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मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय

“गुप्त जी ने राम-भक्ति के साथ-साथ मानव प्रेम, मानव सेवा, विश्व-बन्धुत्व आदि सभी भावनाओं का अपने काव्य में समावेश किया है। एक ओर ये भारतीय संस्कृति की रक्षा करने में संलग्न थे तो दूसरी ओर नवीनता और प्रगति के भी पोषक थे। उन्होंने भारतीय संस्कृति के उस स्वरूप को ग्रहण किया जो गतिशील है।” –आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी
मृत्यु– सन् 1964 ई०
जन्म स्थान– चिरगाँव (झाँसी)
पिता– सेठ रामचरण गुप्त
शिक्षा– नवीं कक्षा तथा स्कूल में, फिर घर पर
काव्यगत विशेषताएँ– राष्ट्रप्रेम, नारी का महत्त्व, कलापक्ष और भावपक्ष का समन्वय
भाषा– सरल, शुद्ध, प्रवाहमयी खड़ी बोली
शैली– प्रबन्धात्मक, उपदेशात्मक, गीति नाट्य भावात्मक
रचनाएँ– मौलिक, अनूदित
प्रश्न– श्री मैथिलीशरण गुप्त का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए।
जीवन परिचय– हिन्दी साहित्य के गौरव राष्ट्रकवि श्री-मैथिलीशरण गुप्त का जन्म सन् 1886 ई० में चिरगाँव जिला झाँसी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। आपके पिता सेठ रामशरण गुप्त हिन्दी के अच्छे कवि थे। पिता से ही आपको कविता की प्रेरणा प्राप्त हुई। द्विवेदी जी से आपको कविता का प्रोत्साहन मिला और सन् 1899 ई० में आपकी कवित्एँ 'सरस्वती' पत्रिका में प्रकाशित होनी शुरू हो गयीं। वीर बुन्देलों के प्रान्त में जन्म लेने के कारण आपकी आत्मा और प्राण देशप्रेम में सराबोर थे। यही राष्ट्रप्रेम कविताओं में सर्वत्र प्रस्फुटित हुआ है। आपके चार भाई और थे। सियारामशरण गुप्त आपके अनुज हिन्दी के आधुनिक कवियों में विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। गुप्त जी की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। उसके पश्चात् अंग्रेजी की शिक्षा के लिए झांसी भेजे गये परन्तु शिक्षा का क्रम अधिक न चल सका। घर पर ही आपने बंगला, संस्कृत और मराठी का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया। पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी के आदेशानुसार गुप्त जी ने सर्वप्रथम खड़ी बोली में 'भारत भारती' नामक राष्ट्रीय भावनाओं से पूर्ण पुस्तक की रचना की।
सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय विषयों पर लिखने के कारण वे राष्ट्रकवि कहलाए। 'साकेत' काव्य पर आपको हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने 'मंगलाप्रसाद' पारितोषिक प्रदान किया था।
गुप्त जी को आगरा विश्वविद्यालय ने डी०लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया। सन् 1954 ई० में भारत सरकार ने 'पद्मभूषण' के अलंकरण से इन्हें विभूषित किया। वे दो बार राज्य सभा के सदस्य भी मनोनीत किये गये थे। सरस्वती का यह महान उपासक 12 दिसम्बर सन् 1964 ई० को परलोकगामी हो गया।
साहित्यिक कृतियाँ–
गुप्त जी ने अनेक काव्यों की रचना की है। उनका साहित्य विशाल है और विषय क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं–
मौलिक रचनाएँ– रंग में भंग, जयद्रथ वध, पद्य प्रबन्ध, भारत भारती, शकुन्तला, पदमावती, वैतालिकी किसान, पंचवटी, स्वदेश संगीत, गुरु तेग बहादुर, हिन्दू शक्ति, सैरन्ध्री, वन बैभव, बक संहार, झंकार, साकेत, यशोधरा, द्वापर, सिद्धराज, नहुष, विकट भट, मौर्य-विजय, मंगलघट, त्रिपथगा, गुरुकुल, काबा और कर्बला, अजित, कुणाल गीत आदि।
अनूदित रचनाएँ– विरहिणी-ब्रजांगना, मेघनाद वध, हिडिम्बा, प्लासी का युद्ध तथा उमर खैयाम कीं रुबाइयाँ आपकी अनूदित रचनाएँ हैं।
प्रश्न– श्री मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
कविवर मैथिलीशरण गुप्त युगीन चेतना और उसके विकसित होते हुए रूप के सजग थे। इसकी स्पष्ट झलक इनके काव्य में मिलती है। राष्टू की आत्मा को वाणी देने के कारण वे राष्ट्रकवि कहलाए और आधुनिक हिन्दी काव्य की धारा के साथ विकास पथ पर चलते हुए युग प्रतिनिधि कवि के रूप में स्वीकार किये गये।
गुप्त जी के काव्य में भावपक्ष तथा कलापक्ष सम्बन्धी निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं–
भावपक्ष–
राष्ट्रीयता– श्री मैथिलीशरण जी की कविता में सम्पूर्ण भारतीय जनता का हृदय बोलता है। उसमें सम्पूर्ण राष्ट्र की पुकार सुनाई देती है। वर्तमान भारत के लिए जो कुछ भी अपेक्षित था, वह सब कुछ गुप्त जी की कविता में उपलब्ध होता है। देशप्रेम और राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण आपकी कविताएँ जनता का उद्बोधन करती हैं। वे सच्चे अर्थों में राष्ट्रकवि हैं। देश-भक्ति परक कवि को राष्ट्रीय भावनाओं पर गांधी जी का प्रभाव है-
“जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं है पशु निरा है और मृतक समान है॥”
भारतीय संस्कृति– गुप्त जी श्रीराम के अनन्य भक्त हैं। वाल्मीकि और तुलसी के बाद ये तीसरे कवि हैं जिसने राम के जीवन में स्वाभाविक उत्कर्ष और यथार्थता लाकर जनता के हृदय में कर्तव्यपरायणता तथा चरित्र-निर्माण की भावना जागृत की। गुप्त जी के राम के चरित्र में भारतीय संस्कृति सजीव एवं साकार हो उठी है। जाति, राष्ट्र एवं समाज की सेवा करना ही उनके जीवन का लक्ष्य है-
“भव में नव-वैभव प्राप्त कराने आया,
नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया।
सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया ,
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।"
नारी का महत्त्व– गुप्त जी के हृदय में नारियों के प्रति अटूट श्रद्धा है। नारी का जैसा स्वाभाविक और वास्तविक चित्रण गुप्त जी ने किया है, वह अन्यत्र नहीं मिलता है। नारी के अबलापन और विवशता का चित्र 'यशोधरा' की इन पंक्तियों में देखिए–
“अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी॥”
मनोवैज्ञानिक चरित्र चित्रण– मानव चरित्र का चित्रण करने में गुप्त जी को अद्भुत सफलता मिली है। ये मानव हृदय का मनोवैज्ञानिक ढंग से ऐसा स्वाभाविक चित्र उपस्थित करते हैं कि इनके पात्र सजीव हो उठते हैं। कुछ बाहरी कारणों के संयोग से प्रभावित होकर मनुष्य कभी-कभी अपने मन के विपरीत कार्य कर बैठता है परन्तु जब प्रभाव के दूर होने पर वह प्रकृतिस्थ होता है तब उसे अपने किये पर अवश्य पश्चाताप होता है। साकेत की कैकेयी एक ऐसा ही चरित्र है। वह अपनी भूल को स्वीकार कर पश्चाताप करती है और पश्चाताप के आँसुओं में अपने सारे कलुष धो डालती है।
संवाद रचना– गुप्त जी के संवाद सजीव और स्वाभाविक होते हैं। संवाद रचना में केशव के बाद इन्हीं का नाम आता है। संवाद रचना में गुप्त जी ने वाकपटुता, व्यंग्यात्मकता तथा तर्क-प्रधान शैली से काम लिया है। प्रात:काल में उर्मिला तथा लक्ष्मण का संवाद देखिए-
“उर्मिला बोली, “अजी तुम जग गये,
स्वप्न निधि से नयन कब से लग गये?”
“मोहिनी ने मन्त्र पढ़ जब से छुआ,
जागरण रुचिकर तुम्हें कब से हुआ ?”
“जागरण है स्वप्न से अच्छा कहीं,
प्रेम में कुछ भी बुरा होता नहीं।”
समाज सुधार की भावना– गुप्त जी के काव्य में समाज सुधार की भावना पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है। वे लोकरंजन के साथ-साथ लोकमंगल का भी विधान करना चाहते हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता, अछूतोद्धार तथा विधवा-विवाह आदि के विषय में इनके तर्क अकाटय हैं
भक्ति भावना– गुप्त जी परम वैष्णव हैं। राम के अनन्य होते हुए भी वे सब धर्मों तथा सम्प्रदायों के प्रति आदर भाव रखते है। तुलसी के बाद रामभकत कवियों में इन्हीं का स्थान है। सभी अवतारों में विश्वास तथा श्रद्धा रखते हुए भी भगवान् का रामरूप ही उन्हें अधिक प्रिय रहा है। भक्ति के साथ दैन्य-भाव भी इनके काव्य में पाया जाता है।
तुलसी जैसी रामभक्ति की अनन्यता गुप्त जी के काव्य में देखी जा सकती है-
“धनुर्वाण या वेणु लो श्याम रूप के संग।
मुझ पर चढ़ने से रहा, राम! दूसरा रंग॥”
इस प्रकार भावपक्ष की दृष्टि से गुप्त जी का काव्य उत्तम श्रेणी का है।
कलापक्ष–
गुप्त जी की भाषा– गुप्त जी ने पहले ब्रजभाषा में कविता करनी आरम्भ की थी किन्तु द्विवेदी जी की प्रेरणा से बाद में आप खड़ी बोली में कविता करने लगे थे। खड़ी बोली का जो रूप गुप्त जी के साहित्य में निखरा, वह अन्यत्र नहीं मिलता। आपकी भाषा व्याकरण के नियमों पर कसी हुई विशुद्ध खड़ी बोली है। वास्तव में भाषा के सम्बन्ध में जो कार्य द्विवेदी जी ने आरम्भ किया था उसकी पूर्णता गुप्त जी के साहित्य में होती हुई दृष्टिगोचर होती है। भाषा की उन्नति के लिए आपकी हार्दिक भावना 'भारत-भारती' में इस प्रकार फूट पड़ी है-“मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती।
भगवान् भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती॥”
गम्भीर भावों को सरल, सरस और सुमधुर भाषा में प्रकट कर देना गुप्त जी की लेखनी के लिए सरल काम है। वास्तव में छायावाद के भाव काव्य के लिए भाषा, छन्द और विषय की पूर्व-पीठिका गुप्त जी ने ही तैयार की थी। अलंकारों और छन्दों की विविधता आपके साहित्यिक ज्ञान की पूर्णता का परिचायक है।
गुप्त जी की शैली– गुप्त जी की शैली के तीन रूप हैं- (1) प्रबन्ध शैली, (2) गीत शैली, तथा (3) नाटक शैलीं। इनके अतिरिक्त कहीं-कहीं उपदेश प्रधान शैली भी अपनायी गयी है। गुप्त जी की शैली में प्रसाद माधुर्य तथा ओज, तीनों गुण विद्यमान हैं। आपकी शैली में छायावादी कवियों जैसी मानसिक सूक्ष्मता नहीं है। आपने तुकान्त, अतुकान्त तथा गीति मुक्तक, तीनों प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है। गीतिका और हरिगीतिका छन्दों का तो आपने ऐसा सफल प्रयोग किया है कि अन्य कवियों के लिए वे जूठन सी मालूम पड़ते हैं। संक्षेप में आपकी शैली प्रभावपूर्ण, स्पष्ट, संयत और सजीव है।
इस प्रकार गुप्त जी के काव्य में कुछ ऐसी विशेश्वताएँ हैं, जो अनायास ही उन्हें वर्तमान हिन्दी कवियों में सर्वोच्च आसन दिला देती हैं। वे एक ओर देशप्रेम और राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करते पाये जाते हैं तो दूसरी ओर भारतीय-संस्कृति का उद्धार करते पाये जाते हैं। संक्षेप में यह कहना पर्याप्त होगा कि गुप्त जी के काव्य में सत्यम-शिवम्-सुन्दरम् का सुन्दर समन्वय है। वस्तुतः गुप्त जी राष्ट्रकवि हैं। आधुनिक युग का प्रतिनिधि कवि उन्हीं को माना जा सकता है।
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