5) उपसंहार।

मृत्यु अवश्यभावी

जिसने जगत् में जन्म लिया है, वह मृत्यु का वरण करेगा ही, चाहे वह 'परित्राणाय साधुनाम्, विनाशाय च दुष्कृताम्' के उद्देश्य से भूतल पर अवतरित होने वाला स्वयं भगवान् ही क्यों न हों। भूलोक को मर्त्यलोक इसीलिए कहा जाता है कि यहाँ का प्रत्येक पंच भौतिक शरीर धारी जीव मरण-धर्मा है।

प्रश्न उठता है कि जब देवता-स्वरूप अवतारी पुरुष भी मृत्यु का आह्वान करते हैं, हिमानी से शीतल मृत्यु अंक में पूर्ण परमानंद की प्राप्ति की चाहना में स्वयं अपनी सचेतन काया को त्यागते हैं तो किस कारण? वे मृत्यु का वरण क्यों करना चाहते हैं ? मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाने वाले श्री राम ने सरयू में समाधि ली। पांडवों ने महाभारत-विजय के सर्वनाश को सहकर भी राज्य किया, किन्तु अंत में देवतात्मा हिमालय की गोद में जाकर शरीर-विसर्जन हेतु हिम में अपने को गला दिया। स्वामी रामतीर्थ ने गंगा में समाधि लगाकर शरीर विसर्जित किया।आचार्य विनोबा भावे और ज्योतिष्पीठ के जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी कृष्ण बोधाश्रम जी अन्न-जल त्याग कर मृत्यु का आलिंगन करने को विह्वल हो उठे। जबकि उनके लिए कोई ऐसी विवशता नहीं थी, जिसके कारण ईसा मसीह को शूली पर चढ़ना पड़ा और सुकरात को विष पीना पड़ा।

परोपकार की प्रतिमा का अंत असामान्य क्यों 

दूसरा प्रश्न उठता है कि जिसका जीवन परोपकार की प्रतिमा हो, उसका अन्त .असामान्य रूप में क्यों होता है ? सोलह कला संपूर्ण, गीता के प्रवक्ता, योगेश्वर श्रीकृष्ण का शरीरांत व्याध के तीर से हुआ। अहिंसा के मंत्र द्रष्टा गौतम बुद्ध की मृत्यु माँस-भक्षण से हुई। महान् समाज सुधारक, वैदिक वाङ्मय के प्रचारक महर्षि दयानन्द को विषयुक्त दुग्ध ने धरा से छीन लिया। विश्ववंद्य बापू (महात्मा गाँधी) को मत-भिन्नता का अभिशाप झेलते हुए गोली का शिकार होना पड़ा।

मृत्यु के विभिन्न रूप

तीसरा प्रश्न तब उठता है कि जब पापी भ्रष्टाचारी भोगासक्त नराधम तो 'हार्ट-अटेक' के एक झटके में, अत्यल्प वेदना में प्राण त्याग देते हैं, किन्तु जीवन-भर समाज-सेवा करने वाले परोपकारी पुरुष रोग से लड़ते हुए, हृदय दहलाने वाली असह्य पीड़ा सहन करते हुए प्राण विसर्जित करते हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस को जीवन के अन्तिम दिनों में मर्मान्तक शारीरिक कष्ट सहना पड़ा। गीता-प्रेस, गोरखपुर के प्राण श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार के (जिन्हें स्नेह और आदरवश लोग 'भाई जी' कहते थे) प्राण उदर-शूल की मर्मान्तक पीड़ा के अटके रहे। श्रद्धालु इस भयावह स्थिति पर रोते रहे और अन्त में 'एक हिचकी आई, मुँह से रक्त का एक कुल्ला निकला और श्री भाई जी चिर निद्रा में सो गए... ...भगवान् की नित्य लीला में लीन हो गए।' (भाई जी : पावन स्मरण, पृष्ठ 512) क्या भाई जी के सेवा-समर्पण में कहीं कुछ दोष था?

महापुरुषों के जीवन का कष्टदायक अंत

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक परम पूजनीय श्री माधव सदाशिवराव गोलवलकर का (श्रद्धा से जिन्हें 'गुरुजी' संज्ञा से संबोधित किया जाता था) सम्पूर्ण जीवन समाज-सेवा में बीता। सच्चाई तो यह है कि उन्होंने समाज-सेवा को ईश्वर-सेवा मानकर उसकी उपासना की थी। उनकी मृत्यु 'कैंसर' जैसे असाध्य रोग, मन और आत्मा को झकझोर देने वाली पीड़ा से हुई। 'सायंकाल का समय। संध्या-वंदन के लिए हाथ-मुँह धोए और फिर उठ न सके।' क्या उनकी वंदना प्रभु के लिए चुनौती थी?

प्रश्न उठता है कि क्या धरा को रामराज्य प्रदान करने वाले प्रभुराम को यह धरा रुचिकर नहीं लगी? धर्म-संस्थापनार्थ जीवन की उद्देश्य पूर्ति का यही प्रायश्चित था कृष्ण के लिए? समाज को ईश्वर-रूप मानकर उसकी पूजा करने वालों को पीड़ा का विषपान करने की बाध्यता का पुरस्कार ही नियति का प्रसाद है ? क्या 'भाई जी' की मर्मान्तक पीड़ा वेदव्यास जी के 'धर्मो रक्षति रक्षितः' वचन को झुठलाती नहीं? जीवनभर समाज रूपी प्रभु वंदना में समर्पित जीवन में पग-पग पर परीक्षा देते हुए भी अन्तिम समय मोक्ष-परीक्षा का यह प्रश्न-पत्र इतना क्लिष्ट क्यों, जिसमें शरीर ही नहीं आत्मा भी विचलित हो जाए? तुलसीदास कहते हैं, 'जीवन कर्मवश दुःख-सुख भागी।' दूसरी ओर वे कहते हैं, 'कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करइ सौ तस फलु चाखा।' स्वयं गोस्वामी तुलसीदास को जीवन के अन्तिम दिनों में मर्मान्तक बाहुपीड़ा सहनी पड़ी। प्रश्न उठता है, क्या इन महापुरुषों के कर्म सुकर्म नहीं थे, जो दुःख भागी बने। गीता कहती है, 'असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः।' अर्थात् जो फल की अभिलाषा छोड़कर कर्म करते हैं उन्हें अवश्य मोक्ष-पद प्राप्त होता है। तो क्या इनके कर्म अभिलापा युक्त थे? नहीं, ऐसा सोचना भी पाप है।

उपसंहार

प्रभु की इस लीला को, मृत्यु के तांडव-नृत्य के रहस्य को, प्रकृति के इस दंड-विधान को, जगन्नियंता की क्रीडा ही मान सकते हैं, जिसका भेद पाना मनुष्य के वश में नहीं है। हाँ, कोई 'कठोपनिषद्' का नचिकेता हो तो सम्भव है, मृत्यु के रहस्य को पा सके।

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