जहाँ चाह वहाँ राह पर निबन्ध

संकेत बिंदु– (1) मानव की अनन्त इच्छाएँ (2) चाह जीवन के उत्कर्ष का द्वार (3) महान् संकल्प ही महान फल का जनक (4) महापुरुषों व विद्वानों की चाह (5) उपसंहार।

ऐसा मनोवेग जो मनुष्य को कोई ऐसी वस्तु प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है, जिससे उसे संतोष या सुख मिल सकता हो, उसकी प्राप्ति में बाधक तत्त्वों के निवारणार्थ वह मार्ग निकाल ही लेता है। प्रेमपूर्वक किसी को चाहने की अवस्था में उत्पन्न बाधाओं को दूर करने के लिए पथ निकल ही आता है। किसी कार्य को करने के लिए जब मनुष्य कटिबद्ध हो जाए तो उसे सम्पन्न करने के लिए कोई न कोई उपाय वह ढूँढ ही लेता है।

मानव की अनन्त इच्छाएँ

मानव की चाह (कामना) आकाश के समान अनन्त है। ऋग्वेद इस अनन्त चाह का समर्थन करते हुए कहता, 'पुलुकामो हि मर्त्यः' अर्थात् मनुष्य विभिन्न कामनाओं, चाहों से घिरा रहता है। मनु-स्मृति तो एक पग आगे बढ़ाते हुए कहती है कि मनुष्य जो कुछ करता है, वह, सब इच्छा (चाह) के कारण है (तत्तत् कामस्य चेष्टितम्)। महाकवि कालिदास कुमारसम्भव में इसी बात का समर्थन करते हैं, 'मनोरथानामगतिर्न विद्यते' (कामनाओं की कोई सीमा नहीं) अर्थात् कामनाएँ कभी समाप्त नहीं होती। महाकवि जयशंकर प्रसाद कामायनी में कहते हैं–

प्यासा हूँ मैं अब भी प्यासा हूँ,
संतुष्ट ओघ से मैं न हुआ।
आया फिर भी वह चला गया,
तृष्णा को तनिक न चैन हुआ।

मनुष्य जीवन में चाह क्यों? इच्छा क्यों? कामना क्यों? क्योंकि पशु और मानव में विवेक-तत्त्व का अंतर है। मानव, मानव इसलिए है कि वह सोचता है, समझता है, चिंतनमनन करता है। यह सोच-समझ, चिंतन-मनन ही चाह को, मनोरथ विशेष को जन्म देता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं, 'आंतरिक प्रवृत्तियों का मंगलमय सामंजस्य बाहर मनोरथ-सौन्दर्य के रूप में प्रकट होता है।' (चारु चन्द्रलेख) 

चाह जीवन के उत्कर्ष का द्वार

सच्चाई यही है कि चाह जीवन के उत्कर्ष का द्वार खोलती है, सुख-सौभाग्य की वर्षा करती है और मंगलमय जीवन का अभयदान देती है।

प्रत्येक नवयुवक की चाह है कि विश्व-सुन्दरी या सिने जगत् की अप्सरा उसकी बीबी हो। हर व्यक्ति की चाह है कि संसार की समस्त समृद्धि और सम्पूर्ण ऐश्वर्य उसके चरणों में पड़े हों। हर धार्मिक प्रवृत्ति व्यक्ति की चाह है कि 'देहान्ते तव सान्निध्यम्' (मोक्ष) प्राप्त हो। हर सामाजिक व्यक्ति की चाह है कि समाज में प्रभु रूप के दर्शन हों। हर राजनीतिक की चाह है कि राष्ट्र का प्रधानमंत्री मैं ही बनूँ। यह असम्भव है। बहादुरशाह 'जफर' रोकर कहते हैं–

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें।
इतनी जगह कहाँ है, दिले दागदार में। (दर्द ए दिल)

तब यह कहना कि जहाँ चाह है, वहाँ राह निकल आती है असत्य है, शेख चिल्ली की कल्पना है, जीवन में कभी नहीं पूरी होने वाली मुराद है। इमली के पेड़ पर बारात का डेग डालना है। शेर का सुई की नोंक से निकल जाना है।

प्रेमचन्द जी कहते हैं, हाय रे मनुष्य के मनोरथ (चाह)! तेरी भित्ति कितनी अस्थिर है। बालू की दीवार तो वर्षा में गिरती है, पर तेरी दीवार तो बिना पानी-बूंद के ढह जाती है। आंधी में दीपक का कुछ भरोसा किया जा सकता है, पर तेरा नहीं।' इसी अविश्वास के क्षणों में यह सम्भव भी है। 'चाह' की व्याख्या की तो पहली शर्त है मनोवेगों की प्रेरणा, दूसरी शर्त है संतोष और सुख। ये शर्ते पूरी होंगी तो राह निकल आएगी। संतोष और सुख के प्राप्त्यर्थ जब मनोवेग प्रेरित होंगे तो मन में प्रबल इच्छा शक्ति जागृत होगी और वह दृढ़ संकल्प धारण करेगा।

महान् संकल्प ही महान फल का जनक

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कहना है, 'महान् संकल्प ही महान् फल का जनक होता है।' (चारु चंद्रलेख)। कहावत भी प्रसिद्ध है, जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ। 'गहरे पानी पैठ' अर्थात् घोर प्रयत्न कर।

महापुरुषों व विद्वानों की चाह

छत्रपति शिवाजी की चाह थी औरंगजेब की कैद से भाग निकलने की। राह निकली, मिठाई के टोकरे में छुपकर निकल भागे। घर में कैद सुभाषचन्द्र बोस की चाह थी, ब्रिटिश हकूमत के विरुद्ध जंग छेड़ने की। राह निकली, पठान वेश में घर से निकले और आजाद हिन्द फौज का निर्माण कर ब्रिटिश राज्य पर सशस्त्र आक्रमण करने में सफल हुए। ऊधम सिंह की चाह थी जलियाँवाला बाग के हत्यारे जनरल डायर से बदला लेने की। वह ब्रिटेन गए और लंदन में जाकर उसे गोली मार दी। वीर सावरकर की चाह थी काले पानी की जेल में काव्य-रचना करने की। काल कोठरी की दीवारों पर लिख-लिखकर, राह निकाली।

मूर्ख कालिदास की चाह थी, पत्नी से अपने गृह निष्कासन का बदला लेने की। राह निकली, संस्कृत-साहित्य-शिरोमणि बन पत्नी को आश्चर्यचकित कर दिया। पत्नी पर सर्वाधिक आसक्त रामबोला रत्नावली के धिक्कारमय कथन को साकार करने की चाह लेकर ससुराल से निकला। राह निकली, तुलसीदास बन वह न केवल स्वयं राममय बना, अपितु समस्त हिन्दू-जगत् को 'सीयाराम मय' बना दिया। पति-प्रेम से ऊब कर महादेवी वर्मा का मन साहित्य-सर्जन की चाह करने लगा। राह निकली, छायावाद-रहस्यवाद की स्तम्भ बनकर वे साहित्याकाश में चमकीं।

कोशकार ने प्रेम या स्नेहपूर्वक किसी को चाहने की अवस्था या भाव को भी चाह की संज्ञा दी है। जब व्यक्ति अपने प्रेमी की चाहना करता है तो राह निकल आती है। प्रेमी प्रेमिका का मंगलमय मिलन हो जाता है। पार्वती की चाह थी शिव को पति के रूप में वरण करने की। तप के मार्ग (राह) से उसने भगवान् शंकर को पति रूप में प्राप्त कर लिया। सीता की चाह थी श्री राम के गले में वरमाला डालने की। नरेशों की असफलता और श्री राम के पराक्रम से राह निकली और 'सीय जयमाल राम रमेली। 

उपसंहार

चाह का कोशगत अर्थ है, 'इच्छा, लालसा' (बृहत् हिन्दी कोश) पर उसकी व्याख्या है, 'वह मनोवेग जो मनुष्य को कोई ऐसी वस्तु प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है, जिससे उसे संतोष या सुख मिल सकता हो।' (मानक हिन्दी कोश : दूसरा खण्ड) यह व्याख्या स्वत: 'राह' का मार्ग प्रशस्त करती है। मन की कामना पूर्ण कर आत्म-सुख का सर्जन करती है।

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