मेरे प्रिय साहित्यकार जयशंकर प्रसाद पर निबंध | Essay on My Favorite Writer Jayshankar Prasad in Hindi
इस निबंध के अन्य शीर्षक-
- मेरे प्रिय साहित्यकार
- हमारे आदर्श कवि
- मेरे प्रिय लेखक
रूपरेखा-
प्रस्तावना
संसार ने सबकी अपनी-अपनी रूचि होती है किसी व्यक्ति की रुचि चित्रकारी में है, तो किसी की संगीत में, किसी की रुचि खेलकूद में है तो किसी की साहित्य में। मेरी अपनी रुचि भी साहित्य में रही है। साहित्य प्रत्येक देश और काल में इतना अधिक रचा गया है। कि उन सबका पारायण तो एक जन्म में संभव ही नहीं है, फिर साहित्य में भी अनेक विधाएं हैं- कविता, उपन्यास, नाटक, कहानी, निबंध आदि। मैंने सर्वप्रथम हिंदी साहित्य का यथाशक्ति अधिकाधिक अध्ययन करने का निश्चय किया और अब तक जितना अध्ययन हो पाया है, उसके आधार पर मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार हैं- जयशंकर प्रसाद। प्रसाद जी केवल कवि ही नहीं ,नाटककार, उपन्यासकार और कहानीकार, निबंधकार भी हैं। प्रसाद जी ने हिंदी साहित्य में भाव और कला, अनुभूति और अभिव्यक्ति, वस्तु और शिल्प सभी क्षेत्रों में युगांतरकारी परिवर्तन किए हैं। उन्होंने हिंदी भाषा को एक नवीन अभिव्यंजना शक्ति प्रदान की है। इन सब ने मुझे उनका प्रशंसक बना दिया है और वह मेरे प्रिय साहित्यकार बन गए हैं।साहित्यकार का परिचय
श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म सन 1889 ई० में काशी के प्रसिद्ध सुँघनी-साहू परिवार में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री बाबू देवी प्रसाद था। लगभग 11 वर्ष की अवस्था में ही जयशंकर प्रसाद ने काव्य रचना आरंभ कर दी थी। 17 वर्ष की अवस्था तक इनके ऊपर विपत्तियों का बहुत बड़ा पहाड़ टूट पड़ा। इनके पिता, माता व बड़े भाई का देहांत हो गया और परिवार का समस्त उत्तरदायित्व इनके सुकुमार कंधों पर आ गया। गुरुतर उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए एवं अनेकानेक महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना करने के उपरांत 15 नवंबर 1937 ई० को आप का देहावसान हुआ। 48 वर्ष के छोटे से जीवन में इन्होंने जो बड़े बड़े काम किए, उनकी कथा सचमुच अकथ्य है।साहित्यकार की साहित्य संपदा
प्रसाद जी की रचनाएं सन 1907-08 ई० में सामयिक पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थी। यह रचनाएं ब्रज भाषा की पुरानी शैली में थी। जिनका संग्रह 'चित्राधार' में हुआ। सन 1913 ई० में यह खड़ी बोली में लिखने लगे। प्रसाद जी ने पद्य और गद्य दोनों में साधिकार रचनायें की। इनका वर्गीकरण इस प्रकार है-(क) काव्य- कानन-कुसुम, प्रेम पथिक, महाराणा का महत्त्व, झरना,आँसू, लहर और कामायनी (महाकाव्य)
(ख) नाटक- इन्होंने कुल मिलाकर 13 नाटक लिखें। इनके प्रसिद्ध नाटक हैं- चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, कामना और ध्रुवस्वामिनी।
(ग) उपन्यास- कंकाल, तितली और इरावती।
(घ) कहानी- प्रसाद की विविध कहानियों के पांच संग्रह हैं- छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आंधी और इंद्रजाल।
(ङ) निबंध- प्रसाद जी ने साहित्य के विविध विषयों से संबंधित निबंध लिखे, जिनका संग्रह है- काव्य और कला तथा अन्य निबंध।
छायावाद के श्रेष्ठ कवि
छायावाद हिंदी कविता के क्षेत्र का एक आंदोलन है। जिसकी अवधि सन 1920-1936 ई० तक मानी जाती है। 'प्रसाद' जी छायावाद के जन्मदाता माने जाते हैं। छायावाद एक आदर्शवादी काव्यधारा है, जिसमें वैयिक्तकता, रहस्यात्मकता, प्रेम, सौन्दर्य तथा स्वछंदतावाद की सबल अभिव्यक्ति हुई है। प्रसाद की 'आंसू' नाम की कृति के साथ हिंदी में छायावाद का जन्म हुआ। 'आंसू' का प्रतिपाद्य है- विप्रलंभ श्रंगार। प्रियतम के वियोग की पीड़ा वियोग के समय आंसू बनकर वर्षा की भांति उमड़ पड़ती है।
जो घनीभूत पीड़ा थी, स्मृति सी नभ में छायी।
दुर्दिन में आंसू बनकर, वह आज बरसने आयी।।
दुर्दिन में आंसू बनकर, वह आज बरसने आयी।।
प्रसाद के काव्य में छायावाद अपने पूर्ण उत्कर्ष पर दिखाई देता है। यथा- सौंदर्य निरुपण एवं श्रृंगार भावना, प्रकृति प्रेम, मानवतावाद, प्रेम भावना, आत्माभिव्यक्ति, प्रकृति पर चेतना का आरोप, वेदना और निराशा का स्वर, देश प्रेम की अभिव्यक्ति, नारी के सौंदर्य का वर्णन, तत्व-चिंतन, आधुनिक बौद्धिकता, कल्पना का प्राचुर्य तथा रहस्यवाद की मार्मिक अभिव्यक्ति। अंयत्र इंगित छायावाद की लागत विशेषताएं अपने उत्कृष्ट रूप में इनके काव्य में उभरी हुई दिखाई देती हैं।
'आंसू' मानवीय विरह का एक प्रबंध काव्य है। इसमें स्मृतिजन्य, मनोदशा एवं प्रियतम के अलौकिक रूप-सौंदर्य का मार्मिक वर्णन किया गया है । 'लहर' आत्मपरक प्रगीत मुस्तक है। जिसमें कई प्रकार की कविताओं का संग्रह है। प्रकृति के रमणीय पक्ष को लेकर सुंदर और मधुर रुपकमय गीत 'लहर' से संग्रहीत है।
बीती विभावरी जाग री।
अंबर-पनघट में डुबो रही;
तारा-घट उषा नागरी।
अंबर-पनघट में डुबो रही;
तारा-घट उषा नागरी।
प्रसाद जी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना है, 'कामायनी' महाकाव्य जिसमें प्रतीकात्मक शैली पर मानव चेतना के विकास का काव्यमय निरुपण किया गया है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में- "यह काव्य बड़ी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से पूर्ण है। इसके विचारात्मक आधार के अनुसार श्रद्धा या रागात्मिका वृत्ति ही मनुष्य को इस जीवन में शांतिमय आनंद का अनुभव कराती है। वही उसे आनंद धाम तक पहुंचाती है, जबकि इड़ा या बुद्धि आनंद से दूर भगाती है।" अंत में कवि ने इच्छा, कर्म और ज्ञान तीनों के सामंजस्य पर बल दिया है; यथा
ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा पूरी क्यों हो मन की?
एक दूसरे से मिल न सके, यह विडंबना जीवन की।
एक दूसरे से मिल न सके, यह विडंबना जीवन की।