राशन की दुकान पर मेरा अनुभव पर निबंध

राशन की दुकान पर मेरा अनुभव पर निबंध 

संकेत बिंदु- (1) उचित दर की दुकान (2) सरकार को लाभ (3) घर में राशन लाने का काम (4) वृद्धा का दुकानदार से झगड़ा (5) राशन कार्ड का गुम होना। 

उचित दर की दुकान

नियंत्रित मूल्य तथा निश्चित मात्रा में वस्तुओं के वितरण की व्यवस्था को 'राशनिंग' कहते हैं। जिस दुकान से वितरण की व्यवस्था की जाती है, उसे 'राशन की दुकान' कहते हैं। लगभग 15 वर्ष से राशन की दुकान का नाम 'उचित दर की दुकान' रख दिया गया है, जो असंगत है। कारण, उचित की व्याख्या राजकीय दृष्टि से सही हो सकती है, किन्तु मात्रा का नियंत्रण इस नाम से प्रकट नहीं होता। लकड़ी-कोयले के राशन-डिपो से निर्धारित मात्रा से अधिक सौ ग्राम कोयला तो ले लीजिए! दुकानदार राशन की काला बाजारी करने के अपराध में जेल की यातनाएँ भोगेगा और ग्राहक को गवाहियों के भुगतान में धन और समय बरबाद करना पड़ेगा।

सरकार को लाभ

'शस्य-श्यामला' भारत-भूमि में राशन, घी-दूध की नदियाँ जिस राष्ट्र में बहती थीं, वहाँ उचित दर की दुकान की व्यवस्था यह देश का अपमान है और अधिकारियों की कार्य-विधि की अक्षमता का परिचायक है। आज देश में गेहूँ, चना, चावल खूब मिलता है, किन्तु फिर भी राशन है। सरकार को इसमें दो लाभ हैं-प्रथम है, जनता का ध्यान राष्ट्र-हित की समस्याओं से हटाना और दूसरा है अधिकारियों की चाँदी और देश के व्यापारी-वर्ग का नैतिक बल कमजोर करना। द्वितीय विश्व युद्ध के समय चली राशन व्यवस्था तत्कालीन स्वतंत्रता-आन्दोलन की अग्नि को बुझाने का प्रयास था और आज हमारे शासनाधिकारी इसे अपनी असफलताओं को छिपाने का माध्यम समझते हैं। वे चाहते हैं कि जनता गेहूँ, चीनी, कोयला-लकड़ी और मिट्टी के तेल के राशन से जूझती रहे, और उसे अवकाश ही न मिले.... देश और देश की समस्याओं के विषय में सोचने का।

घर में राशन लाने का काम

घर के लिए राशन लाने की ड्यूटी मेरी है। मैं ही इसे प्रेम से निभाता हूँ। साइकिल ली, एक बोरी या कट्टा तथा दो थैले लिए ओर चल पड़ा राशन की दुकान पर। हमारा दुकानदार प्रसन्न-वदन व्यापारी है। मेरी शक्ल देखते ही 'आओ राजकुमार' कहकर मेरा अभिवादन करता है। भीड़ या लाइन नाम की कोई समस्या नहीं। एक बार मैंने कह दिया, मेरा नाम स्वदेश कुमार है, राजकुमार नहीं। हँसकर बोला 'स्वदेश कुमार हो सकते हो, किन्तु अपने माता-पिता के तो तुम्ही राजकुमार हो। मैं चुप। मैं भी मजाक में उसे 'अन्नप्रदाता' का अपभ्रंश 'अन्नदाता' कहने लगा। वैसे उसकी बात का बुरा कोई नहीं मानता। एक दिन राशन लेने वाला एक युवक कीमती वस्त्र पहने अपने नौकर के साथ आया था। उसे उसने 'शहजादा सलीम' की संज्ञा दे डाली।

राशनकार्ड दिखाकर पर्ची कटवाई। पैसे दिए, पर्ची ली। पर्ची राशन तोलने वाले को दी। उसने सब पदार्थ ठीक-ठीक तोलकर बोरी और थैलों में डाल दिए। बोरी का मुँह सुतली से बाँध दिया। मैंने कहा- 'लाला, जरा गेहूँ की बोरी को साइकिल पर रखवा दो।' वह हँसकर कहता है- 'कैसे हो स्वदेश के कुमार, जो एक मन गेहूँ नहीं उठा नहीं सकते। बदल ही दो अपना नाम।'

वृद्धा का दुकानदार से झगड़ा

मेरी बातचीत चल ही रही थी कि एक वृद्धा आई। लाला ने कहा- 'माता जी को पहले राशन दे , फिर उठवाऊँगा। मैं खड़ा रहा। तोलने वाले ने गेहूँ तोल कर माताजी की बोरी में डाले ही थे कि वृद्धा ने 4-5 'श्लोक' सुना दिए। 'कम तोलता है, तुझे कीड़े पड़ेंगे। तू आँखों में धूल झोंकता है, तेरी औलाद अन्धी होगी।' लाला हक्का-बक्का। काटो तो खून नहीं। उसने हाथ जोड़कर कुछ कहना चाहा, तो वृद्धा और गालियाँ देने लगी। देखते देखते 8-10 आदमी इकट्ठे हो गए। पास ही खड़ा नागरिक-सुरक्षा प्रहरी (सिपाही) भी आ गया।

बात बढ़ गई। लाला की दलील थी कि इस गेहूँ को पुन: तोल देता हूँ। पर्ची के हिसाब से ठीक निकले, तो मैं सच्चा, किन्तु पुलिस वाला दोनों को पुलिस स्टेशन ले जाने के लिए संकल्पित। वह लाला से रुपए ऐंठने के चक्कर में था। इसी बीच कहीं से राशन-इन्सपेक्टर आ टपका। उसने जनता को शान्त किया, बोरी का गेहूँ तुलवाया। पर्ची के हिसाब से गेहूँ बिलकुल ठीक था।

जनता बालक एक समान। हवा का रुख पलट चुका था। लाला सच्चा निकला। लोग बुढ़िया की मजाक उड़ाने लगे। कोई कहता- 'बहू से लड़कर आई है', तो कोई और कुछ। बहरहाल बुढ़िया से विदा होने के बाद मैंने लाला से पुनः प्रार्थना की- 'सत्यवादी हरिश्चन्द्र जी, मेरी बोरी तो उठवा दो।' इस उपाधि से लाला हँसा और बोला, 'बोरी उठाई की मजदूरी थोड़े ही मिलती है। गेहूँ का पैसा लिया है- उठवाने का नहीं। और चलचित्र की भाँति पल झपकते ही बोरी मेरी साइकिल पर थी।

राशन कार्ड का गुम होना

घर जाकर सामान उतारा तो देखा, राशन कार्ड थैले में नहीं है। सारे थैले देखे, बोरीकट्टा देखा। कहीं न मिला। दौड़ा गया लाला की दुकान पर। पर्ची काटने वाले क्लर्क की मेज पर शान्त भाव से कार्ड पड़ा था, व्याकुलता से अपने संरक्षक की प्रतीक्षा कर रहा था। कारण, उसे भय था कि उसका संरक्षक न आया, तो यह लाला संदूकची में कैद कर देगा। मैंने बिना लिपिक को सम्बोधित किए कार्ड उठा लिया। लिपिक भी समझ गया। अतः उसने कुछ न कहा। कार्ड हाथ में लेने पर जान में जान आई। दो क्षण पंखे के नीचे खड़ा हुआ। कार्ड भी हवा में फर-फर करके अपनी प्रसन्नता प्रकट करने लगा।

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