पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं पर निबन्ध

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं पर निबन्ध

Paradhin sapnehu sukh nahi par nibandh

इस निबन्ध के अन्य शीर्षक-

  • पराधीनता का जीवन।
  • परतन्त्रता एक अभिशाप।

रूपरेखा

1. प्रस्तावना, 2. स्वतन्त्रता का महत्व, 3. पराधीनता एक अभिशाप है, 4. उपसंहार

पराधीनता के जीवन से, अच्छा है मर जाना।
परवशता के महाभोज्य से, अच्छा है ना खाना॥
परवश हो महलों में रहकर, रो-रो जन्‍म गँवाना।
तुच्छ किन्तु स्वाधीन भाव से, अच्छा नग्न जड़ाना॥

प्रस्तावना

आकाश के दैदीप्यमान नक्षत्र, हिमालय के उत्तुंग शिखर, गंगा-यमुना की कल-कल करती हुई लहरें तथा अपनी सुरभि से दसों दिशाओं को सुगंन्धमय करने वाले महकते हुए पुष्प यही उद्घोष कर रहे हैं कि “सर्व परवशं दुखं, सर्वमात्मवशं सुखम्‌” अर्थात्‌ पराधीनता में सर्वत्र एवं सर्वदा दुःख, कष्ट, क्लेश और स्वाधीनता में सुख, आनन्द, सन्‍तोष व शान्ति है। पराधीन व्यक्ति के विचार अपने न होकर दूसरों के होते हैं। जो वह कहना चाहता है, उसे वह कह नहीं सकता और जो कुछ वह कहना नहीं चाहता, वह उसे कहना पड़ता है। ऐसे पराश्रित जीवन से तो मरना ही श्रेयस्कर है। स्वतन्त्र व्यक्ति सदैव जिस आनन्द का उपभोग करता है, पराधीन व्यक्ति जाग्रत अवस्था में उसको भोगने की बात तो दूर रही, स्वप्न में भी उसकी कल्पना नहीं कर सकता।

स्वतन्त्रता का महत्व

हमारा प्यारा देश भारत सदियों तक परतन्त्रता के पाश में जकड़ा रहा। यही कारण है कि कभी सोने की चिड़िया कहा जाने वाला यह देश धीरे-धीरे निर्धन हो गया। स्वतन्त्रता प्राप्त करते ही महान देश के महान नागरिक शीघ्रता से प्रगति की ओर बढ़े और अल्पकाल में ही चारों ओर समृद्धि दिखाई देने लगी। परन्तु दूसरों की उन्नति किसी को फूटी आँख भी नहीं सुहाती, विशेषकर पड़ोसी को। यही कारण है कि अपने को भारत का मित्र कहने वाला, विश्वासघाती, साम्राज्यवादी, नेहरू जी के शब्दों में बेशर्म चीन भारत माता के पवित्र मस्तक को अपने नापाक चरणों से दूषित करने का साहस करने लगा। पर वीर प्रसविनी भारत जननी के अदम्य पराक्रमी वीर सुपुत्र इस अपमान को कैसे सहन कर सकते थे? अतः चारों ओर देश पर मर मिटने की एवं आजादी के लिए अपनी सर्वस्व अर्पण करने की पुकार होने लगी। फूल के माध्यम से कवियों की वाणी पुकार उठी-

मुझे तोड़ लेना वन माली, उस पथ पर तुम देना फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जाएं वीर अनेक॥

इतिहास साक्षी है, जब भी जो देश पराधीनता के चंगुल में फंसा, तभी वह पतन के गहरे गर्त में जा गिरा, उसके सभी प्रकार के उन्नति के मार्ग अवरुद्ध हो गये यही कारण है हि प्रत्येक देश स्वतंत्र रहता चाहता है। हम देखते तो हैं कि विश्व के अनेक परतन्त्र देश गुलामी की जंज़ीरों को तोड़कर स्वतंत्रत होते जा रहे हैं।

पराधीनता एक अभिशाप है

पराधीनता मानव का सबसे बड़ा पतन है। गुलाम रहकर कोई भी व्यक्ति सुखी जीवन नहीं बिता सकता। यदि हम आजादी से विचरण करते हुए किसी पक्षी को उसकी इच्छा के विरुद्ध पकड़ कर पिंजरे में बन्द कर देते है तो चाहे वह पिंजरा सोने का ही क्यों न हो, वह हमारी ओर निरीह एवं सतृष्ण दृष्टि से अपनी अव्यक्त भाषा में यह कहता हुआ प्रतीत होता है–

“पराधीनता के जीवन में दुखद स्वर्ग के भोग।
पर सवतन्त्र रह कर है मुझको सुखद, नरक दुख भोग॥

व्यक्ति की स्वतंत्रता उसके देश की स्वतंत्रता पर निर्भर है। यही कारण है कि प्रत्येक देश के निवासी अपने देश को आजाद रखने के लिए यथासंभव प्रयत्न करते हैं। इतिहास इस प्रकार के उदाहरणों से भरा पड़ा है जबकि पराधीनता के कलंक को, मानवता के इस अभिशाप को धो डालने के लिए आज़ादी के दीवानों स्वतन्त्रता के पुजारियों एवं मानवता के अभिलाषियों ने हँसते हँसते शूली पर झूलना पसन्द किया। क्या कृतज्ञ भारतवासी स्वतन्त्रता के महान सेनानी महाराणा प्रताप, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, अमर शहीद सरदार भगतसिंह, आजादी के सामने प्राणों को तुच्छ समझने वाले चन्द्रशेखर आजाद, जयहिन्द का नारा देने बाले नेताजी को कभी भूल सकेगे? कदापि नहीं। आज भी प्रत्येक देशवासी उन अमर शहीदों लिए सृद्धा के सुमन चढ़ाता है, उनका नाम लेकर गौरव का अनुभव करता है जिन्होंने अपने प्राणो को स्वतंत्रता की बलिवेदी पर इसलिए न्योछावर कर दिया ताकि उनकी मातृभूमि स्वतंत्र रह सके। देशप्रेम से रहित हृदय की कल्पना करते हुए कवि कह उठता है-

“जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमे रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं॥"

उपसंहार

उपर्युक्त विचार विश्लेषण से यह तथ्य भली भांति सिद्ध हो जाता है कि पराधीन व्यक्ति स्वप्न में भी सुख का उपभोग नहीं कर सकता। सुख परतंत्रता का प्रतिद्वंदी है। जहाँ आकुलता है वहाँ सुख कहाँ? मानव हो या देव, पशु हो या पक्षी, सभी स्वतन्त्रता चाहते है। पराधीनता दुःखों की जननी है। गुलामी की प्रथा, जिसको समाप्त करने के लिए अब्राहम लिंकन को मृत्यु का शिकार होना पड़ा, जो अब इतिहास का विषय बन चुकी है, पुनः न दोहरायी जाये। इसके लिए हम सबको प्रयत्न करना चाहिए। निष्कर्षतः पराधीनता अपमानों की जननी है एवं सौ-सौ मृत्यु-दुखदायिनी है-

“जग में क्षण की पराधीनता, सौ-सौ मृत्यु समान है।
इससे बढ़कर जगती तल पर, नहीं कोई अपमान है॥”

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