साहित्य और समाज पर निबंध | Essay on Literature and Society in Hindi

साहित्य और समाज पर निबंध |  Essay on Literature and Society in Hindi

Essay on Literature and Society in Hindi

इस निबंध के अन्य शीर्षक-

  • साहित्य और समाज
  • साहित्य समाज का दर्पण है
  • साहित्य और मानव-जीवन
  • साहित्य और जीवन

रूपरेखा-

साहित्य क्या है? 

'साहित्य' शब्द 'सहित' से बना है। 'सहित' का भाव ही साहित्य कहलाता है। (सहितस्य भावः साहित्यः)। 'सहित' के दो अर्थ हैं- साथ एवं हितकारी (स+हित= हितसहित) या कल्याणकारी। यहां 'साथ' से आशय है- शब्द और अर्थ का साथ अर्थात सार्थक शब्दों का प्रयोग। सार्थक शब्द का प्रयोग तो ज्ञान विज्ञान की सभी शाखाएं करती हैं। तब फिर साहित्य कि अपनी क्या विशेषता है? वस्तुतः साहित्य का ज्ञान विज्ञान की समस्त शाखाओं से स्पष्ट अंतर है,

(1) ज्ञान विज्ञान की शाखाएं बुद्धिप्रधान या तर्क प्रधान होती हैं। जबकि साहित्य हृदयप्रधान

(2) ये शाखाएं तथ्यात्मक हैं जबकि साहित्य कल्पनात्मक।

(3) ज्ञान विज्ञान की शाखाओं का मुख्य लक्ष्य मानव की भौतिक सुख समृद्धि एवं सुविधाओं का विधान करना है, पर साहित्य का लक्ष्य तो मानव की अंतःकरण का परिष्कार करते हुए, उसमें सदवृत्तियों का संचार करना है। आनंद प्रदान कराना यदि साहित्य की सफलता है। तो मानव मन का उन्नयन उसकी सार्थकता।

(4) ज्ञान विज्ञान की शाखाओं में कथ्य (विचार तत्व) ही प्रधान होता है, कथन शैली गौण। वस्तुतः भाषा शैली वहां विचाराभिव्यक्ति की साधनमात्र है। दूसरी ओर साहित्य में कथ्य से अधिक शैली का महत्त्व है।
उदाहरणार्थ-
जल उठा स्नेह दीपक-सा
नवनीत हृदय था मेरा,
अब शेष धूमरेखा से
चित्रित कर रहा अँधेरा।

कवि का कहना केवल यह है कि प्रिय के संयोग काल में जो हृदय हर्षोल्लास से भरा रहता था, वही अब उसके वियोग में गहरे विषाद में डूब गया है। यह एक साधारण व्यापार है, जिस का अनुभव प्रत्येक प्रेमी हृदय करता है। किंतु कवि ने दीपक के रुपक द्वारा इसी साधारण सी बात को अत्यधिक चमत्कारपूर्ण ढंग से कहा है, जो पाठक के हृदय को कहीं गहरा छू लेता है।

स्पष्ट है कि साहित्य में भाव और भाषा, कथ्य और कथन शैली (अभिव्यक्ति) दोनों का समान महत्त्व है। यह अकेली विशेषता ही साहित्य को ज्ञान विज्ञान की शेष शाखाओं से अलग करने के लिए पर्याप्त है।

साहित्य की कतिपय परिभाषाएं

प्रेमचन्द जी साहित्य की परिभाषा इन शब्दों में देते हैं, "सत्य से आत्मा का संबंध तीन प्रकार का है- एक जिज्ञासा का, दूसरा प्रयोजन का और तीसरा आनंद का। जिज्ञासा का संबंध दर्शन का विषय है, प्रयोजन का संबंध विज्ञान का विषय है और आनंद का संबंध केवल सहित्य का विषय है। सत्य जहां आनंद का विषय बन जाता है, वहीं वह साहित्य हो जाता है।" इस बात को विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर इन शब्दों में कहते हैं, "जिस अभिव्यक्ति का मुख्य लक्ष्य प्रयोजन के रुप को व्यक्त करना नहीं, अपितु विशुद्ध आनंद रुप को व्यक्त करना है, उसी को मैं साहित्य कहता हूं।"

प्रसिद्ध अंग्रेज समालोचक द क्विंसी (De Quincey) के अनुसार साहित्य का दृष्टिकोण उपयोगितावादी ना होकर मानवतावादी है। "ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं का लक्ष्य मानव का ज्ञानवर्धन करना है। उसे शिक्षा देना है। इसके विपरीत साहित्य मानव का अंतः विकास करता है, उसे जीवन जीने की कला सिखाता है, चित्तप्रसादन द्वारा उसने नूतन प्रेरणा एवं स्फूर्ति का संचार करता है।"

समाज क्या है?

ऐसा मानव समुदाय, जो किसी निश्चित भूभाग पर रहता हो, समान परंपराओं, इतिहास, धर्म एवं संस्कृति से आपस में जुड़ा हो। तथा एक भाषा बोलता हो, समाज कहलाता है।

साहित्य और समाज का पारस्परिक संबंध : साहित्य समाज का दर्पण

समाज और साहित्य परस्पर घनिष्ठ रुप से आबद्ध हैं। साहित्य का जन्म वस्तुतः समाज से ही होता है। साहित्यकार किसी समाज विशेष का ही घटक होता है। वह अपने समाज की परंपराओं, इतिहास, धर्म, संस्कृति आदि से ही अनुप्राणित होकर साहित्य रचना करता है। और अपनी कृति में इनका चित्रण करता है। इस प्रकार साहित्यकार अपनी रचना की सामग्री किसी समाज विशेष से ही चुनता है। तथा अपने समाज की आशाओं-आकांक्षाओं, सुख-दुख, संघर्षों, अभावों और उपलब्धियों को वाणी देता है, तथा उस का प्रामाणिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है। उसकी समर्थ वाणी का सहारा पाकर समाज अपने स्वरुप को पहचानता है, और अपने रोग का सही निदान पाकर उसके उपचार को तत्पर होता है। इसी प्रकार किसी साहित्य विशेष को पढ़कर उस काल के समाज का समग्र चित्र मानसपटल पर अंकित हो सकता है। इसी अर्थ में साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है।

साहित्य की रचना प्रक्रिया

समर्थ साहित्यकार अपनी अतलस्पर्शिनी प्रतिभा द्वारा सबसे पहले अपने समकालीन सामाजिक जीवन का बारीकी से पर्यवेक्षण करता है। उसकी सफलताओं-असफलताओं, उपलब्धियों-अभावों, क्षमताओं-दुर्बलताओं तथा संगतिओं विसंगतियों की गहराई तक थाह लेता है। इसके पश्चात विकृतिओं और समस्याओं के कारणों का निदान कर अपनी रचना के लिए उपयुक्त सामग्री का चयन करता है। और फिर इस समस्त बिखरी हुई, परस्पर असम्बद्ध एवं अति साधारण सी दीख पड़ने वाली सामग्री को सुसंयोजित कर उसे अपनी 'नवनवोन्मेषशालिनी' कल्पना के सांचे में डालकर ऐसा कलात्मक रूप एवं सौष्ठव प्रदान करता है कि सहृदय अध्येता रस विभोर हो नूतन प्रेरणा से अनुप्राणित हो उठता है।

कलाकार का वैशिष्ट्य इसी में है कि उस की रचना की अनुभूति एकाकी होते ही भी सार्वदेशिक सर्वकालिक बन जाए तथा अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हुए चिंरनतन मानव मूल्यों से मंडित भी हो। उसकी रचना ना केवल अपने युग, अपितु आने वाले युगों के लिए भी नवस्फूर्ति का अजस्त्र स्रोत बन जाए और अपने देश काल की उपेक्षा न करते हुए देश कालातीत होकर मानाव मात्र की अक्षय निधि बन जाए। यही कारण है कि महान साहित्यकार किसी विशेष देश, जाति, धर्म एवं भाषा शैली के समुदाय में जन्म लेकर भी सारे विश्व का अपना बन जाता है। उदाहरणार्थ- बाल्मीक, व्यास, कालिदास, तुलसीदास, होमर, शेक्सपियर आदि किसी देश विशेष के नहीं मानवमात्र के अपने हैं, जो युगों से मानव को नवचेतना प्रदान करते आ रहे हैं और करते रहेंगे।

साहित्य का समाज पर प्रभाव

साहित्यकार ने समकालीन समाज से ही अपनी रचना के लिए आवश्यक सामग्री का चयन करता है। अतः समाज पर साहित्य का प्रभाव भी स्वाभाविक है।

जैसा कि ऊपर संकेतत किया गया है, कि महान साहित्यकार में एक ऐसी नैसर्गिक या ईश्वरदत्त प्रतिभा होती है, एक ऐसी अतलष्पार्शिनी अंतरदृष्टि होती है कि वह विभिन्न दृश्यों, घटनाओं, व्यापारों, समस्याओं के मूल तक तत्क्षण पहुंच जाता है। जबकि राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री उसका कारण बाहर टटोलते रह जाते हैं। इतना ही नहीं साहित्यकार रोग का जो निदान और उपचार सुझाता है, वही वास्तविक समाधान होता है। इसी कारण प्रेमचंद जी ने कहा है कि "साहित्य राजनीति के आगे मसाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है, राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं।" अंग्रेज कवि शैली ने कवियों को "विश्व के अघोषित विधायक" (Unacknowledged legislators of the world.) कहा है।

प्राचीन ऋषियों ने कवि को विधाता और दृष्ट कहा है- कविर्मनिषी धाता स्वयम्भू:। साहित्यकार कितना बड़ा दृष्टा होता है, इसका एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा आज से लगभग 70 75 वर्ष पूर्व श्री देवकीनंदन खत्री ने अपने तिलिस्मी उपन्यास 'रोहतासमठ' में यंत्रमानव( Robots) के कार्यों का विस्मयकारी चित्रण किया था। उस समय यह सर्वथा कपोलकल्पित लगा क्योंकि उस काल में यंत्र मानव की बात किसी ने सोंची तक ना थी, किंतु आज विज्ञान ने उस दिशा में बहुत प्रगत कर ली है या देख श्री खत्री की नावनवोन्मेष-शालिनी प्रतिभा के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता है। इसी प्रकार आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व पुष्पक विमान के विषय में पढ़ना कल्पनामात्र लगता होगा, परंतु आज उससे कहीं अधिक प्रगति वैमानिकी ने की है।

साहित्य द्वारा सामाजिक ओर राजनीतिक क्रांतियों के उल्लेख से तो विश्व का इतिहास भरा पड़ा है। संपूर्ण यूरोप को गंभीर रुप से आलोड़ित कर डालने वाली फ्रांस की राज्य क्रांति (1789 ई०), रूसो की 'ला कोत्रा सोसियल' (La Contract Social - सामाजिक अनुबंध) नामक पुस्तक के प्रकाशन का ही परिणाम थी। आधुनिक काल में चार्ल्स डिकेन्स के उपन्यासों ने इग्लैंड से कितनी ही घातक सामाजिक एवं शैक्षिक रूढ़ियों के उन्मूलन कराकर नूतन स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात कराया।

आधुनिक युग में प्रेमचंद के उपन्यासों में कृषकों पर जमीदारों के बराबर अत्याचारों एवं महाजनों द्वारा उनके क्रूर शोषण के चित्रों ने समाज को जमींदारी उन्मूलन एवं ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों की स्थापना को प्रेरित किया। उधर बंगाल में शरतचंद्र ने अपने उपन्यासों में कन्याओं के बाल विवाह की अमानवीयता एवं विधवा विवाह निषेध की नृशंसता को ऐसी सशक्तता से उजागर किया कि अंततः बाल विवाह को कानून द्वारा निषिद्ध घोषित किया गया एवं विधवा विवाह का प्रचलन हुआ।

उपसंहार

निष्कर्ष यह है कि समाज और साहित्य का परस्पर अन्योनाश्रित संबंध है। साहित्य समाज से ही उदभूत होता है। क्योंकि साहित्यकार किसी समाज विशेष का ही अंग होता है। वह इसी से प्रेरणा ग्रहणकर साहित्य रचना करता है, एवं अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता हुआ समकालीन समाज का मार्गदर्शन करता है, किंतु साहित्यकार की महत्ता इसमें हैं, कि वह अपने युग की उपज होने पर भी उसी से बंधकर नहीं रह जाए अपितु अपनी रचनाओं से चिरन्तन मानवीय आदर्शों एवं मूल्यों की स्थापना द्वारा देशकालातीत बनकर संपूर्ण मानवता को नई ऊर्जा एवं प्रेरणा से स्पंदित करें।

इसी कारण साहित्य को विश्व मानव की सर्वोत्तम उपलब्धि माना गया है। जिसकी समकक्षता संसार की मूल्यवान से मूल्यवान वस्तु भी नहीं कर सकती। क्योंकि संसार का सारा ज्ञान-विज्ञान मानवता के शरीर का ही पोषण करता है। जबकि एक मात्र साहित्य ही उसकी आत्मा का पोषक है। कहा गया है कि "यदि कभी संपूर्ण अंग्रेज जाति नष्ट भी हो जाए किंतु केवल शेक्सपियर बचा रहे तो अंग्रेज नष्ट नहीं हुई मानी जाएगी।" ऐसे युगष्टा और युगद्रष्टा कलाकारों के सम्मुख संपूर्ण मानवता कृतज्ञतापूर्वक नतमस्तक होकर उन्हें अपने ह्रदय सिंहासन पर प्रतिष्ठित करती है, एवं उनके यश को दिग्दिगन्तव्यापी बना देती है। अपने पार्थिव शरीर से तिरोहित हो जाने पर भी वे अपने यश रूपी शरीर से इस धराधाम पर सदा अजर अमर बने रहे हैं।
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्ध कविश्वरः।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयं।।
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