मेरी पर्वतीय यात्रा पर निबंध हिन्दी में

मेरी पर्वतीय यात्रा पर निबंध 

संकेत बिंदु- (1) पर्वत यात्रा की आकांक्षा (2) शिमला के लिए प्रस्थान (3) प्राकृतिक सुन्दरता (4) सोलन में अल्पाहार (5) यात्रा का समापन।

पर्वत यात्रा की आकांक्षा

भगवान् भास्कर की अविश्रान्त प्रचण्ड तप्त किरणों और लू की सन्नाटा मारती हुई झपटों से जब तन-मन व्याकुल हो गया, कूलर और वातानुकूलन का विज्ञान भी मन की क्लान्ति और अविरल शून्यता को समाप्त न कर सका तो लगा पर्वत की श्रृंखलाओं में कुछ दिन बिताकर तन-मन को आह्लादित किया जाए। दृढ़ निश्चय और आत्म-विश्वास सफलता के सोपान हैं। दो चार मित्रों से पर्वत यात्रा की आकांक्षा प्रकट की तो वे भी तैयार हो गए। मित्रों के साथ यात्रा का अपना आनन्द है, यह सोचकर मन खुशी से नाच उठा।

शिमला के लिए प्रस्थान

1 जून को प्रात:कालीन दिल्ली-शिमला बस में चारों साथी उमंग और उत्साह से जा बैठे। बस चली। पंजाब रोडवेज की बस यात्रा-देवी का अपूर्व वरदान है। ध्वनि शून्य तथा झटकों-रहित बस तेजी से दौड़ी मंजिल की ओर तीव्र गति से भागी जा रही है। ढाई घंटे तक की करनाल यात्रा तो सुखद रही, पर करनाल से कालका तक की यात्रा में सूर्य देव ने अपनी क्रोधाग्नि से हँस-मुख चेहरों को मुरझा दिया। मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में-

सूखा कंठ, पसीना छूटा, मृग तृष्णा की माया।
झुलसी दृष्टि, अंधेरा दीखा, दूर गई वह छाया॥

साढ़े ग्यारह बजे बस ने कालका छोड़ा। कालका पर्वत यात्रा का आरम्भ स्थल है। आगे-आगे प्रकृति की रमणीय स्थली पर्वत-श्रृंखलाएँ ही आरम्भ होंगी, यह सोचकर दिवाकर की दीप्ति से मन में विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा।

बस पर्वतीय मार्ग पर चल पड़ी है। चढ़ाई पर चढ़ रही है। इसलिए गति मैदानी सड़क से कुछ धीमी पड़ गई है। मृत्यु को निमंत्रण देते पहाड़ी मोड़ों पर बस की चाल को लकवा मार जाता था, पर बस भागी जा रही थी, अपने दो घंटों के निर्धारित समय में सोलन पहुँचने के लिए।

प्राकृतिक सुन्दरता

लू के स्थान पर कुछ शीतल पवन हृदय को गुद्गुदा जाती थी। आँखें चहुँ ओर फैली शस्य-श्यामला और हरी-भरी भूमि के सौन्दर्य का आनन्द लूट रही थीं। दूर-दूर तक झाड़ियाँ, लताएँ, ऊँचे-ऊँचे वृक्षों के रूप में प्रकृति अपने विविध वेश में मन को मोह रही थी। लगता था, मांसल सी आज हुई थी। हिमवती प्रकृति पाषाणी। (जयशंकर प्रसाद) उधर सीढ़ीनुमा बल खाते छोटे-छोटे खेत। प्रेमी पवन के झोंके से झूमती लताएँ। वन्य पादपों पर पुष्पों के पीत-मुकुट देख-देखकर आँखें चकाचौंध हो रही थीं, पर हृदय-तृप्त न हो रहा था। आगे चले-चढ़े तो देखा पहाड़ों से जल स्रोत फूट रहा है। उसकी स्वच्छ निर्मल धारा को देखकर भारतेन्दु की पंक्ति का स्मरण हो आया ..... 'नव उज्ज्वल जल धार हार हीरक-सी सोहती।'

सोलन में अल्पाहार

सोलन आया। बस आधा घंटा रुकी। यात्री उतरे। अल्पाहार के लिए दौड़े। वमन वाले साथी को कुल्ला करवाया। सोडा पिलाया। हमने भी चाय-बिस्कुट लिए। तरो-ताजा हुए। दो बज रहे थे। भगवान् भास्कर अपने पूर्ण प्रकाश स्थिति में थे। पर, थे वे तेज-हीन। पहाड़ी शीतल पवनों ने उनके ताप का हरण कर लिया था। इसलिए गरमी भी सुखद सुहानी लग रही थी।

सोलन में सुस्ताने तथा तरोताजा होने के बाद बस चल पड़ी अपने गतव्य की ओर। असली पहाड़ी यात्रा का अनुभव तो अब शुरू हुआ था। छोटी-छोटी सड़कें, बल खाती सड़कें, सर्प-सी मोड़ खाती सड़कें। तीन-चार किलोमीटर बस चली और फिर चक्कर काटकर सामने वाली सड़क पर। समतल भूमि पर जिसके पहुंचने में पचास डग चाहिएँ।

एक ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और दूसरी और पाताल लोक। जरा-सा ध्यान विचलित हुआ तो बस हो या कार, पशु या प्राणी, पाताल लोक का वासी बन जाता है। हंस अकेला मृत्यु लोक के द्वार खटखटाता है, पर प्रकृति-नटी का रूप भी विचित्र है। पाताल लोक हो या पर्वत-पहाड़ियाँ सभी श्यामल हैं, हरी-भरी हैं, हास्य बिखेरती हैं, कोस-कोस पर रूप बदलती हैं।

दो चार नर-नारियों की वमन विह्वलता ने प्रकृति के रूप-सौन्दर्य को निहारने में बाधा डाली तो शीतल पवन के झोंकों ने पर्वतीय प्रदेश में संध्या-सुन्दरी के प्रवेश की पूर्व सूचना दे दी। दूसरी ओर, दीवारों पर चमकते विज्ञापनों ने सजग कर दिया अब शिमला दूर नहीं। 

शिमला समीप आ रहा था। बस चींटी की चाल चल रही थी। भारवाहक (कुली) बस के साथ दौड़ते-दौड़ते खुली खिड़कियों से यात्रियों को अपने टोकन देकर बुक कर रहे थे। बस-स्टॉप पर बस रुकी। बस का दरवाजा खुलने से पहले कुलियों ने आक्रमण कर दिया। येन-केन प्रकारेण हम बस से उतरे। उन्मद शीतल मलयानिल के झोंकों से चित्त कुछ शान्त होता, पर कुलियों के दीन-दुराग्रह ने उनकी पहचान बनाने के लिए विवश कर दिया।

यात्रा का समापन

मानव ने प्रकृति को अपना दास बनाया है। इसलिए यहाँ पहाड़ काट-काटकर सुगम सीढ़ियों का निर्माण किया गया है। अभ्यस्त कुली सीढ़ियों पर फुर्ती से चढ़ रहे थे और हम चारों साथी यात्रा की थकावट मिश्रित मस्ती से धीरे-धीरे डगरख रहे थे। जैन धर्मशाला पहुँचकर कुलियों ने विदाई ली। हमने धर्मशाला की शरण ली। इस प्रकार पर्वतीय स्थल पर पहुँचकर यात्रा समाप्त की।

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