प्रेम का पंथ निराला सूक्ति पर निबंध

प्रेम का पंथ निराला सूक्ति पर निबंध

संकेत बिंदु– (1) जीवन का अद्भुत तत्त्व (2) प्रेम में समर्पण और आत्म-त्याग (3) प्रेम के अलग-अलग रूप (4) प्रेम और बेवफाई का चोली-दामन का साथ (5) प्रेममार्ग की गलियाँ अनेक।

जीवन का अद्भुत तत्त्व

प्रेम जीवन का एक अद्भुत तत्त्व है और उसका मार्ग भी विचित्र है। प्रेम का आचार व्यवहार और उसकी शैली भी अनोखी है। उसकी साधना-पद्धति ऐकांतिक है। इसीलिए जयशंकर प्रसाद जी प्रेम-पथिक को सचेत करते हुए कहते हैं–

पथिक! प्रेम की राह अनोखी भूल-भूलकर चलना है।
घनी छाँह है जो ऊपर, तो नीचे कांटे बिछे हुए।

प्यार महज एक इन्टरव्यु (साक्षात्कार) है। जिसमें परीक्षा कोई दे और पास कोई और हो। मुक्तिबोध कहते हैं, “प्यार जितना भी उँडेलता हूँ, भर-भर फिर आता है।” त्रिलोचन का अनुभव कुछ और ही है, ‘गीत कहीं कोई गाता है, गूंज किसी उर में उठती है।’ उर्दू शायर को तो प्रेम की पाठशाला की परिपाटी ही अनूठी लगी–

मकतबे इश्क का दस्तूर निराला देखा।
उसको छुट्टी न मिली, जिसने सबक याद किया।

प्रेम मूर्खों की बुद्धिमता है और बुद्धिमानों की मूर्खता। कारण प्रेम अंधा होता है। प्रेमीजन उन मूर्खताओं को नहीं देख सकते, जिनको वे स्वयं करते हैं। ग्रेट ब्रिटेन के राजकुमार ने प्रेमिका के लिए राज-सिंहासन छोड़ दिया।महात्मा बुद्ध ने अम्बपाली का भोजन स्वीकार किया और लिच्छवी वंश के राजकुमारों का भोजन-निमन्त्रण ठुकरा दिया। आज सहस्रों युवक-युवतियाँ इस मूर्खता में अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं। कारण, प्रेम उपचारहीन रोग है।

प्रेम में समर्पण और आत्म-त्याग

प्रेम समर्पण चाहता है। वह परिणाम की चिन्ता नहीं करता। उसमें आत्मत्याग है, दिखावा नहीं; ममत्व का विस्मरण है; चित्त की निर्मलता है। इसीलिए प्रसाद जी कहते हैं–

"प्रेम यज्ञ में स्वार्थ और कामना का हवन करना होगा।"

प्रेम के अलग-अलग रूप

लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, हीर-राँझा के प्रेमी हृदयों में स्वर्गीय ज्योति का निवास था। श्रीमती एनी बेसेन्ट और बर्नाड शॉ का प्रेम, सुमित्रानन्दन पन्त और तारा पांडे का प्रेम, गेटे और चार्लोट का प्रेम स्वार्थ शर्तों में टूट गया। कविवर घनानन्द तो सुजान से शिकायत करते ही रह गए–

अति सूधो सनेह को मारग है, यहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
कहो कौन घौ पाटी पढ़े हो लला, मन लेहु पे देहु छटाँक नहीं।

प्रेम का पंथ भी क्या विचित्र है। प्रेमी-प्रेमिका प्यार करते हैं और गाँठ दुर्जनों के हृदय में पड़ती है। महाकवि बिहारी ने कहा है–

दृग उरझत टूटत कुटम, जुरत चतुर चित प्रीति।
परत गांठ दुरजन हिये दई नई यह रीति॥

वियोग में प्रेम तीव्र होता है और संयोग में पुष्ट। अनुराग किसी से होता है, विवाह कहीं और। कहीं निगाहें होती हैं, कहीं इशारे। मोहन राकेश, 'अज्ञेय' और अमृता प्रीतम प्रेम के अमर दीप हैं। शायद इसीलिए टामस मूर का कथन है- “जिससे मैं प्रेम करता हूँ, उससे मुझे विवाह नहीं करना है और जिससे मेरा विवाह होना है, उससे मैं प्रेम नहीं कर सकता।” कविवर पंत भी कहते हैं–

"न जाने नक्षत्रों से कौन, सन्देशा मुझे भेजता मौन।"

दूसरी ओर ऐसे भी शूरवीर हैं जो प्रेम को विवाह का अमृतकुंड मानते हैं। शाश्वत शोभा का मधुवन पाते हैं। उसमें जाति, धर्म, सम्प्रदाय और भौगोलिक सीमा टूट जाती है। सुजान के शब्दों में- ‘प्रीति की रीति में लाज कहा, लखि है सब सौं बड़ नेह को नातो।’ सुनीलदत्त और नरगिस, शर्मिला टैगोर और नवाब पटौदी, इन्दिरा गाँधी और फिरोज, राजीव और सोनिया इसी प्रकार के प्रेम-विवाह के जीवन्त उदाहरण हैं।

प्रेम और बेवफाई का चोली-दामन का साथ

प्रेम और बेवफाई का चोली-दामन का साथ है। इस बेवफाई में शरीर की विच्छिन्नता है, दर्शन का अभाव है, न मिलने की मजबूरी है, पर बिल्वमंगल सूर के शब्दों में, ‘हृदय तें जब जाओगे, सबल समझूँगो तोय।’ जिगर मुरादाबादी की तो यह पीड़ा है– ‘भूलते हैं उन्हें वह याद आए जाते हैं।’ और प्रसाद जी कहते हैं– ‘छलना थी, तब भी मेरा / उसमें विश्वास घना था।’ जिया कहते हैं–

राजे दिल है पूछते और बोलने देते नहीं।
बात मुंह आरही है, लब हिलाना है मना।।

और गालिब तो प्रेम में 'बेचारे' बनकर रह गए–

इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया।
वरना हम भी आदमी थे काम के।

प्रेम किया नहीं जाता, हो जाता है। शेक्सपीयर के शब्दों में– ‘प्रेम भाग्य के वश में है।’ क्योंकि यह शरीर का नहीं, आत्मा का मिलन है। प्रतिदान नहीं; सर्वस्व समर्पण है। कहते हैं लहसुन की गंध और प्रेम की गंध छुपाए नहीं छुपती। भारतेन्दु कहते हैं– ‘छिपाए छिपत न नैन लगे’ और ‘छिपत न कैसेहु प्रीति निगोड़ी अन्त जात सब जानि।’ क्योंकि–

बैठत उठत सयन सोवत निसि चलत-फिरत सब ठौर।
नैनत तें वह रूप रसीलो टरत न इक पल और।

और बिहारी की नायिका तो ‘भरे भौन में नैनन ही सों बात’ करती है। प्रेम वसन्त का समीर है, जब शिथिल होता है तो ग्रीष्म की लू बनकर मृत्यु की-सी यन्त्रणा देता है। तड़पाता है, रुलाता है, न मरने देता है, न जीने देता है। कारण इस असाध्य रोग का कोई निदान भी नहीं। प्रसाद जी तो कहते हैं–

जल उठा स्नेह, दीपक-सा, नवनीत हृदय था मेरा।
अब शेष धूम-रेखा से, चित्रित कर रहा अंधेरा।

किन्तु महादेवी तो इस चिर-विरह में ही जीवन को धन्य मानती हुई कहती हैं– ‘मिलन का मत नाम लो, मैं चिर विरह में रहूँ।’

प्रेममार्ग की गलियाँ अनेक

प्रेम के इस अद्भुत मार्ग की गलियाँ भी अनेक हैं। स्नेह, अनुराग, प्रणय, प्रीति, वासना इसके पंथ हैं जो हृदय को आत्मा से मिलाते हैं। प्रेमी को प्रेमिका तक पहुँचाते हैं। आँखों को चार करते हैं। दो शरीर में एक प्राण का संचार करते हैं। जिसकी प्रतीक्षा में ही मजा है। टीस में भी मिठास हैं। विरह में आनन्द है और संयोग में –

संगीत मनोहर उठता, मुरली बजती जीवन की। -प्रसाद

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