कहानी- कहानी के प्रधान तत्त्व

कहानी

कहानी साहित्य की सबसे प्राचीन विधा है और समय समय पर इसकी परिभाषा देने का प्रयत्न विद्वानों द्वारा किया जाता रहा है। इस विषय में प्रेमचंद का कथन है कि,"कहानी वह रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उददेश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली, उसका कथा विन्यास उसी एक भाव की पुष्टि करते हैं। वह एक गमला है जिसमें एक पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप से दृष्टिगोचर होता है।"

महाकाव्य और उपन्यास के ही समान अच्छी कहानी के गुण, परिभाषा में नहीं बांधे जा सकते। फिर भी इसके कुछ तत्त्व विद्वानों ने निर्धारित किए हैं, जिनमें प्रमुख हैं- वस्तु, पात्र और वातावरण।

कहानी के तत्त्व

किसी कहानी की कला की दृष्टि से आलोचना करने का तात्पर्य यह होता है कि कहानी में जिन तत्तों का समावेश होना चाहिए, बे तत्त्व उस कहानी में समुचित रूप में हैं या नहीं। सब तत्त्वों का समुचित रूप में संयोजन करना ही कहानी कला है।

इसलिए किसी कहानी की कला की दृष्टि से आलोचना करते समय एक-एक तत्त्व पर अलग-अलग विचार किया जाता है कि वह तत्त्व कहाँ तक उचित एवं अनुचित है। इस प्रकार की समीक्षा के लिए कहानी के तत्त्वों का ज्ञान होना आवश्यक है। आओ, हम पहले कहानी के तत्वों की जानकारी करें।

Kahani - kahani ke pradhan tatva

एक अच्छी कहानी में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए-
1. कथानक अति संक्षिप्त हो।
2. पात्रों की संख्या कम से कम हो।
3. शीर्षक उत्सुकतापूर्ण हो।
4. भाषा-शैली सरल तथा रोचक हो।

कहानी कला के तत्त्व (प्रधान तत्व)

एक उत्तम कहानी में निम्नलिखित तत्त्वों का होना आवश्यक होता है–
1. कथावस्तु।
2. पात्र तथा चरित्र-चित्रण।
3. संवाद अथवा कथोपकथन।
4. देश, काल तथा वातावरण।
5. भाषा-शैली।
6. उद्देश्य।

कथावस्तु– 

किसी भी कहानी में कथावस्तु प्रथम तथा एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। यही वह तत्त्व है जिस पर कहानी का कलेवर खड़ा होता है। कथानक में आरम्भ, उत्कर्ष और अन्त– विकास-क्रम की तीन स्थितियाँ होती हैं। कहानी का आरम्भ जितना उत्साहवर्द्धक, मनोरंजक तथा कौतूहलपूर्ण होगा, कहानी उतनी ही सफल होगी। आरम्भ होने के पश्चात कथावस्तु अपने उत्कर्ष पर पहुँचती है। कहानी का अन्त भी ऐसा हो कि पाठक के मन का उत्साह और अधिक उमड़ पड़े। कहानी का कथानक संक्षिप्त तथा मार्मिक होना चाहिए।

पात्र एवं चरित्र-चित्रण– 

कहानी का दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्व है– पात्र और चरित्र-चित्रण। चरित्र चित्रण में कहानीकार को मनोवैज्ञानिक शैली का प्रयोग करना होता है। कहानी में पात्र कम से कम होंने चाहिए जिससे लघुकथानक में भी उनके चरित्र को प्रकाशित किया जा सके। पात्र जितने सजीव और मानवीय होंगे, कहानी उतनी ही प्रभावपूर्ण होगी। एक कुशल कहानीकार अपने पात्रों का जीवन इतना स्वाभाविक और संघर्षपूर्ण प्रस्तुत करता है कि पाठक उनको जानने के लिए उत्सुक हो उठता है। कहानीकार के पास नाटककार के समान वेशभूषा, हाव-भाव, शारीरिक चेष्टाएँ तथा रंगमंच जैसे साधन नहीं होते; अतः उसे चरित्र-चित्रण के लिए मनोवैज्ञानिक भाषा-शैली का सहारा लेना पड़ता है।

संवाद अथवा कथोपकथन– 

पात्रों के परस्पर वार्तालाप को संवाद अथवा कथोपकथन कहा जाता है। यही यह तत्त्व है जिसके द्वारा कहानीकार अपने पात्रों का चरित्र प्रकाशित करता है। इस दृष्टि से कहानीकार का काम उपन्यासकार की अपेक्षा अधिक कठिन होता है। उपन्यासकार के पास लम्बा कथानक होता है। उसे पढ़ने वाले पाठक के पास भी पर्याप्त समय होता है, अत: उपन्यासकार अपने पात्रों के चरित्र के विषय में स्वयं भी बहुत कुछ कह-सुन सकता है और उनके विचारों और कार्यकलापों पर टिप्पणी लिख सकता है किन्तु कहानीकार का कथानक अत्यन्त संक्षिप्त होता है। उसके पास इतना समय नहीं होता कि वह किसी पात्र के विषय मे एक शब्द भी कह सके, बस कथोपकथन के द्वारा ही वह उनकी भावनाओं, विचारों और कार्यकलापो को व्यक्त करता है जिससे उनका चरित्र उजागर हो। स्वाभाविक तथा रोचक संवादों के द्वारा ही कहानी में रोचकता उत्पन्न की जाती है, उसके कथानक में गति उत्पन्न होती है। यह आवश्यक है कि कहानी के संवाद छोटे, स्वाभाविक, पात्रानुकूल हों जो पात्रों के चरित्र को स्पष्ट करने में समर्थ हों।

देश, काल तथा वातावरण– 

कहानीकार अपनी कहानी में जिस घटना का वर्णन करता है, वह किसी देश, काल तथा वातावरण से सम्बन्धित होती है। कहानीकार को अपनी कहानी में देश, काल और वातावरण के अनुसार ही पात्रों की वेशभूषा आदि का वर्णन करना चाहिए। यदि देश, काल आदि के विपरीत वर्णन किया जाता है तो कहानी की स्वाभाविकता तथा विश्वसनीयता ही समाप्त हो जाती है।

भाषा शैली– 

कहानी का एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व कहानी में प्रयुक्त भाषा-शैली होता है, क्योंकि भाषा ही भावों की अभिव्यक्ति का साधन होती है। सरल, सरस और पात्रानुकूल भाषा के द्वारा ही कहानी को रोचक और प्रभावशाली बताया जा सकता है। यदि कहानी की भाषा कठिन और दुरूह होगी तो उसे कोई पढ़ना ही पसन्द नहीं करेगा; अत: सफल कहानी के लिए सरल, स्वाभाविक और पात्रानुकूल भाषा का होना आवश्यक है। कहानी में वर्णनात्मक, आत्मकथात्मक, भावात्मक अथवा डायरी शैली– कोई भी शैली अपनायी जा सकती है। यह तो कहानीकार की कुशलता पर निर्भर है कि वह किस शैली में अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति दे, कथानक को साकार करे। मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से भी कहानी की भाषा के प्रभाव को बढ़ाया जा सकता है।

उद्देश्य– 

कोई भी कहानी बिना किसी उद्देश्य के नहीं लिखी जाती है। कहानी का उद्देश्य पाठकों की दृष्टि से ओझल होना चाहिए। उद्देश्य ऐसे ढंग से अन्तर्निहित होना चाहिए कि वह कहानी की गति के साथ साथ प्रकट होता रहे और पाठकों के हृदय पर स्थायी प्रभाव भी पड़ता रहे। मनोरंजन के साथ-साथ शाश्वत सत्य को प्रकट करना भी कथा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होता है। प्रेमचन्द युग में आदर्श की स्थापना और शाश्वत सत्य का उद्घाटन करना ही कहानी का प्रमुख उद्देश्य बन गया था।

शीर्षक– 

इन तत्त्वों के अतिरिक्त कहानी का शीर्षक उसका एक महत्त्वपूर्ण अंग होता है। शीर्षक का कलात्मक होना भी सफल कहानी का प्रमुख अंग होता है। कहानी का शीर्षक छोटा, रोचक एवं आकर्षक और अधिकाधिक तीन शब्दों का होना चाहिए। शीर्षक में उत्सुकता का होना आवश्यक है- उतनी उत्सुकता कि, पाठक शीर्षक को देखते ही कहानी पढ़ने के लिए उत्सुक हो उठे। कहानी की कथावस्तु शीर्षक की धुरी के चारों ओर घूमनी चाहिए। शीर्षक मार्मिक, नुकीला, अर्थगर्भा एवं सटीक होना चाहिए।

जिस कहानी में इन तत्वों का जितना कलात्मक प्रयोग होगा, वह कहानी उतनी ही सफल होगी।


कहानी लेखक और कहानियाँ 

यों तो हिन्दी साहित्य में कहानियाँ बहुत समय से मिलती हैं, परन्तु आधुनिक ढंग की कहानी (शार्ट स्टोरी) का प्रारंभ सरस्वती में सन्‌ 1900 में प्रकाशित किशोरी लाल गोस्वामी की इन्दुमती से स्वीकार किया जाता है। अन्य प्रारम्भिक कहानियों में ग्यारह वर्ष का समय (रामचंद्र शुक्ल) तथा दुलाई वाली (बंग महिला) की पर्याप्त चर्चा हुई है।

हिन्दी कहानी साहित्य को सर्वाधिक समृद्ध किया मुंशी प्रेमचंद ने, इन्होंने पंचपरमेश्वर, शतरंज के खिलाड़ी, कफन आदि 300 से अधिक कहानियां लिखी। अन्य कहानीकारों में प्रमुख हैं जयशंकर प्रसाद, जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल, इलाचन्द्र जोशी, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, मन्न भंडारी, फणीश्वरनाथ रेणु, कृष्णा सोबती, शिवानी, उषा प्रियवंदा, ज्ञानरंजन, गोविन्द मिश्र आदि। 

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