विद्यार्थी और सामाजिक चेतना पर निबंध | Vidyarthi aur Samajik Chetna par Nibandh

Vidyarthi aur Samajik Chetna par Nibandh: विद्यार्थी और समाज की चेतना में संबंध अत्यंत महत्वपूर्ण है, इसीलिए कभी कभी इस विषय पर निबंध पूछ लिया जाता है। नीचे सामाजिक चेतना और विद्यार्थी के बारे में एक अच्छा निबन्ध निम्नलिखित है।

Vidyarthi aur Samajik Chetna par Nibandh, विद्यार्थी एवं सामाजिक चेतना पर निबन्ध

विद्यार्थी और सामाजिक चेतना पर निबंध

संकेत बिंदु- (1) विद्यार्थी और सामाजिक चेतना (2) सामाजिक चेतना के परिणाम (3) सामाजिक व्यवहार के अनुरूप स्वयं को ढालना (4) धर्म का स्वरूप और अंधविश्वास (5) समाज के बाह्य जीवन की अनुभूति।

विद्यार्थी और सामाजिक चेतना

वह बालक या युवक जो किसी शिक्षा-संस्था में अध्ययन करता हो, विद्यार्थी कहलाता है। मानव-समुदाय ही समाज है। समाज से सम्बन्धित क्रिया-कलाप 'सामाजिक' है। जिस वृत्ति से व्यक्ति सचेत होता है, वह चेतना है। दूसरे शब्दों में मन की वह वृत्ति या शक्ति जिससे प्राणी को आंतरिक अनुभूतियों, भावों, विचारों आदि और बाह्य घटनाओं, तत्त्वों या बातों का अनुभव होता है, चेतना है।

समाज के स्वरूप का ज्ञान सामाजिक-चेतना है। समाज के प्रति प्रिय-अप्रिय भावों का जन्म सामाजिक-चेतना है। समाज से सम्बद्ध होने या दूर हटने की क्रिया सामाजिक चेतना है। समाज के प्रति कर्तव्य और दायित्व-बोध भी सामाजिक-चेतना है।

आज का छात्र समाज के सुख-दुःख को समझता है। समाज में होने वाली हलचल और सु-संस्कारों से प्रभावित होता है। समाजद्रोहियों, शत्रुओं से वह सचेत रहता है। समाज की अकर्मण्यता पर वह उदास होता है। समाज-संघर्ष में वह अपने उदात्त गुणों को जागृत करता है। इस प्रकार समाज और व्यक्ति के व्यवहार को सर्वांगीण दृष्टि से देखने, जानने और परखने का प्रयास ही विद्यार्थी की सामाजिक-चेतना है।

सामाजिक चेतना के परिणाम

विद्यार्थी का बोध और अनुभूति, ध्यान और विचार, मानसिक भान की शक्ति सब मिलकर उसके मन को कल्पना-लोक में ले जाते हैं, जिसका निर्माण समाज की वास्तविक प्रतिभाओं से बनता है। उनकी प्रतिक्रिया विद्यार्थी को जीवन को देखने, समझने तथा जीवन-बोध की तीव्रता में होती है। परिणामतः समाज में अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्ध स्थापित करने की मनोवृत्तिमानसिक, सांस्कृतिक एवं उच्च मूल्यों का विकास;प्रभुत्व की भावना, श्रेष्ठतम कार्य करने की प्रेरणा, समस्याओं का अन्वेषण और उनका समाधान ढूँढना, परहित या पर-दुःख की अभिप्रेरणा, सफलता प्राप्ति की ओर अग्रसर होने की चाहना आदि विद्यार्थी की सामाजिक-चेतना के परिणाम हैं।

सामाजिक व्यवहार के अनुरूप स्वयं को ढालना

विद्यार्थी की सामाजिक-चेतना का विकास घर-परिवार, पड़ोस, विद्यालय, खेलजगत्, मित्र-मण्डली, जाति, वर्ग, धर्म तथा राजनीति में क्रमशः विकसित होता है। जनमत, प्रचार, समाचारपत्र-पत्रिकाएँ, अपराध, दुष्कर्म, पारिवारिक-विघटन, सामाजिक अलगाव, सामूहिक तथा औद्योगिक संघर्ष, युद्ध और क्रांति, प्रेम और वासना, राजनैतिक दलों की संरचना और विघटन राज्य, राष्ट्र तथा अन्तरराष्ट्रीय गतिविधियाँ उसकी सामाजिक-चेतना को प्रभावित करती हैं, विकसित करती हैं और अपने जीवन-मूल्यों को समझने, चिन्तन करने, मनन करने को बाध्य करती हैं।

छात्र परिवार में जब देखता है कि पिताजी सिगरेट पीते हैं और बच्चों को ऐसा करने पर डाँटते हैं तो उसका चिन्तन उसे विद्रोह करने की प्रेरणा देता है। माता-पिता से मिलने आने वाले सखा/सखी की बातचीत में जब वह अश्लील संवाद सुनता है तो विद्यार्थी का भोला मन कच्चे प्रेम की ओर अग्रसर होता है। परिवार की कटुता, पड़ोसी की शत्रुता मित्रता उसको प्रभावित करती है। वह यह सोचता है कि चाचा-चाची के बच्चों के साथ कब खेलना शुरू करूँगा? पड़ोस के साथी के घर जाकर चाय कैसे पीऊँगा? बहिन के विवाह में जब माता-पिता की परेशानियों को देखता है, होने वाले मौसा-मौसी के कटु व्यवहार को देखता है तो उसका मन भी क्षोभ और घृणा से उद्वेलित हो जाता है। प्रतिक्रियावश वह विवाह की प्रक्रियाओं को व्यर्थ और आत्मघाती मानने लगता है।

विद्यालय में जब अध्यापक के पक्षपातपूर्ण और स्वार्थमय व्यवहार को देखता है, तो उसका मन विद्रोही-सा बन जाता है। वह उस अध्यापक के अनिष्ट की मन ही मन प्रभु से प्रार्थना करता है। सन्मित्र मण्डली का साथ उसके जीवन को उन्नति की ओर अग्रसर करता है तो आवारा और दुष्चरित्र साथी उसके.जीवन को पतन की ओर धकेलते हैं। स्कूल के वार्षिक अधिवेशन में मित्र को पुरस्कार लेते देखता है तो उसका मन करता है, कि क्यों न मैं भी अपने अन्दर पुरस्कार प्राप्ति की योग्यता प्राप्त करूँ?

धर्म का स्वरूप और अंधविश्वास

वह समाज में धर्म के स्वरूप को समझता है, पहचानता है। वह जानता है हिन्दू मुस्लिम, सिख, ईसाई, यहूदी, पारसी एक समाज के अंग होते हुए भी पंथों के कारण विभक्त हैं। जब वे परस्पर टकराते हैं तो साम्प्रदायिक दंगे होते हैं। विद्यार्थी को यह अनुभूति है कि अब कर्फ़्यू लगेगा, स्कूल बन्द होंगे, असामाजिक तत्त्वों द्वारा दुकानें लूटी जाएंगी, वाहनों को आग लगा दी जाएगी।

विद्यार्थी समझता है कि इस विवेकहीन धार्मिक-विश्वास से ही अन्ध-विश्वासों का जन्म हुआ है। किसी ने छींक दिया, बिल्ली रास्ता काट गई या किसी ने पीछे ही आवाज दे दी तो अपशकुन समझते हैं। मार्ग में काना मिल गया तो अशुभ मानते हैं।

समाज के बाह्य जीवन की अनुभूति

इस प्रकार समाज के बाह्य-जीवन की अनुभूति या बोध जब विद्यार्थी जीवन में होता है तो वह उन अनूभूतियों और बोध के आधार पर जीवन की अनोखी और नई बातों की सृष्टि अपने मानस-पटल पर करता है। वह मन में उठे हुए भावों में अनुरक्त हो जाता है। यह अनुराग उसके मनोवेगों को उत्तेजित करती है, जाग्रत करती है। वह अपना दृष्टिकोण निर्धारित करता है।जीवन में बदलाव लाने की चेष्टा करता है। यह विचार-परिवर्तन, कार्यशैली में बदल की चेष्टा, मन की पुनः रचना सामाजिक-चेतना के परिणाम ही तो हैं।

विद्यार्थी सोचता है- वह सामाजिक प्राणी है। उसके बिना वह जीवन जी नहीं सकता। समाज से द्रोह एक ज्वर है, भ्रष्टाचार कुष्ठ रोग के समान है, अकर्मण्यता क्षय रोग है तथा समाज-सत्य की अवहेलना सामाजिक ध्वंस है। उनमें संघर्ष की भावना को प्रश्रय देना समाज के कल्याण-मार्ग को प्रशस्त करना है। उसकी सम्पन्नता में ही उसके जीवन का सौख्य है, भविष्य की उज्ज्वलता और चरित्र की श्रेष्ठता है।

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