दुर्गा सप्तशती पाठ - पाँचवा अध्याय | Fifth chapter of Durga Saptashati Path in Hindi

Fifth Chapter of Durga Saptashati Path: माँ दुर्गा की स्तुति का सर्वश्रेष्ठ साधन श्री दुर्गा सप्तशती पाठ का यह पांचवा अध्याय है, यहाँ पर दुर्गा सप्तशती पाठ का पाँचवाँ अध्याय संस्कृत और हिन्दी भाषा में प्रकाशित किया गया है। आप अपनी इच्छानुसार मनपसंद भाषा में श्री दुर्गा सप्तशती पाठ पढ़ सकते हैं, माँ भगवती की आराधना कर सकते हैं। 

Fifth chapter of Durga Saptashati Path

श्रीदुर्गासप्तशती - पञ्चम अध्याय

देवताओं द्वारा देवी की स्तुति, चण्ड-मुण्ड के मुख से अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना

॥विनियोगः॥

ॐ अस्य श्रीउत्तरचरित्रस्य रूद्र ऋषिः, महासरस्वती देवता, अनुष्टुप्
छन्दः, भीमा शक्तिः, भ्रामरी बीजम्, सूर्यस्तत्त्वम्, सामवेदः स्वरूपम्,
महासरस्वतीप्रीत्यर्थे उत्तरचरित्रपाठे विनियोगः।

॥ध्यानम्॥

ॐ घण्टाशूलहलानि शङ्‌खमुसले चक्रं धनुः सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥

"ॐ क्लीं" ऋषिरुवाच॥१॥

पुरा शुम्भनिशुम्भाभ्यामसुराभ्यां शचीपतेः।
त्रैलोक्यं यज्ञभागाश्‍च हृता मदबलाश्रयात्॥२॥

तावेव सूर्यतां तद्वदधिकारं तथैन्दवम्।
कौबेरमथ याम्यं च चक्राते वरुणस्य च॥३॥

तावेव पवनर्द्धिं च चक्रतुर्वह्निकर्म च।
ततो देवा विनिर्धूता भ्रष्टराज्याः पराजिताः॥४॥

हृताधिकारास्त्रिदशास्ताभ्यां सर्वे निराकृताः।
महासुराभ्यां तां देवीं संस्मरन्त्यपराजिताम्॥५॥

तयास्माकं वरो दत्तो यथाऽऽपत्सु स्मृताखिलाः।
भवतां नाशयिष्यामि तत्क्षणात्परमापदः॥६॥

इति कृत्वा मतिं देवा हिमवन्तं नगेश्‍वरम्।
जग्मुस्तत्र ततो देवीं विष्णुमायां प्रतुष्टुवुः॥७॥

देवा ऊचुः॥८॥
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्॥९॥

रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्ये धात्र्यै नमो नमः।
ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नमः॥१०॥

कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः।
नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः॥११॥

दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै।
ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः॥१२॥

अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः।
नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः॥१३॥

या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता।
नमस्तस्यै॥१४॥

नमस्तस्यै॥१५॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥१६॥

या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै॥१७॥

नमस्तस्यै॥१८॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥१९॥

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२०॥

नमस्तस्यै॥२१॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥२२॥

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२३॥

नमस्तस्यै॥२४॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥२५॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२६॥

नमस्तस्यै॥२७॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥२८॥

या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥२९॥

नमस्तस्यै॥३०॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥३१॥

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥३२॥

नमस्तस्यै॥३३॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥३४॥

या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥३५॥

नमस्तस्यै॥३६॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥३७॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥३८॥

नमस्तस्यै॥३९॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥४०॥

या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥४१॥

नमस्तस्यै॥४२॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥४३॥

या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥४४॥

नमस्तस्यै॥४५॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥४६॥

या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥४७॥

नमस्तस्यै॥४८॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥४९॥

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५०॥

नमस्तस्यै॥५१॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥५२॥

या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५३॥

नमस्तस्यै॥५४॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥५५॥

या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५६॥

नमस्तस्यै॥५७॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥५८॥

या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५९॥

नमस्तस्यै॥६०॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥६१॥

या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥६२॥

नमस्तस्यै॥६३॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥६४॥

या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥६५॥

नमस्तस्यै॥६६॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥६७॥

या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥६८॥

नमस्तस्यै॥६९॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥७०॥

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥७१॥

नमस्तस्यै॥७२॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥७३॥

या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥७४॥

नमस्तस्यै॥७५॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥७६॥

इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या।
भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः॥७७॥

चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत्।
नमस्तस्यै॥७८॥

नमस्तस्यै॥७९॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥८०॥

स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रयात्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता।
करोतु सा नः शुभहेतुरीश्‍वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः॥८१॥

या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितैरस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते।
या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः सर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः॥८२॥

ऋषिरुवाच॥८३॥

एवं स्तवादियुक्तानां देवानां तत्र पार्वती।
स्नातुमभ्याययौ तोये जाह्नव्या नृपनन्दन॥८४॥

साब्रवीत्तान् सुरान् सुभ्रूर्भवद्भिः स्तूयतेऽत्र का।
शरीरकोशतश्‍चास्याः समुद्भूताब्रवीच्छिवा॥८५॥

स्तोत्रं ममैतत् क्रियते शुम्भदैत्यनिराकृतैः।
देवैः समेतैः समरे निशुम्भेन पराजितैः॥८६॥

शरीरकोशाद्यत्तस्याः पार्वत्या निःसृताम्बिका।
कौशिकीति समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते॥८७॥

तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत्सापि पार्वती।
कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया॥८८॥

ततोऽम्बिकां परं रूपं बिभ्राणां सुमनोहरम्।
ददर्श चण्डो मुण्डश्‍च भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः॥८९॥

ताभ्यां शुम्भाय चाख्याता अतीव सुमनोहरा।
काप्यास्ते स्त्री महाराज भासयन्ती हिमाचलम्॥९०॥

नैव तादृक् क्वचिद्रूपं दृष्टं केनचिदुत्तमम्।
ज्ञायतां काप्यसौ देवी गृह्यतां चासुरेश्‍वर॥९१॥

स्त्रीरत्‍नमतिचार्वङ्‌गी द्योतयन्ती दिशस्त्विषा।
सा तु तिष्ठति दैत्येन्द्र तां भवान् द्रष्टुमर्हति॥९२॥

यानि रत्‍नानि मणयो गजाश्‍वादीनि वै प्रभो।
त्रैलोक्ये तु समस्तानि साम्प्रतं भान्ति ते गृहे॥९३॥

ऐरावतः समानीतो गजरत्‍नं पुरन्दरात्।
पारिजाततरुश्‍चायं तथैवोच्चैःश्रवा हयः॥९४॥

विमानं हंससंयुक्तमेतत्तिष्ठति तेऽङ्‌गणे।
रत्‍नभूतमिहानीतं यदासीद्वेधसोऽद्भुतम्॥९५॥

निधिरेष महापद्मः समानीतो धनेश्‍वरात्।
किञ्जल्किनीं ददौ चाब्धिर्मालामम्लानपङ्‌कजाम्॥९६॥

छत्रं ते वारुणं गेहे काञ्चनस्रावि तिष्ठति।
तथायं स्यन्दनवरो यः पुराऽऽसीत्प्रजापतेः॥९७॥

मृत्योरुत्क्रान्तिदा नाम शक्तिरीश त्वया हृता।
पाशः सलिलराजस्य भ्रातुस्तव परिग्रहे॥९८॥

निशुम्भस्याब्धिजाताश्‍च समस्ता रत्‍नजातयः।
वह्निरपि ददौ तुभ्यमग्निशौचे च वाससी॥९९॥

एवं दैत्येन्द्र रत्‍नानि समस्तान्याहृतानि ते।
स्त्रीरत्‍नमेषा कल्याणी त्वया कस्मान्न गृह्यते॥१००॥

ऋषिरुवाच॥१०१॥

निशम्येति वचः शुम्भः स तदा चण्डमुण्डयोः।
प्रेषयामास सुग्रीवं दूतं देव्या महासुरम्॥१०२॥

इति चेति च वक्तव्या सा गत्वा वचनान्मम।
यथा चाभ्येति सम्प्रीत्या तथा कार्यं त्वया लघु॥१०३॥

स तत्र गत्वा यत्रास्ते शैलोद्देशेऽतिशोभने।
सा देवी तां ततः प्राहश्‍लक्ष्णं मधुरया गिरा॥१०४॥

दूत उवाच॥१०५॥

देवि दैत्येश्‍वरः शुम्भस्त्रैलोक्ये परमेश्‍वरः।
दूतोऽहं प्रेषितस्तेन त्वत्सकाशमिहागतः॥१०६॥

अव्याहताज्ञः सर्वासु यः सदा देवयोनिषु।
निर्जिताखिलदैत्यारिः स यदाह श्रृणुष्व तत्॥१०७॥

मम त्रैलोक्यमखिलं मम देवा वशानुगाः।
यज्ञभागानहं सर्वानुपाश्‍नामि पृथक् पृथक्॥१०८॥

त्रैलोक्ये वररत्‍नानि मम वश्‍यान्यशेषतः।
तथैव गजरत्‍नं च हृत्वा देवेन्द्रवाहनम्॥१०९॥

क्षीरोदमथनोद्भूतमश्वरत्‍नं ममामरैः।
उच्चैःश्रवससंज्ञं तत्प्रणिपत्य समर्पितम्॥११०॥

यानि चान्यानि देवेषु गन्धर्वेषूरगेषु च।
रत्‍नभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने॥१११॥

स्त्रीरत्‍नभूतां त्वां देवि लोके मन्यामहे वयम्।
सा त्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्‍नभुजो वयम्॥११२॥

मां वा ममानुजं वापि निशुम्भमुरुविक्रमम्।
भज त्वं च चञ्चलापाङ्‌गि रत्‍नभूतासि वै यतः॥११३॥

परमैश्‍वर्यमतुलं प्राप्स्यसे मत्परिग्रहात्।
एतद् बुद्ध्या समालोच्य मत्परिग्रहतां व्रज॥११४॥

ऋषिरुवाच॥११५॥

इत्युक्ता सा तदा देवी गम्भीरान्तःस्मिता जगौ।
दुर्गा भगवती भद्रा ययेदं धार्यते जगत्॥११६॥

देव्युवाच॥११७॥

सत्यमुक्तं त्वया नात्र मिथ्या किञ्चित्त्वयोदितम्।
त्रैलोक्याधिपतिः शुम्भो निशुम्भश्‍चापि तादृशः॥११८॥

किं त्वत्र यत्प्रतिज्ञातं मिथ्या तत्क्रियते कथम्।
श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञा या कृता पुरा॥११९॥

यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति॥१२०॥

तदागच्छतु शुम्भोऽत्र निशुम्भो वा महासुरः।
मां जित्वा किं चिरेणात्र पाणिं गृह्णातु मे लघु॥१२१॥

दूत उवाच॥१२२॥

अवलिप्तासि मैवं त्वं देवि ब्रूहि ममाग्रतः।
त्रैलोक्ये कः पुमांस्तिष्ठेदग्रे शुम्भनिशुम्भयोः॥१२३॥

अन्येषामपि दैत्यानां सर्वे देवा न वै युधि।
तिष्ठन्ति सम्मुखे देवि किं पुनः स्त्री त्वमेकिका॥१२४॥

इन्द्राद्याः सकला देवास्तस्थुर्येषां न संयुगे।
शुम्भादीनां कथं तेषां स्त्री प्रयास्यसि सम्मुखम्॥१२५॥

सा त्वं गच्छ मयैवोक्ता पार्श्‍वं शुम्भनिशुम्भयोः।
केशाकर्षणनिर्धूतगौरवा मा गमिष्यसि॥१२६॥

देव्युवाच॥१२७॥

एवमेतद् बली शुम्भो निशुम्भश्‍चातिवीर्यवान्।
किं करोमि प्रतिज्ञा मे यदनालोचिता पुरा॥१२८॥

स त्वं गच्छ मयोक्तं ते यदेतत्सर्वमादृतः।
तदाचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्तं करोतु तत्॥ॐ॥१२९॥

।। श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये देव्या दूतसंवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः सम्पूर्णं ।।


दुर्गा सप्तशती पाठ- पाँचवाँ अध्याय हिन्दी में

देवताओं द्वारा देवी की स्तुति

महर्षि मेधा ने कहा- पूर्वकाल में शुम्भ निशुम्भ नामक असुरों ने अपने बल के मद से इन्द्र का त्रिलोकी का राज्य और यज्ञों के भाग छीन लिये और वह दोनों इसी प्रकार सूर्य, चन्द्रमा, धर्मराज और वरुण के अधिकार भी छीन कर स्वयं ही उनका उपयोग करने लगे। वायु और अग्नि का कार्य भी वही करने लगे और इसके पश्चात उन्होंने जिन देवताओं का राज्य छीना था, उनको अपने-अपने स्थान से निकाल दिया। इस तरह से अधिकार छिने हुए दैत्यों तथा दैत्यों द्वारा निकाले हुए देवता अपराजिता देवी का स्मरण करने लगे कि देवी ने हमको वर दिया था कि मैं तुम्हारी सम्पूर्ण विपत्तियों को नष्ट कर के रक्षा करूँगी।

ऎसा विचार कर सब देवता हिमालय पर गये और भगवती विष्णुमाया की स्तुति करने लगे। देवताओं ने कहा-देवी को नमस्कार है, शिव को नमस्कार है। प्रकृति और भद्रा को नमस्कार है। हम लोग रौद्र, नित्या और गौरी को नमस्कार करते हैं। ज्योत्सनामयी, चन्द्ररूपिणी व सुख रूपा देवी को निरन्तर नमस्कार है, शरणागतों का कल्याण करने वाली, वृद्धि और सिद्धिरूपा देवी को हम बार-2 नमस्कार करते हैं और नैरऋति, राजाओं की लक्ष्मी तथा सर्वाणी को नमस्कार है, दुर्गा को, दुर्ग स्थलों को पार करने वाली दुर्गपारा को, सारा, सर्वकारिणी, ख्याति कृष्ण और घूम्रदेवी को सदैव नमस्कार है। अत्यन्त सौम्य तथा अत्यन्त रौद्ररूपा को हम नमस्कार करते हैं। उन्हें हमारा बारम्बार प्रणाम है।

जगत की आधारभूत कृति देवी को बार-बार नमस्कार करते हैं। जिस देवी को प्राणीमात्र विष्णुमाया कहते हैं उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में चेतना कहलाती है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में बुद्धिरूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में निद्रा रूप से विराजमान है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में क्षुधा रुप से विराजमान है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में छाया रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में शक्ति रूप से स्थित है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है।

जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में तृष्णा रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में शांति रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में जातिरुप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में लज्जा रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है।

जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में श्रद्धा रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जजो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में कान्ति रूप से स्थित है, जो देवी सब प्राणियों में लक्ष्मी रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में वृत्ति रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में स्मृति रूप से विराजमान है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में दयारूप से स्थित है व, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में तुष्टि रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है।

जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में मातृरुप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में भ्रान्ति रुप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में नित्य व्याप्त रहती है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी चैतन्य रूप से इस सम्पूर्ण संसार को व्याप्त कर के स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है।

पूर्वकाल में देवताओं ने अपने अभीष्ट फल पाने के लिए जिसकी स्तुति की है और देवराज इन्द्र ने बहुत दिनों तक जिसका सेवन किया है वह कल्याण की साधनाभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मंगल करे तथा सारी विपत्तियों को नष्ट कर डाले, असुरों के सताये हुए हम सम्पूर्ण देवता उस परमेश्वरी को इस समय नमस्कार करते हैं तथा जो भक्ति पूर्वक स्मरण किए जाने पर तुरन्त ही सब विपत्तियों को नष्ट कर देती है वह जगदम्बा इस समय भी हमारा मंगल कर के हमारी समस्त विपत्तियों को दूर करें।

महर्षि मेधा ने कहा-हे राजन्! इस प्रकार जब देवता स्तुति कर रहे थे तो उसी समय पार्वती देवी गंगा में स्नान करने के लिए आई, तब उनके शरीर से प्रकट होकर शिवादेवी बोली-शुम्भ दैत्य के द्वारा स्वर्ग से निकले हुए और निशुम्भ से हारे हुए यह देवता मेरी स्तुति कर रहे हैं। पार्वती के शरीर से अम्बिका निकली थी, इसलिए उसको सम्पूर्ण लोक में कौशिकी कहते हैं। कौशिकी के प्रकट होने के पश्चात पार्वती देवी के शरीर का रंग काला हो गया और वह हिमालय पर रहने वाली कालिका देवी के नाम से प्रसिद्ध हुई।

फिर शुम्भ और निशुम्भ के दूत चण्डमुण्ड वहाँ आये और उन्होंने परम मनोहर रूप वाली अम्बिका देवी को देखा। फिर वह शुम्भ के पास जाकर बोले-महाराज! एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री हिमालय को प्रकाशित कर रही है, वैसा रंग रूप आज तक हमने किसी स्त्री में नहीं देखा, हे असुरेश्वर! आप यह पता लगाएँ कि वह कौन है और उसको ग्रहण कर ले। वह स्त्री स्त्रियों में रत्न है, वह अपनी कान्ति से दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई वहाँ स्थित है, इसलिए आपका उसको देखना उचित है।

हे प्रभो! तीनों लोकों के हाथी, घोड़े और मणि इत्यादि जितने रत्न हैं वह सब इस समय आपके घर में शोभायमान हैं। हाथियों में रत्न रूप ऎरावत हाथी और उच्चैश्रवा नामक घोड़ा तो आप इन्द्र से ले आये हैं, हंसों द्वारा जुता हुआ विमान जो कि ब्रह्माजी के पास था, अब भी आपके पास है और यह महापद्म नामक खजाना आपने कुबेर से छीना है, समुद्र ने आपको सदा खिले हुए फूलों की किंजल्किनी नामक माला दी है, वरुण का कंचन की वर्षा करने वाला छत्र आपके पास है, रथों में श्रेष्ठ प्रजापति का रथ भी आपके पास ही है, हे दैत्येन्द्र! मृत्यु से उत्क्रांतिका नामक शक्ति भी आपने छीन ली है और वरुण का पाश भी आपके भ्राता निशुम्भ के अधिकार में है और जो अग्नि में न जल सकें, ऎसे दो वस्त्र भी अग्निदेव ने आपको दिये हैं।

हे दैत्यराज! इस प्रकार सारी रत्नरूपी वस्तुएँ आप संग्रह कर चुके हैं तो फिर आप यह कल्याणकारी स्त्रियों में रत्नरूप अनुपम स्त्री आप क्यों नहीं ग्रहण करते? महर्षि मेधा बोले-चण्ड मुण्ड का यह वचन सुनकर शुम्भ ने विचारा कि सुग्रीव को अपना दूत बना कर देवी के पास भेजा जाये।

प्रथम उसको सब कुछ समझा दिया और कहा कि वहाँ जाकर तुम उसको अच्छी तरह से समझाना और ऎसा उपाय करना जिससे वह प्रसन्न होकर तुरन्त मेरे पास चली आये, भली प्रकार समझाकर कहना। दूत सुग्रीव, पर्वत के उस रमणीय भाग में पहुँचा जहाँ देवी रहती थी। दूत ने कहा-हे देवी! दैत्यों का राजा शुम्भ जो इस समय तीनों लोकों का स्वामी है, मैं उसका दूत हूँ और यहाँ तुम्हारे पास आया हूँ। सम्पूर्ण देवता उसकी आज्ञा एक स्वर से मानते हैं। अब जो कुछ उसने कहला भेजा है, वह सुनो। उसने कहा है, इस समय सम्पूर्ण त्रिलोकी मेरे वश में है और सम्पूर्ण यज्ञो के भाग को पृथक-पृथक मैं ही लेता हूँ और तीनों लोकों में जितने श्रेष्ठ रत्न हैं वह सब मेरे पास हैं, देवराज इन्द्र का वाहन ऎरावत मेरे पास है जो मैंने छीन लिया है, उच्चै:श्रवा नामक घोड़ा जो क्षीरसागर मंथन करने से प्रकट हुआ था उसे देवताओं ने मुझे समर्पित किया है।

हे सुन्दरी! इनके अतिरिक्त और भी जो रत्न भूषण पदार्थ देवताओं के पास थे वह सब मेरे पास हैं। हे देवी! मैं तुम्हें संसार की स्त्रियों में रत्न मानता हूँ क्योंकि रत्नों का उपभोग करने वाला मैं ही हूँ। हे चंचल कटा़ओं वाली सुन्दरी! अब यह मैं तुझ पर छोड़ता हूँ कि तू मेरे या मेरे भाई महापराक्रमी निशुम्भ की सेवा में आ जाये। यदि तू मुझे वरेगीतो तुझे अतुल महान ऎश्वर्य की प्राप्ति होगी, अत: तुम अपनी बुद्धि से यह विचार कर मेरे पास चली आओ। महर्षि मेधा ने कहा-दूत के ऎसा कहने पर सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने वाली भगवती दुर्गा मन ही मन मुस्कुराई और इस प्रकार कहने लगी। देवी ने कहा-हे दूत! तू जो कुछ कह रहा है वह सत्य है और इसमें किंचित्मात्र भी झूठ नहीं है शुम्भ इस समय तीनों लोकों का स्वामी है और निशुम्भ भी उसी की तरह पराक्रमी है किन्तु इसके संबंध में मैं जो प्रतिज्ञा कर चुकी हूँ उसे मैं कैसे झुठला सकती हूँ? अत: तू, मैंने जो प्रतिज्ञा की है उसे सुन।

जो मुझे युद्ध में जीत लेगा और मेरे अभिमान को खण्डित करेगा तथा बल में मेरे समान होगा, वही मेरा स्वामी होगा। इसलिए शुम्भ अथवा निशुम्भ यहाँ आवे और युद्ध में जीतकर मुझसे विवाह कर ले, इसमें भला देर की क्या आवश्यकता है! दूत ने कहा-हे देवी! तुम अभिमान में भरी हुई हो, मेरे सामने तुम ऎसी बात न करो। इस त्रिलोकी में मुझे तो ऎसा कोई दिखाई नहीं देता जो कि शुम्भ और निशुम्भ के सामने ठहर सके। हे देवी! जब अन्य देवताओं में से कोई शुम्भ व निशुम्भ के समान युद्ध में ठहर नहीं सकता तो तुम जैसी स्त्री उनके सामने रणभूमि में ठहर सकेगी?

जिन शुम्भ आदि असुरों के सामने इन्द्र आदि देवता नहीं ठहर सके तो फिर तुम अकेली स्त्री उनके सामने कैसे ठहर सकेगी? अत: तुम मेरा कहना मानकर उनके पास चली जाओ नहीं तो जब वह तुम्हें केश पकड़कर घसीटते हुए ले जाएंगे तो तुम्हारा गौरव नष्ट हो जाएगा इसलिए मेरी बात मान लो। देवी ने कहा-जो कुछ तुमने कहा ठीक है। शुम्भ और निशुम्भ बड़े बलवान है लेकिन मैं क्या कर सकती हूँ क्योंकि मैं बिना विचारे प्रतिज्ञा कर चुकी हूँ इसलिए तुम जाओ और मैंने जो कुछ भी कहा है वह सब आदरपूर्वक असुरेन्द्र से कह दो, इसके पश्चात जो वह उचित समझे करें।

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