विद्यार्थी और अनुशासन पर निबंध | Vidyarthi aur Anushasan par Nibandh

Vidyarthi aur Anushasan par nibandh: विद्यार्थी जीवन में अनुशासन की महत्ता बहुत अधिक होती है। क्योंकि अनुशासन से ही विद्यार्थी, संयमित और शिष्टाचार के साथ अन्य गुणों से सुशोभित होता है।

Vidyarthi aur Anushasan par nibandh, विद्यार्थी और अनुशासन पर निबंध

विद्यार्थी और अनुशासन पर निबंध - Vidyarthi aur Anushasan par Nibandh

संकेत बिंदु- (1) विद्या-अध्ययन का काल (2) विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता के कारण (3) कर्तव्यों की तिलांजलि देकर अधिकारों की मांग (4) उचित मार्गदर्शन का अभाव और अनुशासन हीनता (5) दूषित वातावरण का प्रभाव।

'विद्यार्थी' का अर्थ है 'विद्यायाः अर्थी' अर्थात् विद्या की अभिलाषा रखने वाला। अनुशासन का अर्थ है शासन या नियंत्रण को मानना। अपनी उच्छृखंल चेष्टाओं को काबू में रखना।

विद्या-अध्ययन का काल

चार वर्ष से पच्चीस वर्ष तक की आयु विद्या-अध्ययन का काल मानी जाती है। इस अवस्था में विद्यार्थी पर न घर-बार का बोझ होता है, न सामाजिक दायित्व का और न आर्थिक चिन्ता का। वह स्वतन्त्र रूप से अपना शारीरिक, बौद्धिक व मानसिक विकास करता है। यह कार्य तभी सम्भव है, जब वह अनुशासन में रहे। यह शासन चाहे गुरुजनों का हो, चाहे माता-पिता का। इससे उसमें शील, संयम, ज्ञान-पिपासा तथा नम्रता की वृत्ति जागृत होगी।

विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता के कारण

विद्यार्थी में अनुशासन के विरोध की दुष्प्रवृत्ति कुछ कारणों से जन्म लेती है। एक डेढ़ वर्ष का शिशु दूरदर्शन देखने लगता है। देखने-देखते वह जैसे-जैसे बड़ा होता है, उसे दूरदर्शन की भाषा समझ में आने लगती है। पाँच वर्ष का होते-होते वह भाषा ही नहीं भावों को भी सही या गलत समझने लगता है। प्रेम और वासना के पश्चात् दूसरी शिक्षा जो दूरदर्शन देता है, वह है विद्रोह और विध्वंस की। शिशु जब किशोरावस्था तक पहुंचता है तो विद्रोह के अंकुर परिवार में फूटने लगते हैं। उसे पारिवारिक अनुशासन से चिढ़ हो जाती है। रोकर घर की चीजें फेंककर, उलटकर अपना विद्रोह प्रकट करता है। टी.वी. की भाषा में माता-पिता या अग्रजों को गाली देता है। अनुशासनहीनता की प्रवृत्ति लेकर वह विद्यार्थी बनता है। शनैः शनै: यह विद्रोह प्रवृत्ति उसे शिक्षालयों के अनुशासन से विमुख करती है।

दूसरी ओर, दुर्भाग्य से हमारे राजनीतिक नेताओं ने इस निश्चिन्त विद्यार्थी-वर्ग को अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए राजनीति में घसीटकर अनुशासनहीनता का मार्ग दिखा दिया है। स्वतन्त्रता संग्राम में महात्मा गांधी ने, 1947 की समग्रक्रान्ति के प्रणेता श्री जयप्रकाश नारायण तथा आपत्काल-विरोधी आन्दोलन के नेताओं ने शासन के विरुद्ध विद्यार्थी-वर्ग का खुलकर प्रयोग किया। रोपे पेड़ बबूल का आम कहाँ से होय।' स्वतन्त्रता के पश्चात् 1975 के मध्य तक विद्यार्थी-वर्ग की अनुशासनहीनता बेकाबू हो गई। विरोधी आंदोलनों के परिणामस्वरूप मई, 1977 के पश्चात् आज तक वह समस्या सुरसा के मुँह की भांति फैलती जा रही है। लगता है यह अनुशासनहीनता न केवल अध्ययन संस्थाओं को ही, अपितु सम्पूर्ण भारत को निगल जाएगी।

कर्तव्यों की तिलांजलि देकर अधिकारों की मांग

आज के विद्यार्थी और अनुशासन में ३ और ६ का सम्बन्ध है। वह कर्तव्यों को तिलांजलि देकर केवल अधिकारों की माँग करता है और येन-केन-प्रकारेण अपनी आकांक्षाओं की तृप्ति तथा अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष पर उतर आया है। जलसे करना, जुलूस निकालना, धुआँधार भाषण देना, चौराहों या सार्वजनिक स्थान पर नेताओं की प्रतिमाएं तोड़ना, अकारण किसी की पिटाई करना, हत्या करना, मकान व दुकान लूटना, सरकारी सम्पत्तिको क्षति पहुँचाना, बसों को जलाना, ऐसे अशोभनीय कार्य हैं जो विद्यार्थीवर्ग के मुख्य कार्यक्रम बन गए हैं।

वस्तुत: आज का विद्यार्थी विद्या का अर्थी अर्थात् अभिलाषी नहीं, अपितु विद्या की अरथी निकालने पर तुला है। उसमें रोष, उच्छंखलता, स्वार्थ और अनास्था घर कर गई है। पढ़ने में एकाग्रचित्तता के स्थान पर विध्वंसात्मकता रणले मन-मस्तिष्क को खोखला कर रही है। रही-सही कसर फैशन-परस्ती और नशाखोरी ने पूरी कर दी है।

अनुशासनहीनता के कारण विवेकहीन विद्यार्थी भस्मासुर की भाँति अपना ही सर्वस्व स्वाहा कर रहा है। मन की रोषपूर्ण और विनाशकारी प्रवृत्ति उसके अध्ययन में बाधक है। परिणामतः प्रश्न-पत्र ठीक तरह हल नहीं होंगे तो अंक अच्छे नहीं आएंगे।अगली कक्षाओं में प्रवेश में और जीवन की प्रगति में बाधाएँ आएँगी।

उचित मार्गदर्शन का अभाव और अनुशासन हीनता

दूसरी ओर, माता-पिता के उचित संरक्षण एवं मार्ग-दर्शन के अभाव में बच्चे उत्तम संस्कार ग्रहण नहीं कर पाते। विद्यालय या महाविद्यालयों में प्रवेश करके ये मर्यादाहीन और उच्छृखल बन जाते हैं। उनकी प्रतिभा का विकास अवरुद्ध हो जाता है, मन-मस्तिष्क पर विक्षोभ छा जाता है।

तीसरे, राजनीतिज्ञों की रट है कि 'वर्तमान शिक्षा दोषपूर्ण' है। नए-नए प्रयोगों ने विद्यार्थियों में वर्तमान शिक्षा प्रणाली के प्रति अरुचि उत्पन्न कर दी है। अंगूठा टेक राजनीतिज्ञ जब विश्वविद्यालयों में भाषण करता है या अल्पज्ञ और अर्द्ध-शिक्षित नेता शिक्षा के बारे में परामर्श देता है तो माँ सरस्वती का सिर लज्जा से झुक जाता है।

चौथे, आज शिक्षक आस्थाहीन हैं शिक्षा अधिकारी अहंकारी तथा स्वार्थी। परिणामस्वरूप शिक्षक और शिक्षा अधिकारी विद्यार्थी से व्यावसायिक रूप में व्यवहार करते हैं। विद्यार्थी के हृदय में इसकी जो प्रतिध्वनि निकलती है, वह 'आचार्यदेवो भव' कदापि नहीं होती।

दूषित वातावरण का प्रभाव

निःसन्देह यह बात माननी पड़ेगी कि आज के स्वार्थपूर्ण अस्वस्थ वातावरण में विद्यार्थी शान्त नहीं रह सकता। अस्वस्थ प्रवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह उसकी जागरूकता का परिचायक है। उसका गर्म खून उसको अन्याय के विरुद्ध ललकारता है। जिस प्रकार अग्नि, जल और अणुशक्ति का रचनात्मक तथा विध्वंसात्मक, दोनों रूपों में प्रयोग सम्भव है, उसी प्रकार विद्यार्थी के गर्म खून को रचनात्मक दिशा देने की आवश्यकता है। यह तभी सम्भव है जब प्राचीनकाल के गुरुकुलों का-सा शान्त वातावरण हो, चाणक्य जैसे स्वाभिमानी, स्वामी रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विरजानन्द सदृश तपस्वी गुरु हों। राजनीतिज्ञों और राजनीति को शिक्षा से दूर रखा जाए। माता-पिता बच्चों के विकास पर पूर्णत: ध्यान दें। 

इस निबन्ध के अन्य विषय अनुशासन की विद्यार्थी जीवन मे महत्ता और विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का महत्व भी हैं। किसी भी परीक्षा में यदि Vidyarthi aur Anushasan par Nibandh लिखने के लिए आता है, तो आप इस निबन्ध को लिख सकते हैं। 

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