डॉ० श्यामसुन्दर दास- जीवन परिचय, सहित्य परिचय, कृतियाँ, भाषा शैली

प्रश्न– डॉ० श्यामसुन्दर दास का संक्षिप्त जीवन परिचय दीजिए। (अथवा)

श्यामसुन्दर दास की संक्षिप्त जीवनी एवं प्रमुख कृतियों का उल्लेख करते हुए उनके साहित्यिक महत्व का प्रतिपादन कीजिए।
shyam sundar ka jivan parichay

श्यामसुन्दर दास का जीवन परिचय

जीवन परिचय– हिन्दी-जगत्‌ के प्रख्यात्‌ आलोचक तथा उच्च कोटि के साहित्यकार डा० श्यामसुन्दर दास का जन्म सन्‌ 1875 ई० (सं० 1932 वि०) में हुआ था। इनके पिता श्री देवीप्रसाद खन्‍ना पंजाब से आकर वाराणसी में रहने लगे थे। श्यामसुन्दर जी की प्रारम्भिक शिक्षा मिशन स्कूल में हुई। प्रयाग विश्वविद्यालय से इन्होंने बी०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की, लेकिन आर्थिक दशा ठीक न होने के कारण पढ़ाई आगे न चल सकी।

पढ़ाई छोड़ कर इन्होंने 40 रु० मासिक की नौकरी कर ली। तत्पश्चात्‌ नौकरी के लिए भिन्न-भिन्न स्थानों तथा विभिन्‍न विभागों में घूमना पड़ा।कुछ दिनों तक सेन्ट्रल हिन्दू कालेज, काशी में अंग्रेजी के अध्यापक रहे। तत्पश्चात सिंचाई विभाग में चले गये। इसके बाद काशी नरेश के प्राइवेट-सेक्रेटरी रहे। वहाँ से भी नौकरी छोड़कर कालीचरण हाई स्कूल, लख़नऊ में प्रधानाध्यापक पद को अलंकृत किया।

सन्‌ 1921 ई० में आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यक्ष पद पर नियुक्त हुए और फिर अवकाश ग्रहण करने तक उसी पद पर काम करते रहें।

श्यामसुन्दर दास जी की सेवाओं से प्रसन्न होकर अंग्रेजी सरकार ने उन्हें का 'रायबहादुर', हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने 'साहित्य वाचस्पति' तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने 'डी०लिट०' की उपाधि से अलंकृत किया था। सन्‌ 1945 ई० में आपने भौतिक शरीर को त्याग दिया।

स्मरणीय संकेत
जन्म– सन्‌ 1875 ई०
मृत्यु– सन्‌ 1945 ई०
जन्म स्थान– वाराणसी
पिता– देवीप्रसाद खन्‍ना।
शिक्षा– प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए०।
भाषा– सरल, स्पष्ट आडम्बर-रहित; विदेशी भाषाओं के शब्दों को अपने ढाँचे में ढाला।
शैली– (1) विचारात्मक, (1) आलोचनात्मक, (11) गवेषणात्मक, तथा (1५) भावात्मक।
रचनाएं– निबन्ध, आलोचना, भाषा विज्ञान, तथा अनेक ग्रन्थों का सम्पादन।
अन्य बातें– अनेक स्थानों पर नौकरी, कालीचरण हाई स्कूल, (लखनऊ) में प्रधानाध्यापक, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष।

प्रश्न– डॉ० श्यामसुन्दर दास का साहित्यिक परिचय दीजिए।

(अथवा)

डॉ० श्यामसुन्दर दास की साहित्यिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।

हिन्दी साहित्याकाश के प्रकाशमान नक्षत्र डॉ० श्यामसुन्दर दास ने हिन्दी के उत्थान और विकास के लिए जो अथक प्रयत्न किये, उनके लिए उन्हें युगों तक याद किया जायेगा। हिन्दी भाषा को विश्वविद्यालयों की उच्च शिक्षा के योग्य बनाना इन्हीं का काम था। उनकी साहित्य सेवाओं को हम विभिन्‍न रूपों में देखते हैं।

प्रचार व प्रसार– डॉ० श्यामसुन्दर दास ने हिन्दी के प्रचार व प्रसार के लिए पत्रिकाओं का सम्पादन किया। 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' इनके द्वारा सम्पादित प्रसिद्ध पत्रिका थी। नागरी प्रचारिणी सभा तथा “हिन्दी साहित्य सम्मेलन” की स्थापना करके इन्होंने हिन्दी साहित्य के प्रसार और प्रचार का मार्ग प्रशस्त किया।

साहित्य रचना– रायबहादुर श्यामसुन्दर दास ने उच्च कोटि के साहित्यिक ग्रन्थों की रचना की। उन्होंने अनेक ग्रन्थों का सम्पादन भी किया। उनके पूर्व हिन्दी में शास्त्रीय ग्रन्थों का अभाव था। उन्होंने साहित्यालोचन, भाषा-विज्ञान, रूपक-रहस्य जैसे शास्त्रीय ग्रन्थों की रचना की और हिन्दी साहित्य के इस अभाव की पूर्ति की।

विश्वविद्यालयों में मान्यता– डॉ० श्यामसुन्दर दास ने हिन्दी को विश्वविद्यालयों की उच्च कक्षाओं में मान्यता दिलायी। उन्होंने प्राचीन कवियों और उनकी रचनाओं के सम्बन्ध में गम्भीर अन्वेषण करके हिन्दी के उत्थान में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

नवीन विषयों का समावेश– श्यामसुन्दर जी ने साहित्यिक हिन्दी भाषा में उन विषयों पर अनेक लेख लिखे जिनको हिन्दी में अभी तक छुआ भी नहीं गया था। हिन्दी में भाषा विज्ञान, शास्त्रीय अध्ययन तथा शोधकार्य का आरम्भ इन्होंने ही किया था।

इस प्रकार डा० श्यामसुन्दर दास ने हिन्दी के प्रचार, प्रसार, उत्थान तथा विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी साहित्यिक सेवाएँ सदा स्मरणीय रहेंगी।

रचनाएँ– 

डा० श्यामसुन्दर दास ने अनेक ग्रन्थों की रचना की जिनमें से प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

(क) मौलिक रचनाएँ– 'गद्य कुसुमावली' आपके श्रेष्ठ निबन्धों का संग्रह है। आपके कुछ निबन्ध नागरी प्रचारिणी पत्रिका में भी प्रकाशित हुए हैं। 'साहित्यिक लेख' आपके साहित्यिक निबन्धों का संग्रह है।
(ख) आलोचना ग्रन्थ– साहित्यालोचन, गोस्वामी तुलसीदास, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, रूपक रहस्य।
(ग) भाषा विज्ञान– भाषा विज्ञान, हिन्दी भाषा का विकास, हिन्दी भाषा और विज्ञान
(घ) सम्पादित ग्रन्थ– हिन्दी वैज्ञानिक कोष, पृथ्वीराज रासो, हिन्दी कोविद रत्नमाला, कबीर ग्रन्थावली, नासिकेतोपाख्यान, वनिता-विनोद, इन्द्रावती, शकुन्तला नाटक, पद्मावत, रामचरित मानस, मनोरंजन पुस्तक माला, छत्र प्रकाश, हम्मीर रासो, दीनदयाल गिरि की ग्रंथावली, मेघदूत, परमाल रासो आदि। 'हिन्दी शब्द सागर' का सम्पादन भी आपकी अध्यक्षता में हुआ। 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' का आपने लम्बे समय तक सम्पादन किया।

प्रश्न– डॉ० श्यामसुन्दर दास की भाषा शैली की विशेषताएँ सोदाहरण बताइए।

डॉ० श्यामसुन्दर दास की भाषा– डॉ० श्यामसुन्दर दास की भाषा शुद्ध, संस्कृतनिष्ठ हिन्दी है। संस्कृत शब्दों के साथ उन्होंने अरबी, फारसी तथा अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग किया है किन्तु उनमें न तो अजनबीपन है और न ही विदेशीपन। विदेशी शब्दों को वे हिन्दी भाषा के साँचे में ढालकर उन्हें सर्वथा अपना बना लेते थे। इस विषय में उनके भाषा सम्बन्धी निजी विचार देखिए-

जब हम विदेशी भावों के साथ विदेशी शब्दों को ग्रहण करें, तो उन्हें ऐसा बना लें कि उममें से विदेशीपन निकल जाये और वे हमारे अपने होकर हमारे व्याकरण के नियमो से अनुशासित हों। जब तक उनके पूर्व उच्चारण को जीवित रखकर हम उनके पूर्व रूप, रंग, आकार, प्रकार को स्थायी बनाये रहेगे, तब तक वे हमारे अपने न होंगे और हमें उनको स्वीकार करने में सदा खटक तथा अड़चन रहेगी।"

संस्कृत का प्रभाव होने पर भी इनकी भाषा सरल, स्पष्ट और आडम्बर रहित है। मुहावरों और कहावतों का प्रयोग इन्होने नहीं किया है। विरामादि चिन्हों का प्रयोग आवश्यकता के अनुसार किया गया है।

गद्य शैली– डा० श्यामसुन्दर दास ने व्यास शैली को अपनाया है। वे एक ही बात को बार-बार समझाने का प्रयत्न करते हैं। कई बार समझाने पर भी अन्त में 'सारांश यह है' कहकर अपने विषय को पुनः बटोरने का प्रयास करते हैं। कठिन से कठिन विषय को भी वे सरल और रोचक शैली में स्पष्ट कर देते हैं। सरसता और रोचकता इनकी शैली के विशेष गुण हैं। इनकी शैली के मुख्यतः निम्न रूप पाये जाते हैं-

1. विचारात्मक शैली– श्यामसुन्दर दास जी के साहित्यिक निबन्धों में इस शैली का प्रयोग हुआ है। यह गंभीर शैली है, संस्कृत शब्दों का इसमें अधिक प्रयोग है। वाक्य छोटे-छोटे और भाषा सरल, सबल तथा प्रवाह्मयी है। उदाहरण प्रस्तुत है-

"गोपियों का स्नेह बढ़ता है। वे कृष्ण के साथ रासलीला में सम्मिलित होती हैं। अनेक उत्सव मनाती हैं। प्रेममयी गोपिकाओं का यह आचरण बड़ा ही रमणीय है। उसमें कहीं अस्वाभाविकता नहीं आ सकी। कोई कृष्ण की मुरली चुराती, कोई उन्हें अबीर लगाती और कोई चोली पहनाती है।

2. आलोचनात्मक शैली (समीक्षात्मक शैली)– दास जी की आलोचनात्मक रचनाओं में आलोचनात्मक शैली का प्रयोग हुआ है। इस शैली में गम्भीरता अधिक है। भाषा सरल और बोधगम्य है। विचारों को स्पष्ट करते हुए कहीं-कहीं भाषा बोझिल हो गयी है। इस शैली का उदाहरण देखिए–

जिस प्रकार गोस्वामी जी का जीवन राममय था, उसी-प्रकार उनकी कविता भी राममय थी। श्रीरामचरित की व्यापकता में उन्हें अपनी कला के सम्पूर्ण कौशल के विस्तार का सुयोग प्राप्त था। उसी में उन्होंने अपनी मुख्य पर्यवेक्षण शक्ति का परिचय दिया है।

3. गवेषणात्मक शैली– इस शैली में गम्भीर विषयों पर निबन्ध लिखे गये हैं। इनमें तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग है। गम्भीर विषय होने के कारण भाषा भी गम्भीर और शुष्क हो गयी है। वाक्य अपेक्षाकृत लम्बे हैं किन्तु भाषा में प्रवाह निरन्तर बना रहता हैं। 'साहित्यालोचन' और 'भाषा-विज्ञान' में इसी शैली का प्रयोग किया गया है।

4. भावात्मक शैली– गम्भीर विषयों पर लिखते हुए जब वे भावावेश में आ जाते हैं तो भावात्मक शैली में लिखने लगते हैं। इस शैली में भाषा कोमल तथा माधूर्य गुण से युक्त हो जाती है। यहाँ उनका गद्य कविता के निकट पहुँच जाता है। 'भारतीय-साहित्य की विशेषताएँ' निबन्ध में इस शैली का प्रयोग देखिए-

जिन्होंने भारत की हिमाच्छादित शैलमाला पर संध्या की सुनहली किरणों की सुषमा देखी है, अथवा जिन्हें घनी अमराइयों की छाया में कल-कल ध्वनि से बहती हुई निर्झरिणी तथा उसकी समीपवर्तिनी लताओं की बसन्तश्री देखने का अवसर मिला है, साथ ही जो यहाँ के मतवाले हाथियों की चाल देख चुके हैं, उन्हें अरब की उपर्युक्त वस्तुओं में सौन्दर्य तो क्या, उलटे नीरसता, शुष्कता और भद्दापन ही मिलेगा।

वास्तव में श्यामसुन्दर दास जी ने हिन्दी में ऐसी भाषा-शैली का निर्माण किया जो शास्त्रीय विषयों का विवेचन करने के लिए सर्वथा उपयुक्त और सशक्त थी। हिन्दी गद्य के शैलीकारों में उनका स्थान बहुत ऊँचा है।

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