अष्टावक्र गीता पंद्रहवां अध्याय - Fifteenth Chapter of Ashtavakra Geeta in Hindi

Fifteenth Chapter of Ashtavakra Geeta in Hindi- महापंडित एवं विद्वान अष्टावक्र की बुद्धिमत्ता से आप सभी लोग परिचित होंगे। जनक की सभा मे उन्होने बंदी से शास्त्रार्थ करके अपनी विद्वता का परिचय दिया था। और बंदी को उनके अहंकार के बारे मे ज्ञात करवाया था। उन्ही के द्वारा रचित महागीता का यहाँ पंद्रहवां अध्याय प्रस्तुत है।

आपकी सरलता और आसानी के लिए हमने यहाँ पर अष्टावक्र गीता (Ashtavakra Geeta) के श्लोक संस्कृत के साथ साथ हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी भावार्थ के साथ प्रकाशित किए हैं। जिससे आपको अध्ययन करने मे आसानी हो।
Fifteenth Chapter of Ashtavakra Geeta in Hindi
Fifteenth Chapter of Ashtavakra Geeta in Hindi

अष्टावक्र गीता पंद्रहवां अध्याय - Fifteenth Chapter of Ashtavakra Geeta in Hindi

अष्टावक्र उवाच - यथातथोपदेशेन कृतार्थः सत्त्वबुद्धिमान्।
आजीवमपि जिज्ञासुः परस्तत्र विमुह्यति॥१५- १॥

श्रीअष्टावक्र कहते हैं - सात्विक बुद्धि से युक्त मनुष्य साधारण प्रकार के उपदेश से भी कृतकृत्य(मुक्त) हो जाता है परन्तु ऐसा न होने पर आजीवन जिज्ञासु होने पर भी परब्रह्म का यथार्थ ज्ञान नहीं होता है॥१॥

Sri Ashtavakra says - A man with honest approach can attain enlightenment by ordinary instructions.
Without it even the life long curiosity is not going to help.॥1॥

मोक्षो विषयवैरस्यं बन्धो वैषयिको रसः।
एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु॥१५- २॥

विषयों से उदासीन होना मोक्ष है और विषयों में रस लेना बंधन है, ऐसा जानकर तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा ही करो॥२॥

Indifference in sense objects is liberation and interest in them is bondage.
Knowing thus, do as you like.॥2॥

वाग्मिप्राज्ञामहोद्योगं जनं मूकजडालसं।
करोति तत्त्वबोधोऽयम- तस्त्यक्तो बुभुक्षभिः॥१५- ३॥

वाणी, बुद्धि और कर्मों से महान कार्य करने वाले मनुष्यों को तत्त्व-ज्ञान शांत, स्तब्ध और कर्म न करने वाला बना देता है, अतः सुख की इच्छा रखने वाले इसका त्याग कर देते हैं॥३॥

Eloquent, intelligent and industrious men become calm, silent and inactive after knowing the Truth so the people who are after worldly pleasure discard it.॥3॥

न त्वं देहो न ते देहो भोक्ता कर्ता न वा भवान्।
चिद्रूपोऽसि सदा साक्षी निरपेक्षः सुखं चर॥१५- ४॥

न तुम शरीर हो और न यह शरीर तुम्हारा है, न ही तुम भोगने वाले अथवा करने वाले हो, तुम चैतन्य रूप हो, शाश्वत साक्षी हो, इच्छा रहित हो, अतः सुखपूर्वक रहो॥४॥

Neither are you this body nor this body is yours, you are not the doer of actions or the one who bears their results.
You are consciousness, eternal witness and without desires so stay blissfully.॥4॥

रागद्वेषौ मनोधर्मौ न मनस्ते कदाचन।
निर्विकल्पोऽसि बोधात्मा निर्विकारः सुखं चर॥१५- ५॥

राग(प्रियता) और द्वेष(अप्रियता) मन के धर्म हैं और तुम किसी भी प्रकार से मन नहीं हो, तुम कामनारहित हो, ज्ञान स्वरुप हो, विकार रहित हो, अतः सुखपूर्वक रहो॥५॥

Liking and disliking are traits of mind and you are not mind in any case. You are choice-less. You are of the form of knowledge and flawless so stay blissfully.॥5॥

सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव॥१५- ६॥

समस्त प्राणियों को स्वयं में और स्वयं को सभी प्राणियों में स्थित जान कर अहंकार और आसक्ति से रहित होकर तुम सुखी हो जाओ॥६॥

Know that all beings exist in you and you exist in all beings.
So leave ego and attachment and stay blissfully.॥6॥

विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरंगा इव सागरे।
तत्त्वमेव न सन्देह- श्चिन्मूर्ते विज्वरो भव॥१५- ७॥

इस विश्व की उत्पत्ति तुमसे उसी प्रकार होती है जैसे कि समुद्र से लहरों की, इसमें संदेह नहीं है। तुम चैतन्य स्वरुप हो, अतः चिंता रहित हो जाओ॥७॥

Undoubtedly, this world is created from you just like waves from the sea.
You are consciousness so leave all worries.॥7॥

श्रद्धस्व तात श्रद्धस्व नात्र मोऽहं कुरुष्व भोः।
ज्ञानस्वरूपो भगवा- नात्मा त्वं प्रकृतेः परः॥१५- ८॥

हे प्रिय! इस अनुभव पर निष्ठा रखो, इस पर श्रद्धा रखो, इस अनुभव की सत्यता के सम्बन्ध में मोहित मत हो, तुम ज्ञान स्वरुप हो, तुम प्रकृति से परे और आत्म स्वरुप भगवान हो॥८॥

O dear, trust your experience, have faith on it.
Don't have any doubt on this experience.
You are Knowledge.
You are beyond nature and Lord.॥8॥

गुणैः संवेष्टितो देह- स्तिष्ठत्यायाति याति च।
आत्मा न गंता नागंता किमेनमनुशोचसि॥१५- ९॥

गुणों से निर्मित यह शरीर स्थिति, जन्म और मरण को प्राप्त होता है, आत्मा न आती है और न ही जाती है, अतः तुम क्यों शोक करते हो॥९॥

This body, which is composed of three attributes of nature stays, comes and goes.
Soul (you) neither come nor go, so why do you bother about it.॥9॥

देहस्तिष्ठतु कल्पान्तं गच्छत्वद्यैव वा पुनः।
क्व वृद्धिः क्व च वा हानिस्- तव चिन्मात्ररूपिणः॥१५- १०॥

यह शरीर सृष्टि के अंत तक रहे अथवा आज ही नाश को प्राप्त हो जाये, तुम तो चैतन्य स्वरुप हो, इससे तुम्हारी क्या हानि या लाभ है॥१०॥

This body may remain till the end of Nature or is destroyed today,
you are not going to gain and lose anything from it as you are consciousness.॥10॥

त्वय्यनंतमहांभोधौ विश्ववीचिः स्वभावतः।
उदेतु वास्तमायातु न ते वृद्धिर्न वा क्षतिः॥१५- ११॥

अनंत महासमुद्र रूप तुम में लहर रूप यह विश्व स्वभाव से ही उदय और अस्त को प्राप्त होता है, इसमें तुम्हारी क्या वृद्धि या क्षति है॥११॥

This world rises and subsides in you naturally as waves in a great ocean.
You do not gain or lose from it.॥11॥

तात चिन्मात्ररूपोऽसि न ते भिन्नमिदं जगत्।
अतः कस्य कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना॥१५- १२॥

हे प्रिय, तुम केवल चैतन्य रूप हो और यह विश्व तुमसे अलग नहीं है, अतः किसी की किसी से श्रेष्ठता या निम्नता की कल्पना किस प्रकार की जा सकती है॥१२॥

O dear! you are pure consciousness only and this world is not separate from you.
So how can anything be considered superior or inferior.॥12॥

एकस्मिन्नव्यये शान्ते चिदाकाशेऽमले त्वयि।
कुतो जन्म कुतो कर्म कुतोऽहंकार एव च॥१५- १३॥

इस अव्यय, शांत, चैतन्य, निर्मल आकाश में तुम अकेले ही हो, अतः तुममें जन्म, कर्म और अहंकार की कल्पना किस प्रकार की जा सकती है॥१३॥

You are alone in this imperishable, calm, conscious and stainless space so how can birth, action and ego be imagined in you.॥13॥

यत्त्वं पश्यसि तत्रैकस्- त्वमेव प्रतिभाससे।
किं पृथक् भासते स्वर्णात् कटकांगदनूपुरम्॥१५- १४॥

तुम एक होते हुए भी अनेक रूप में प्रतिबिंबित होकर दिखाई देते हो। क्या स्वर्ण कंगन, बाज़ूबन्द और पायल से अलग दिखाई देता है॥१४॥

You being one, appear to be many due to your multiple reflection.
Is gold different from bracelets, armlets and anklets?॥14॥

अयं सोऽहमयं नाहं विभागमिति संत्यज।
सर्वमात्मेति निश्चित्य निःसङ्कल्पः सुखी भव॥१५- १५॥

यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ, इस प्रकार के भेद को त्याग दो। सब कुछ आत्मस्वरूप तुम ही हो, ऐसा निश्चय करके और कोई संकल्प न करते हुए सुखी हो जाओ॥१५॥

This is me and that is not me, give up all such dualities.
Decide that as a soul, you are everything, have no other resolutions and stay blissfully.॥15॥

तवैवाज्ञानतो विश्वं त्वमेकः परमार्थतः।
त्वत्तोऽन्यो नास्ति संसारी नासंसारी च कश्चन॥१५- १६॥

अज्ञानवश तुम ही यह विश्व हो पर ज्ञान दृष्टि से देखने पर केवल एक तुम ही हो, तुमसे अलग कोई दूसरा संसारी या असंसारी किसी भी प्रकार से नहीं है॥१६॥

This world appears to be real only due to ignorance.
You alone exist in reality.
There is nothing worldly or unworldly apart from you any how.॥16॥

भ्रान्तिमात्रमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चयी।
निर्वासनः स्फूर्तिमात्रो न किंचिदिव शाम्यति॥१५- १७॥

यह विश्व केवल भ्रम(स्वप्न की तरह असत्य) है और कुछ भी नहीं, ऐसा निश्चय करो।
इच्छा और चेष्टा रहित हुए बिना कोई भी शांति को प्राप्त नहीं होता है॥१७॥

Decide that, this world is unreal like an illusion(or dream) and does not exist at all.
Without becoming free from desires and actions, nobody attains peace.॥17॥

एक एव भवांभोधा- वासीदस्ति भविष्यति।
न ते बन्धोऽस्ति मोक्षो वा कृत्यकृत्यः सुखं चर॥१५- १८॥

एक ही भवसागर(सत्य) था, है और रहेगा। तुममें न मोक्ष है और न बंधन, आप्त-काम होकर सुख से विचरण करो॥१८॥

Truth or the ocean of being alone existed, exists and will exist.
You neither have bondage nor liberation.
Be fulfilled and wander happily.॥18॥

मा सङ्कल्पविकल्पाभ्यां चित्तं क्षोभय चिन्मय।
उपशाम्य सुखं तिष्ठ स्वात्मन्यानन्दविग्रहे॥१५- १९॥

हे चैतन्यरूप! भाँति-भाँति के संकल्पों और विकल्पों से अपने चित्त को अशांत मत करो, शांत होकर अपने आनंद रूप में सुख से स्थित हो जाओ॥१९॥

You are of the form of consciousness, do not get anxious with different resolves and alternatives.
Be at peace and remain in your blissful form pleasantly.॥19॥

त्यजैव ध्यानं सर्वत्र मा किंचिद् हृदि धारय।
आत्मा त्वं मुक्त एवासि किं विमृश्य करिष्यसि॥१५- २०॥

सभी स्थानों से अपने ध्यान को हटा लो और अपने हृदय में कोई विचार न करो। तुम आत्मरूप हो और मुक्त ही हो, इसमें विचार करने की क्या आवश्यकता है॥२०॥

Remove your focus from anything and everything and do not think in your heart.
You are soul and free by your very nature, what is there to think in it?॥20॥

कहा जाता है कि अष्टावक्र द्वारा रचित महागीता का एक श्लोक हज़ार माणिकों की तुलना मे भी बहुत अमूल्य है क्यूंकी अष्टावक्र गीता (Ashtavakra Geeta) के श्लोकों मे गागर मे सागर भरने जैसा बताया गया है। लोक हित के लिए गीता बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसे पढ़ना भी आवश्यक है।

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